कथा-कुसुम
लघुकथा- अफ़सोस
शेखर साहब तीस वर्षों की लम्बी सरकारी सेवा सफलतापूर्वक पूरी करने के बाद तीस जून को सेवानिवृत्त हो गये। एक जुलाई को सूचना मिली कि शेखर साहब नहीं रहें। बहुत दुःख हुआ ,सेवानिवृत्त के अगले दिन ही उनका देहान्त हो जायेगा, ऐसा किसी ने सोचा ही नहीं था।
भारतीय परम्परा के अनुसार मृत्यु के बाद बारह दिनों तक रिश्तेदारों एवं परिचितों का आना जारी रहा। उनका इकलौता पुत्र, जिसकी उम्र 25 वर्ष थी। सभी आने वाले से मिलता, पुत्र अभी रोज़गार की तलाश में था। बहुत सारे लोग आये और सांत्वना देकर चले गये।
एक दिन एक महाशय सांत्वना देने आये और बातों ही बातों में एक विचित्र बात कह गये। उन्होंने कहा, “बहुत दुःख की बात है, परन्तु जो घटना एक जुलाई को घटी वह अगर 29 जून को घटी होती तो बेटे को रोज़गार मिल जाता। जाने वाले को जाना ही था तो एक दिन पहले या एक दिन बाद में कोई विशेष फ़र्क नहीं पड़ता।
बेटे ने जब यह सुना तो उसे बहुत गुस्सा आया। उसने सोचा यह व्यक्ति कैसी अप्रिय बात करता है। लाखों रुपये ख़र्च करके जीवन का एक पल भी नहीं ख़रीदा जा सकता। और वह व्यक्ति एक दिन पहले की बात करता है। इसके बाद अगले कुछ दिनों में उसे घर से बाहर लोगों की आपसी बातचीत सुनने को मिली, जिसमें वे सभी इसी बात को दोहरा रहे थे कि काश! ये घटना 29 जून को ही हो जाती। बारह दिन पूरे होते-होते बेटे को भी अफ़सोस होने लगा कि पिता जी को जाना ही था तो एक जुलाई का इन्तज़ार क्यों किया?
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लघुकथा- यथार्थ
मेरी उम्र लगभग पन्द्रह वर्ष थी। इस उम्र में जीवन दर्शन या आध्यात्म जैसा ज्ञान नहीं होता है। अतः स्वछन्द जीवन था। जन्म मरण की अवधारणा अनुभव से परे थी। एक पड़ौसी महिला के साथ उसके किसी रिश्तेदार की दूर गाँव में मृत्यु होने के कारण बैठने जाना पड़ा। इस प्रकार के दुखद अवसर पर मैं पहली बार जा रहा था। अतः वहाँ के माहौल का पूर्वानुमान मुझे बिल्कुल नहीं था।
जब गाँव में उस मृतक के घर पहुँचा तो वहाँ पर हो रहे करुण क्रंदन तथा माहौल को देखकर मैं सकते में आ गया। कुछ भी समझ नहीं पा रहा था कि किसी को क्या कहूँ, कैसे सांत्वना दूँ। कैसे इस करुण क्रंदन को रोकूँ।
एक दरी बिछीं हुई थी। वहीं पर सिर झुकाकर चुपचाप बैठा गया। मन बहुत दुःखी था। मन ही मन यह सोच रहा था कि मैं कहाँ आ गया।
थोड़ी देर बाद एक वृद्ध महिला मेरे पास आयी और कहा- “बेटा अन्दर जाकर रोटी खा ले।”
मैंने कहा- “माँ जी! सभी लोग इतना अधिक रो रहे हैं, मेरा मन रोटी खाने का बिल्कुल नहीं है।”
वृद्धा ने बहुत ही यथार्थ की बात बोली- “बेटा, यह सब रोना-धोना रोटियों का ही है। एक ही कमाने वाला था और वह भी इस दुनिया से चला गया।” इतना कहकर वह वृद्धा भी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। मैं जीवन में प्रथम बार करुणा के सागर में डूब गया।
– अरुण कुमार गौड़