कथा-कुसुम
लघुकथाएँ:
नन्हीं शबरी
‘‘डियर तनु ! एक सेब मुझे दे दो बेटा।’’ पांच वर्षीय तनु के दोनो हाथों में एक एक सेब को देख कर मां ने बड़े अनुनय विनय की मुद्रा में उसके आगे हाथ फैलाते हुए कहा।
तनु कुछ पीछे हट गई और तुरन्त एक सेब को अपने दांतों से थोड़ा काट कर खाने लगी। ‘‘ओह तनु ! अच्छा, यह दूसरा वाला सेब मुझे दे दो।’’ मां ने फिर उसी तरह उससे आग्रह किया। तनु इस बार भी नहीं मानी और उसने दूसरे सेब को भी थोड़ा चख लिया।
‘‘अरे तेरा दिमाग खराब हो गया है! दोनों सेब झूठे कर दिये! कुछ समझती ही नहीं। आज मेरा व्रत है।’’ मां उस पर झल्ला उठी। उसने सोचा अब इस समय बाजार से सेब किसके साथ मंगाएगी।
इतने में तनु फ्रिज की ओर दौड़ी। उसने फ्रिज में छुपाये एक लाल सुर्ख सेब को निकाला और इससे पहले कि मां उसे लेती, उसने उस पर भी अपने दांत गड़ा दिये। अब तो मां क्रोधवश उबल पड़ी। ‘‘तनु !…इतनी बद्तमीजी! इसे भी झूठा कर दिया? अब मैं क्या खाऊंगी ?…
‘‘मां ये एप्पल झूठा नहीं, मीठा है। इसे खाओ। पहले वाले दोनों तो कुछ खट्टे थे।‘‘ मां कुछ क्षण तनु की दिव्य मुस्कान से अभिभूत उसे अपलक देखती रही। उसने उसे अपनी छाती से चिपका लिया और वह झूठा सेब खाने लगी।
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फर्क पड़ेगा
आज स्कूल की पिकनिक में वह समुद्र तट पर आई हुई थी। उसका मन खेलकूद में नहीं लग रहा था। इतने में समुद्र की एक तेज लहर आई और हजारों छोटी मछलियों को रेत पर पटक कर लौट गई। मछलियों को रेत में तड़पते देखा तो उसका बाल मन करूणा से भर गया। वह उनके पास गई और अपने नन्हें हाथों से एक-एक मछली को पकड़ कर समुद्र के पानी में डालने लगी। वह कुल चार-पांच मछलियों को ही पानी में डाल पाई थी कि पास ही से गुजर रहे एक आदमी ने उसे ऐसा करते देख कहा-
“यहां तो हजारों मछलियां पड़ी हैं, बेटी! तुम्हारे ऐसा करने से क्या फर्क पड़ेगा?“
“जिन्हें मैं पानी में डाल रही हूं , उनको फर्क पड़ेगा।“ अपनी धुन में मशगूल वह उस आदमी की ओर देखे बिना ही बोली।
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दिव्य प्रेम पंद्रह रूपये किलो
कई दिनों से एक गाय रखने और उसकी सेवा करने की उसकी हार्दिक इच्छा थी। सो एक दिन उसने एक देषी गाय खरीद ही ली। उसके लाल रंग का सफेद छपाकों वाला एक नवजात बछड़ा था। वह उसे प्यार से नंदू कहने लगा। नंदू की आंखें इतनी प्यारी और आकर्षक थीं कि वह इनमें साक्षात गोपाल के प्रिय बछड़े की दिव्यता का अनुभव करने लगा। उसकी बाल-सुलभ अठखेलियों पर वह मुग्ध हो उठता। सुबह उठते ही वह नंदू के सिर व पीठ पर हाथ फेरता और उसके मुंह को अपने सीने से लगा कर चूमा करता। शाम को दफ्तर से लौटते ही पहले वह नंदू की कुशलक्षेम देखकर उसे पुचकारने के बाद ही घर में घुसता।
लेकिन एक सुबह अचानक नंदू लड़खड़ाकर जमीन पर गिर पड़ा। उसकी आंखें पथराने लगीं। तुरंत पशु चिकित्सक को बुलाया गया । उसने नंदू को बचाने की भरपूर कोशिश की, लेकिन असफल रहा ।
