लघुकथाएँ
शक़
“सुनो जी, दुकानदार आज फिर अपने रुपये माँगने आया था।”
“कब?”
“जब आप ऑफिस चले गये थे।”
“तुमने क्या कहा?”
“मैंने कहा कि अभी घर का बजट सही नहीं है, सही होते ही दे देंगे|”
“फिर?”
“फिर वह चला गया।”
“इतनी आसानी से?”
“और क्या!”
“उसने तुम्हें कुछ कहा तो नहीं?”
“इतना शरीफ है वह, मुझे क्या कहेगा?”
“ये बाल धूप में सफेद नहीं हुए हैं कम्मो! मुझे पढाओ मत। मैं कल ही कर्ज पर रुपये लेकर उसका बकाया चुका दूँगा।”
बिछोह
ट्रेन छूटने ही वाली थी कि “पापा पापा, आप हमें छोड़कर कहाँ जा रहे हो? ये आपके साथ बैठी हुई आंटी कौन हैं?” हाँफते हुए बोली मिन्नी। प्लेटफार्म पर इधर-उधर ढूँढ़ते हुए अचानक उसे उस ट्रेन की एक खिड़की से सटे बैठे उसके पापा नजर आ गये थे। तभी मिन्नी का छोटा भाई भी दौड़ते हुए आया, फिर वहीं खड़ा होकर बेहद लाचारगी से पापा को टुकुर-टुकुर निहारने लगा। पापा तो चुप रहे, पर वह आंटी भभक पड़ी- “देखा, मैंने कहा था न कि तुम्हारे बच्चे इतनी आसानी से तुम्हें नहीं छोड़ने वाले! अब इनके प्यार में पड़कर ट्रेन से उतर न जाना। यहीं कहीं वह करमजली भी होगी, अभी जरूर आ टपकेगी।” तभी ट्रेन ने सीटी दे दी, साथ ही धीरे-धीरे रेंगने लगी। मिन्नी का छोटा भाई जोर-जोर से रोने लगा। मिन्नी चिल्लाई- “पापा, भगवान के लिए किसी और आंटी के साथ यह शहर छोड़कर न जाओ, हम सभी दर-बदर हो जायेंगे, मम्मी प्लेटफार्म के बाहर बेहोश पड़ी हैं!”
ईर्ष्या
“कौन हो?”
“मैं रोहित हूँ आण्टी, दरवाजा खोलिये।”
“क्या काम है?”
“आप दरवाजा तो खोलिये पहले।”
“पहले काम तो बताओ।”
“आण्टी, नौकरी मिल गई है मुझे। मिठाई लेकर आया हूँ।”
“अरे ठीक है, ठीक है। मिठाई हमने भी खाई है। देर सवेर मेरे बेटे को भी नौकरी मिल जाएगी। और नहीं मिली, तो घर की खेती तो है न! तुम मिठाई वहीं दरवाजे के ऊपर रख दो, उठा लूँगी।”
“पर आण्टी, इस खुशी में मुझे अपने पाँव तो छू लेने दो।”
“मेरे पाँव में हीरे-मोती जड़े हैं क्या? तुम तो सरस्वती के उपासक हो। जाओ, उनकी ही पूजा-अर्चना करो, उनके ही चरण छुओ, शायद इससे भी ऊँची नौकरी मिल जाए।”
– मुन्नू लाल