यादें
लंच बॉक्स
प्रतिदिन सुबह जल्दी उठना और बेटे का लंच स्कूल के लिए पैक करके देना, दिनभर के सबसे आवश्यक कामों मे से एक था। सर्दियों मे बेटा सात बजे स्कूल की बस को पकड़ने निकल जाता था। यदि पाँच या दस मिनट लेट हुआ तो बस निकल जाती थी। स्कूल घर से 30 किलोमीटर दूर था तब जाकर आठ बजे स्कूल वक्त पर पहुँच पाते थे। दिव्य उस समय सातवीं कक्षा में था, और उम्र ग्यारह वर्ष।
सुबह जल्दी-जल्दी सारा नाश्ता बनाना और अन्य तैयारियाँ करनी होती थीं। फिर याद से स्कूल बैग में सब पुस्तकें रखना और सबसे आवश्यक था लंच बॉक्स रखना। उस दिन पता नहीं कैसे लंच बॉक्स रखना भूल गयी। बस चली गयी। क्योंकि स्कूल 30 किलोमीटर दूर था तो लंच बॉक्स पहुँचाना भी सम्भव न था। स्कूल से लौटने का समय सांय चार बजे था। बस! पूरे दिन अफ़सोस करती रही कि दिव्य को भूख लगी होगी तो क्या खाया होगा। कैसे भूखा रहा होगा।
किसी तरह शाम के चार बजे। मैं साढ़े तीन बजे से ही गेट के बाहर खड़ी होकर इंतज़ार कर रही थी। कल्पना कर रही थी कि बेटे का भूख के मारे मुँह सूख गया होगा। तभी चार बजे के आसपास दिव्य हँसता हुआ घर आ गया। उसे देखते ही मैंने पहला प्रश्न यही किया, “बहुत भूख लगी है न? लंच बॉक्स छूट गया था।”
दिव्य ने जब बताया, “नहीं माँ, अभिनव ने और सिद्धार्थ ने अपने लंच बॉक्स में से खिलाया था। जब उनको पता चला कि मैं लंच बॉक्स घर भूल आया हूँ। और वैभव ने दस रूपये भी दिए थे।” मेरी दिनभर की परेशानी दिव्य की बात सुनकर ग़ायब हो चुकी थी और मन दिव्य के दोस्तों की सद्हृदयता पर ख़ुशी से प्रफुल्लित हो गया। मैं बच्चों की आपसी सहयोग की भावना को समझ चुकी थी कि यह बच्चे, जिन्हें हम नासमझ समझते हैं वास्तव मे समझदार हैं और हम बड़ों से अधिक एक-दूसरे की ज़रूरत का समय पर ध्यान रखते हैं।
– आरती शर्मा