कथा-कुसुम
लघुकथा
यह कोई बात हुई!
विमला को राखी पर भाई ने झूमका क्या दे दिया कि दिन-रात वह उसमें झूलने लगी।
“भई, साले साहब हैं कमाल के! मुझे लगता है ऐसा झुमका…।” पति ने चुटकी ली।
“तो…, अबर तो हार कहा है।”
“भई, मैं भी सोच रहा हूँ कि सरिता के लिए कुछ गहना- वहना…।”
“क्या…।” विमला का चेहरा करैला हो गया।
“क्यों वह मेरी बहन नहीं है क्या?”
“कहाँ कह रही हूँ…पर…। नहीं…नहीं, एक अच्छी साड़ी रखी है; वह दे देना। और नहीं तो पैसा दो तो खरीद कर रख जाती हूँ।” यह सुनकर मनोज उसका चेहरा गजब आँख़ों से देखने लगता है। विमला जब वह नज़र अपने झूमके पर टिकी पाती है तो अनायास उस पर पानी पड़ जाता है।
“मैं तो तुम्हें जाँच रही थी, अबर बिना कुछ विशेष के काम चलने वाला नहीं!” पत्नी की इस लजपच्ची पर पति मुस्करा रहा था।
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विश्वास
पहले पीटी फिर मेंस और अब चौथा साल इंटरव्यू में…सिलेक्शन होने से रहा…। …इन सब में दीनानाथ की… बची सिर्फ़ एक गाय।
“दीनू भाई! चार साल से कलेक्टर का परीछा दे रही है और अभी तक का हुआ? हाँ, तुमलोग कंगाल जरूर हो गए। लड़की ब्याह- बुआह कर काम समाप्त करो।” जवाब में दीनानाथ मुस्करा कर रह जाते।
“हैलो…बाबूजी…कैसे हैं आप? ”
“ठीक हैं बेटिया, तोर आवाज काँप काहे रहा है रे…?”
“बाबूजी…।”
“नहीं बेटा, तुम अपना काम करते जाओ। एकदम सीढ़ी से जा रही है रे…। पागल कहीं के…। केकरो बात पर ध्यान मत दिहो।”
“बा…बू…जी…।”
उधर मेहनत के, इधर विश्वास के आँसू झर रहे थे।
– सुमन कुमार