विमर्श
राकेश कबीर की कविताओं में प्रकृति चेतना
– बृजेश प्रसाद
प्रकृति मानव की सहचरी है। लोक जीवन में प्रकृति और मनुष्य का धूप-छाँव वाला समन्वय है। प्रकृति की उन्मुकता और उसकी सामूहिकता ने मनुष्य को विस्तार दिया है। मानव-जीवन की भावनाओं को व्यापक बनाया है। हम कह सकते हैं कि मानवीय अनुभूतियों का विकास प्रकृति की सहज वृत्तियों के रूप में हुआ है। कृषि संस्कृति का मूलाधार प्रकृति है और कृषि संस्कृति का प्रत्येक आचरण भी प्रकृति से ही प्रेरित होता है।
राकेश कबीर की कविताओं में प्रकृति अपने रंग-रूपों, मुद्राओं और विशेषताओं के साथ-साथ अपनी अस्तित्व की पहचान के रूप में अभिव्यक्त हुई है। प्रकृति के प्रति इतना सचेत, उन्मुक्त और खुला अनुराग, धरती से जुड़े वैभव की इतनी सूक्ष्म और गहरी पकड़ एवं इतना बारीक संवेदनामयी वर्णन राकेश कबीर की कविताओं की विशिष्टाता को दर्शाता है।
‘नदियाँ बहती रहेंगी’ और ‘कुँवरवर्ती कैसे बहे’ कविता संग्रह प्रशासनिक सेवा में रहते हुए डॉ. राकेश कबीर द्वारा लिखे गये प्रकृति चेतन और संवेदनयुक्त कविता संग्रह हैं।
डॉ. राकेश कबीर युवा कवि हैं, जिनके यहाँ प्रकृति अपने मूल रूप में नहीं बल्कि अपनी अस्तित्व की पहचान की तलाश में दिखाई देती है। राकेश कबीर अपनी कविताओं में लगातार नदियों, तालाबों, झीलों और लोक को बचाने के लिए लिखते रहे हैं। अभी तक उन्होंने लगभग चार-पाँच छोटी नदियों को जीवन दिया है, साथ ही जो नदियाँ अपना अस्तित्व खो चुकी हैं, उन्हें पुनः जीवित करने के लिए मुहिम भी चला रहे हैं। लोगों को पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के प्रति सचेत कर रहे हैं।
वर्तमान समय में जिस तरह प्रकृति का दोहन हो रहा है, उस पर क्षुब्ध होकर राकेश कबीर कहते हैं, “ग्रामीण पर्यावरण में प्रकृति के साथ हमारा जो अटूट और अविच्छिन रिश्ता एक विरासत के रूप में मिलता है, वह आजीवन हमारे साथ बना रहता है। इसलिए प्रकृति को क्षत-विक्षत करती ताकतों के खिलाफ एक गुस्सा सहज ही मन में उभर आता है।”1
प्रकृति मानव जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। प्रकृति और मानव जीवन शुरू से अंत तक साथ बनी रहती है। मानव हर रूप में हर समय किसी न किसी प्रकार से प्रकृति से जुड़ा रहता है। भारतीय मनीषियों ने भी अपनी हृदयगत अनभूतियों को व्यक्त करने के लिए इन प्राकृतिक उपादानों को आधार बनाया। राकेश कबीर भी ‘बेचारी नदियाँ’, ‘सूखती नदियाँ’, ‘रोते पहाड़’, ‘घुटती साँस’, ‘खंडहर’, ‘बादलों की मुनादी’, ‘किसान’, ‘पानी कहाँ जाये’ आदि कविताओं के माध्यम से एक पूरे अंचल की प्रकृति के प्रति दृष्टिकोण को खींचते हैं–
पहली बार सूख गयी है सई नदी
दूर तक उड़ता है रेत का बवंडर
सीना ताने टीले से नज़र बचाकर
गलबहियाँ करने को सिसकती हैं
दोनों तरफ बिछड़ती धार
