कथा-कुसुम
लघुकथा- एक और गांधी?
स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर एक गांधीवादी संस्था ने स्वतंत्रता सैनानी श्री दुर्गाप्रसाद बाबूजी के सम्मान में एक भोज का आयोजन किया, जिसमें शहर के गणमान्य लोगों के साथ तमाम मीडिया वालों को निमंत्रण भेजा गया।
शाम के ठीक 7 बजे एक ऑटो रिक्शा पार्क के बाहर आकर रुका, बाबूजी ने जैसे ही ऑटो के बाहर क़दम निकाला एक फटे हाल युवती ने हाथ फैलाकर कहा, “बाबूजी मेरे बच्चों पर रहम कीजिये, मेरी मदद कीजिये।”
इतने में चार-पाँच युवक जो उनके स्वागत के लिए आये थे, उन्होंने उसे फटकारा, “ऐ जाओ, भागो यहाँ से!”
यह देखकर बाबूजी ने उन युवकों को रोका और अपने खादी के कुर्ते की जेब से कुछ पैसे निकाल उस युवती को दिये और एक युवक से कहा, “तुम ये रूपये लो और अभी इसी वक़्त इसके लिए खाना लेकर आओ।” वह युवक चला गया।
खाने से फ़ारिग होते ही मीडिया वाले आ धमके। अपने कैमरे और पेन-डायरी तैयार करके सवालों की झड़ियाँ लगा दी।
“किस प्रेरणा ने गाँधी को आजादी के महासंग्राम में लड़ने की शक्ति दी?”
“खून पसीना बहाकर भी अंग्रेज़ों के पावों तले पीसते, मेहनतकश, कुपोषण के शिकार बच्चे, फटे कपड़ों में लिपटी अबलाओं के अध-मरे जिस्म और हर देश भक्त के सीने की बेचैनी ने उन्हें आजादी और अमन के लिए अंतिम सांस तक लड़ने की प्रेरणा दी।
यह कहकर बाबूजी चुप हो गये, थोड़ी देर बाद एक पत्रकार ने सवाल दागा, “गाँधी जी तो चले गये, आपका सपना क्या है?
उन्होंने कहा, “भ्रष्टाचार, ग़रीबी और जातिवाद मिटाकर आज के दिलों में राष्ट्रीयता का जज़्बा पैदा करने वाला हमें एक और गाँधी चाहिए।
जवाब सुनने के बाद कुछ देर सन्नाटा छा गया। इसी ख़ामोशी को चीरते हुए एक मीडियाकर्मी बड़बड़ाया, “एक और गाँधी???”
– यासीन ख़ान यासीन