उसे काटो तो खून नहीं। कुछ ही मिनटों में जैसे सब कुछ खत्म। भारी सदमे के साथ वह इतना दुखी हो गया कि लगभग सप्ताह भर उसे खाने-पीने का होश भी नहीं रहा। उधर गाय नंदू के वियोग में रात दिन रंभाने लगी। ग्वाले के अनुसार कभी-कभार गाय की आंखों से पानी बहने की बीमारी हो जाती है लेकिन उसे तो गाय की आंखों से झरते दुख भरे आंसू ही लगे। वह उसकी उदास और क्रुद्ध आंखों का सामना करने से कतराने लगा। उसे लगा, मानो वे उससे कह रही हों – तुम सक्षम होकर भी मेरे बछड़े को बचा नहीं सके। क्या यही था नंदू के प्रति तुम्हारा दिव्य प्रेम?“
उन दिनों गाय का दूध प्रतिदिन बारह किलो से घटकर करीब आठ-नौ किलो रह गया था। समय बीतने के साथ वह नंदू को भूलकर गाय के भविष्य और उसके घटते दूध की चिंता करने लगा।
“गाय बहुत दुखी है। बछड़े के बिना उसके दूध का क्या होगा?“ उसने अपने ग्वाले से पूछा ।
“चिंता की कोई बात नहीं साब। कुछ दिनों में गाय की आदत पड़ जाएगी। और . . . उलटा आपको फायदा ही होने वाला है।“ अनुभवी ग्वाला उसकी ओर मुस्कराते हुए बोला।
“फायदा . . . वह कैसे?“ वह चकित था।
“देखो साब, अभी गाय की हरे घास की खुराक बढ़ा देंगे। कुछ दिनों में यह वापस बारह किलो दूध देने लगेगी। वह आपको पूरा-का-पूरा मिलेगा न। अब नंदू . . . होता तो चार किलो वह पी जाता। पंद्रह रूपये किलो के हिसाब से आपको रोजाना साठ रूपये का फायदा हो गया न साब!“ ग्वाले ने एक व्यावसायिक विषेषज्ञ की तरह उसकी ओर देखते हुए कहा।
और वह सचमुच नंदू के दिव्य प्रेम को भूलकर लाभ की उस गणित को समझने में व्यस्त हो गया।
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लव यू बोले तो..?
आज गांव में जश्न का माहौल था। वृद्ध किसान-दंपति के वैवाहिक जीवन की स्वर्ण जयंति मनाई जा रही थी। बेटे-पोते-नाती से घिरा वृद्ध-युगल मंत्रोचारण के दौरान हंसी ठिठौली के बीच एक बार फिर सात फेरे खा रहा था। भारतीय संस्कृति की खोज में यहां आया एक अमेरिकन पत्रकार इस घटना को बड़ी उत्सुकता से अपने वीडियो केमरे में कैद कर रहा था।
पचास साल से इनकी शादी कायम है और वह भी हंसी खुशी के साथ! उसके लिए यह एक अजूबा था। उसे जब यह मालूम हुआ कि सात फेरे खाने का अर्थ सात जन्मों तक यह संबंध अटूट रखने की कामना होती है तब तो उसके आश्चर्य का ठिकाना ही नहीं रहा। पैंतालीस साल की उम्र होते-होते तो स्वयं उसके तीन तलाक हो चुके थे और चौथी पत्नी जो उसे मिली उसके लिए भी वह तीसरा पति था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपने भाग्य को कोसे या उस पर हँसे।
कुछ देर बाद एक दुभाषिये की मदद से उस वृद्ध दूल्हे से अमेरिकन पत्रकार के कुछ सवाल-जवाब हुए।
“आपने अपनी पत्नी को अब तक कितनी बार ‘आई लव यू बोला ।“
“कांई मतबल…!
“ए पूछे है क थें थांरी घरवाली ने अब तक कित्ती बार कैयो क मैं थनै प्रेम करुं हूं‘
इस बार वृद्ध सचमुच नये दूल्हे की तरह शरमा गया। कुछ सकुचाते हुए उसने कहा, “एकर भी नीं… बस, मैं तो इत्तौ जानूं हूं क चौदह साल री उमर सूं इसने हमारा घर-परिवार संभाल रखा है। आज तक भी रोज म्हारै लिए खेत पर भातै (लंच) लेर आवै है और खेजड़ी रे नीचे बैठ वह अपणे हाथ सूं म्हनै खिला र खुद भी खावै है। हम संग-संग धूप-छांव, बादळ-बरसात और सुख-दुख री बातां करां..। मैं और कुछ नहीं जाणता।“ उसने दुल्हन के वेश में खड़ी अपनी पत्नी की ओर गर्व से देखते हुए कहा।
अमेरिकन पत्रकार के लिए जानने को अब कुछ नहीं बचा था। उसे अपने सारे प्रश्नों के उत्तर मिल गये थे।
– मुरलीधर वैष्णव