ऐसे में बेबस मन सोचता है
क्यों नहीं मचती उथल-पुथल
धरती के सीने में अब।2
संतोष पटेल लिखते हैं, “डॉ.राकेश कबीर समकालीन चेतना के एक ऐसे संजीदा कवि हैं, जिनकी कविताओं में नदियाँ, पहाड़, झील-झरने, ताल-तलैया, वृक्ष-जंगल का दृश्य प्रमुखता से उपस्थित हुई है। आज कल दुनिया में जो चिंता ग्लोबल वार्मिंग और प्रदुषण से हो रही है, वह राकेश कबीर की कविताओं के केंद्र में है।”3
राकेश कबीर ने अपनी कविताओं की काव्य-पृष्ठभूमि का आधार पर्यावरण के साथ ही लोक-जीवन, कृषक जीवन, ग्रामीणों की वास्तविक स्थिति, स्वदेश प्रेम, मुखिया, अधिकारियों-राजनेताओं के अत्याचार, देश-दशा, राष्ट्रीय जागरण, पलायन, श्रमिकों की दीन-हीन दशाओं, नारी-शिक्षा जैसे सामाजिक सरोकारों को भी बनाया है। गाँव से लगाव होने के कारण राकेश कबीर अपनी कविताओं में लोक जीवन, उसकी स्थितियों, विडंबनाओं और अंतर्विरोधों के यथार्थ चित्र भी अपनी कविताओं में प्रस्तुत करते दिखाई देते हैं। इसी तरह का लोक जीवन का ग्राम्य बोध पहले केदारनाथ अग्रवाल, केदारनाथ सिंह, नागार्जुन, त्रिलोचन और ठाकुर गोपाल शरण सिंह की कविताओं में देखा जा सकता है।
शिवमूर्ति लिखते है, “गाँव, प्रकृति और नदियों को देखने की दृष्टि पहले के साहित्यकारों में भी रही है। राकेश कबीर उनसे प्रेरणा नहीं लेते बल्कि जिस नज़र से प्रकृति को बचाने, छोटी-छोटी नदियों के अस्तित्व के लिए लिखते हैं, आज वह सबसे महत्वपूर्ण है।”4 राकेश कबीर की कविताओं में जो दृश्य, उद्देश्य और सरोकार एवं बोलने का साहस है, वे तीनों चीज़ें उनकी कविताओं को विशिष्टता प्रदान करती है।
दिन-प्रतिदिन हम जितना उन्नत हो रहे हैं, उतना ही प्रकृति के साथ खिलवाड़ भी कर रहे हैं। अपने स्वार्थ हेतु मानव लगातार तालाबों को पाट रहा है, नदियों के किनारों को भर-भर कर अपना खेत बना रहा है तो वहीं अब देहाती दुनिया के खेत-खलिहानों में कुआँ अपना अस्तित्व खो चुका है। लगातार मानव द्वारा प्रकृति का इस तरह से दोहन ख़तरे की एक बड़ी निशानी है। एक सर्वे के अनुसार उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और गुजरात में भूगर्भ का जल स्तर लगातार नीचे गिरता जा रहा है। गाँव-शहर को छूती हुई लगभग छोटी नदियों का अस्तित्व या तो ख़त्म हो गया या वह ख़तरे में हैं, जिसका कारण मानव का स्वार्थ है।
राकेश कबीर के संग्रह में संकलित कविताएँ मानव जीवन और प्रकृति के साथ समन्वय के रूप में प्रस्तुत हुई हैं। संकलन में लगभग 50 कविताएँ नदियों को केंद्र में रखकर लिखी गयी हैं, बाकी की लगभग कविताएँ प्रकृति, लोक जीवन, लोक संस्कृति और लोक में प्रेम को केंद्र में रखकर लिखी गयी हैं। प्रस्तुत संकलन में यह गौर करने वाली बात है कि राकेश कबीर के यहाँ प्रकृति अपने असल रूप में दिखाई नहीं देती, बल्कि उनके यहाँ नदियाँ, तालाब, पेड़-पौधे, झील-तलैया सब अपने अस्तित्व और पहचान के लिए लड़ती हुई आवाज़ बनकर प्रस्तुत हुए हैं।
कौशल किशोर लिखते हैं, ” ‘नदियाँ बहती रहेंगी’ कविता संग्रह जिस रूप में दिखाई देती है, उस रूप में है नहीं। ‘नदियाँ बहती रहेंगी’ एक सवाल के रूप में भी है और ज़िद के रूप में भी।”5
राकेश कबीर की कविताओं में लिहाजा सम्पूर्ण देश के पर्यावरण को देखा जा सकता है। उनकी कविताएँ विराट प्रकृति का गायक हैं। नदियों का मरना, तालाबों का भरना, पहाड़ों का कटना, कुँओं का ढकना इत्यादी राकेश कबीर को विचलित कर आक्रोश से भर देता है। ‘कुछ कहने दो’ कविता में वे लिखते हैं–
कुछ कहने दो
मैं वही कहूँगा
जो मैं जानता हूँ
मैं वही कहूँगा
जो कहा जाना बहुत जरूरी है
मैं वही लिखूंगा
जो आज लिखा जाना
निहायत जरूरी है।6
राकेश कबीर मूलतः ग्रामीण अंचल की उपज हैं। उनकी काव्य यात्रा विभिन्न वैचारिक स्थितियों से होकर गुजरती है, लेकिन निम्न मध्य वर्ग परिवार में जन्म लेने के कारण उनकी काव्य यात्रा में प्रारंभ से अंत तक अपने अंचल, वर्ग, समुदाय के प्रति हमदर्दी बनी रही है। अपनी कविताओं में वे ग्रामीण जीवन का लोक, परंपरा एवं प्राकृतिक प्रतीकात्मकता को काव्य में स्थान-स्थान पर प्रतिबिंबित करते दिखाई देते हैं। बेचारा किसान, साजिशें, बहादुर लडकियाँ, विद्रोह, एक किसान का मरना, ग़रीब की मौत, हक़, बेचारी झोंपड़ी, खलिहान, नदियाँ, उलटी धार, बाढ़ में भाषण, सरायन, कुंवरवर्ती आदि कविताओं में विस्तृत ढंग से लोक जीवन की आर्थिक-सामाजिक और प्रकृति का बड़ा हिस्सा प्रस्तुत हुआ है–
जब एक किसान अपने खेत में
जेठ की लू भरी दोपहरी में
तड़प-तड़पकर मर जाता है तो
वह अकेले नहीं मरता
बल्कि सारी इंसानियत मर जाती है
सारी सभ्यता, सारी संस्कृति मर जाती है
और एक राष्ट्र के रूप में हम सब मर जाते हैं।7
मसलन राकेश कबीर की कविताएँ प्रकृति और मानव जीवन से संवाद करती हुई प्रतीत होती हैं। कविताओं में सूक्ष्मता के साथ विचार सम्पन्नता एवं लयात्मकता है। तमाम असंगतियों, विसंगतियों, विडम्बनाओं, संघर्षों, राजनीति और उपलब्धियों को अपनी कविताओं के माध्यम से अभिव्यक्त करना राकेश कबीर का अपना विशेष अनुभव रहा है। वे अपने परिवेश को प्रयोगशाला की तरह जीते हैं और अपने अनुभव को कविता से जोड़ते जाते हैं। उनकी कविता से प्रस्तुत है–
जब खेत शहर बन जाते हैं और
उनमें सभ्य लोग बस जाते हैं
तब फसलें नहीं घरों के फर्श सींचे जाते हैं
खेतों को सींचने आई कल की नहर
गंदा नाला बन जाती है।8
हबीब इरफ़ान लिखते हैं, “जल संकट पेचीदा और खतरनाक मोड़ पर आ पहुँचा है। साहित्य की दुनिया में मध्यवर्गीय जिंदगी स्त्री विमर्श, दलित, आदिवासी विमर्श में एक अध्याय जोड़ना आवश्यक हो गया है।”9
हिंदी कविता की परंपरा में राकेश कबीर की कविताएँ लीलाधर जगूड़ी, श्रीप्रकाश शुक्ल, राजेश जोशी, अरुण कमल, मदन कश्यप, एकांत श्रीवास्तव आदि से अपने को जोड़ते हुए कथ्य और तथ्य के स्तर पर बिलकुल अलग भारतीय जनजीवन और प्रकृति के एक सर्वथा नवीन सामाजिक इतिहास को बयां करती हैं।
शिवमूर्ति कहते हैं, “राकेश कबीर में दृष्टि है, सरोकार और साहस भी है। राकेश अपनी अभिव्यक्ति में सरल हैं, वे जो कहना चाहते हैं और जैसे कहना चाहते हैं, समझ आता है। उनकी कविताओं में गाँव, नदियाँ, पहाड़ों को देखने की सर्वथा नवीन दृष्टि है। उनके शब्दों में प्रतिकूल परिस्थितियों के विरुद्ध अड़कर खड़ा होने का साहस भी है।”10
‘मौसम की खबर’ कविता में राकेश कबीर किसानों की लाचारी और खेत पटवन के लिए मानसून पर निर्भरता का मार्मिक वर्णन करते हैं। खेत की फटी हुई छाती को देख किसान का कलेजा मुँह को आता है और वह बरबस बोल उठता है–
ऐ सूखे सावन के बेरहम बादलो!
लुका-छिपी क्यों करते हो बे
भटकते हो आवारा आसमान में
इधर से उधर निठठल्लों की तरह
थोड़ा बरस तो जाओ
प्यासी धरती का गला तर करने के वास्ते, यार।”11
इस तरह राकेश कबीर लोक में बदलाव की विकट तस्वीर को बड़ी पैनी दृष्टि से देखते हैं। भारतीय समाज, प्रकृति, गाँव-देश की ऐसी बिगड़ी दशा देख; वे बहुत दुखी हो जाते हैं। वह गाँव की इस बदलती स्थिति पर दुःख व्यक्त करते हैं। ‘विकास तुम न आना’ कविता में कवि त्रासदी के बारे में लिखता है-
तुम आओगे तो बंजर हो जाएगी
हमारे पुरखों की हरी-भरी धरती
तुम आओगे तो वीरान हो जायेंगे
हमारे पहरेदार हरे-भरे जंगल।”12
रामजी यादव लिखते हैं कि “राकेश की कविताओं में प्रकृति एक बड़ा अवलंबन बनकर आती है। प्रकृति उनके यहाँ अनेक दृश्यों और बिम्बों में विद्यमान है, जिसे वे बहुत ही मग्न होकर देखते हैं। सावन गद्गद होकर नन्हकू की झोंपड़ी के छप्पर के छेदों से सबकुछ सराबोर कर देता है। यह हिंदी कविता के लिए एक दुर्लभ दृश्य है कि प्रकृति की अंतरक्रियाओं के बीच कवि की दृष्टि ग़रीबी में लिपटे नन्हकू के जीवन तक जाती है।”13
इस तरह की दृष्टि राकेश कबीर को महत्वपूर्ण कवि बनाती है। उनके पास समाज, देश-दुनिया प्रकृति को देखने की व्यापक दृष्टि है। प्रकृति उनको जितनी अपनी ओर खींचती और रोमांचित करती है, उससे अधिक उन्हें तकलीफ से भी भरती है। बेजुबान पशु-पक्षियों की चिंता, नदियों का सूखना, पेड़ों का कटना, पहाड़ों का समतल मैदानों में बदलना कवि मन को अवसाद से भर देता है-
कल-कल बहते गंदे नाले
नदियाँ सूखी जाती हैं
सूख रही हैं झीले कई
दरियाओं की साँस टूटी जाती है
भर गये कुएँ सारे कूड़े से
तालाबों की भी दुर्गति हुई जाती है
कहाँ जायेंगे प्यास बुझाने बेजुबान परिंदे
इंसानों ने तो अपनी दुर्गति को खुद ठानी है।14
वैसे तो राकेश कबीर ने जीवन के सभी पक्षों पर कविताएँ लिखी हैं लेकिन प्रकृति के साथ उनका आत्मीयकरण इतना प्रबल और यथार्थ है कि जहाँ भी उन्होंने अपने लोक व प्रकृति का चित्रण किया, वहाँ उनकी पकड़ गहरी सिद्ध हुई है।
हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि नरेश सक्सेना लिखते हैं, “राकेश कबीर की कविताएँ अपने समय की आवाज़ है, जो वर्तमान के कठिन दौर में भी साहस के साथ प्रस्तुत हुई हैं। मैं युवा कवि राकेश कबीर एवं उनके कविता संग्रह को दाद देता हूँ।”15
बहरहाल जिस तरह से राकेश कबीर ने अपनी कविताओं में ग्रामीण प्रकृति के विराट रूप को देखा है, प्रकृति में मानव जीवन को देखा। उस तरह बहुत कम कवियों ने प्रकृति में मानव जीवन को देखा। इस दरम्यान बहुत कवियों ने प्रकृति चित्रण किये, लेकिन उनमें ज्यादात्तर केवल कोकिल, चातक, मोर, वर्षा, आम वगैरह आदि को ही अधिकांशतः देखा। तात्पर्य यह है कि उन कवियों ने प्रकृति को केवल खंडो में देखा। इन खंडो से निर्मित प्रकृति का जो अखंड रूप है, उसे देखने की दृष्टि राकेश कबीर को प्राप्त हुई है। अतः प्रकृति के इस रूप से अभिभूत होकर लिखी गयी अनेक मार्मिक कविताएँ ‘नदियाँ बहती रहेंगी’ और ‘कुँवरवर्ती कैसे बहे’ काव्य संग्रह में देखा जा सकता है।
आधार ग्रन्थ सूची–
० ‘कबीर’ राकेश ‘नदियाँ बहती रहेंगी’ अगोरा प्रकाशन वाराणसी, प्रथम संस्करण 2018
० ‘कबीर’ राकेश ‘कुँवरवर्ती कैसे बहे’ प्रभात प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2019
० फेसबुक पेज ‘RAKESH PATEL’
० कविताओं के संदर्भ में राकेश ‘कबीर’ से बातचीत
संदर्भ ग्रंथ सूची–
1. कबीर राकेश,‘नदियाँ बहती रहेंगी’’, अगोरा प्रकाशन, बनारस, संस्करण- 2018, पृष्ठ- 02
2. कबीर राकेश,‘नदियाँ बहती रहेंगी’’, अगोरा प्रकाशन, बनारस, संस्करण- 2018, पृष्ठ- 20
3. हिंदी के हावियर हिराव (Jeveir Heraud): डॉ. राकेश कबीर, आलेख- संतोष पटेल
4. ‘नदियाँ बहती रहेंगी’ कविता संग्रह लोकार्पण, लखनऊ, वक्तव्य- शिवमूर्ति
5. ‘नदियाँ बहती रहेंगी’ कविता संग्रह लोकार्पण, लखनऊ, वक्तव्य– कौशल किशोर
6. कबीर राकेश, ‘कुँवरवर्ती कैसे बहे’, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2020 पृष्ठ- 139
7. कबीर राकेश, ‘कुँवरवर्ती कैसे बहे’, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2020 पृष्ठ- 76
8. कबीर राकेश, ‘कुँवरवर्ती कैसे बहे’, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2020 पृष्ठ- 39
9. इरफ़ान हबीब, जमींन और जल, मनुष्य और पर्यावरण, वाणी प्रकाशन, पृष्ठ- 35
10. कबीर राकेश, ‘कुँवरवर्ती कैसे बहे’, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2020 भूमिका
11. कबीर राकेश,‘नदियाँ बहती रहेंगी’’, अगोरा प्रकाशन, बनारस, संस्करण- 2018, पृष्ठ- 77
12. वही, पृष्ठ संख्या- 16
13. वही, पृष्ठ संख्या- 07
14. वही, पृष्ठ संख्या- 17
15. ‘नदियाँ बहती रहेंगी’ कविता संग्रह लोकार्पण, लखनऊ, वक्तव्य– नरेश सक्सेना
– बृजेश प्रसाद