लेख
योगिनी पूजन और नारी सशक्तिकरण की सार्थकता: आशा शैली
भारत, आर्यों का देश, जितना विविधताओं और आश्चर्यों का देश है, उतना ही सांस्कृतिक सभ्यता की प्राचीन और समृद्ध धरोहरें भी अपने उदर में समेटे हुए है। आर्य शब्द का सम्बोधन इन्हीं संस्कृतियों से सुसंस्कृत और सुसभ्यजनों के लिए प्रयोग में लाया जाता था, जो कि उस सभ्यता के वाहक थे, न कि किसी जाति विशेष के लिए और यह सभ्य और सुसंस्कृत जाति ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अति समृद्ध रही है। इस बात के एक नहीं अनेक प्रमाण उपलब्ध हो जाते हैं। आर्यों की प्राचीन विद्याओं में नक्षत्र गणना, फलित ज्योतिष, आयुर्विज्ञान, प्राकृतिक चिकित्सा, स्पर्श चिकित्सा आदि का समावेश प्राचीन काल से रहा है। इस गहनतम विद्या को कालांतर में लोकाचार अथवा लोक संस्कृति कहा जाने लगा। दरअसल विद्वानों के मतानुसार भावात्मकता ही लोक संस्कृति की जननी है, इसके अन्तर्गत शकुन-अपशकुन, जादू, टोना-टोटका आदि आते हैं। झाड़-फूंक आदि दैनिक विश्वास इसके अटूट अंग हैं।
भारतीय वांग्मय का समृद्धतम और नारी प्रशस्ति का एकमात्र प्राचीन ग्रन्थ है देवी भागवत पुराण। इस प्राचीनतम ग्रन्थ में देवी दुर्गा की यशःकीर्ति का वर्णन है। हिमाचल प्रदेश में चाहे बहुसंख्या में बौद्ध मन्दिर-मठ और बौद्ध मतावलम्बी भी हैं, परन्तु वास्तव में यह शैव-शाक्त प्रधान प्रदेश है। चैत्र और आश्विनी नवरात्र देवियों की प्रातः और सन्ध्या के पूजन व्रत एवं चण्डी पूजन आदि से जुड़े हैं। जोग-जोगिनियों का पूजन भी इनसे जुड़ा है क्यूंकि योगिनियों को भगवती दुर्गा से सम्बन्धित कहा गया है। देवी के दश महाविद्या रूपों को तंत्र का प्राण माना जाता है। तंत्र का सम्बन्ध दशमहाविद्या के साथ होने से योगिनी पूजा आदि इस क्षेत्र में प्रचलित है। इन दिनों भगवती के मंदिरों ज्वालामुखी, चामुण्डा, बज्रेश्वरी, नयना देवी, तारादेवी, रेणुका, भीमाकाली, श्यामाकाली, लक्षणा देवी, टारना देवी आदि शक्ति मंदिरों में अपार जन समूह समस्त भारत के विभिन्न प्रान्तों से उमड़ आता है। तन्त्र साधना के अन्तर्हिमालय के क्षेत्रों से जुड़े मंदिरों में जोगिनियों के पूजन का अपना महत्व है, तो भी उत्तर पूर्वी क्षेत्र में इसकी मान्यता अधिक और विशेष रूप से है।
योगिनी क्या है? इसे जानने के लिए हमें जोगिनियों अथवा योगिनियों के उद्गम के पौराणिक आधार देवी भागवत के कथानकों से प्राप्त होते हैं, यथा व्यास जी देवी भागवत में कहते हैं कि “चण्ड-मुण्ड के निधन होने पर बचे हुए सैनिक अपने स्वामी दैत्यराज निशुम्भ के पास गये और रोते-घबराते हुए कहने लगे, “महाराज हमें उस काली से बचा लीजिए जो हमें मारकर खा जाना चाहती है।” तब शुम्भ ने राक्षस प्रवर रक्तबीज को सेना ले जाकर भगवती के साथ युद्ध करने को कहा और आज्ञा दी कि पूरी तत्परता के साथ उस स्त्री का वध कर दो। रक्तबीज की सेना ने जब दुर्गा पर आक्रमण किया तब भगवान शिव-शंकर वहाँ आए और भगवती को कहा कि देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए दैत्यों को अभी मार डालो। जगत के शुभचिंतक, विश्व कल्याणकारी शंकर जब ऐसा कह रहे थे तभी भगवती को आवेश आया। इतने में ही भगवती चण्डिका के शरीर से एक विचित्र शक्ति उत्पन्न होकर प्रकट हुई। उस अत्यन्त भयंकर शक्ति के मुख से ‘‘हूहू’’ के ऐसे शब्द निकले मानों सैकड़ों गीदडि़याँ एक साथ बोल रही हों। मुख मुस्कान भरा था। शंकर को भगवती ने कहा “देवेश्वर! तुम दूत बनकर जाओ और शुम्भ को कहो कि वह पाताल चला जाए। यदि मरना हो तो युद्ध भूमि में आ जाए। मेरी शिवाएं ये योगिनियां तुम्हारे रक्त और माँस से तृप्त हो जाएंगी।” अर्थात् योगिनियाँ दुर्गा की सहयोगी शक्तियाँ हुईं। शंकर तब दूत बनकर शुम्भ के पास गये और संदेश सुनाया। शंकर के संदेश को दैत्य सहन न कर सके और रक्तबीज लड़ने के लिए युद्ध भूमि में आया। चंडिका के साथ युद्ध में उसके रक्त गिरने से असंख्य रक्तबीज पैदा होने लगे। जब दुर्गा ने काली को जिह्ना बढ़ाकर रक्तबीज का रक्त पीने का आदेश दिया। उस समय जो जोगिनियां प्रकट हुईं, वे भी अपने खप्पर से रुधिर पीने लगीं। इस प्रकार रक्तबीज का रक्त क्षीण हुआ और उसका भगवती ने वध कर दिया। अर्थात् योगिनियाँ दूसरी बार प्रकट हुईं।
इन जोगिनियों की उत्पत्ति के सम्बन्ध में एक अन्य कथानक भी है। ‘रक्तबीज के साथ जब भगवती युद्ध कर रही थी तो उसने योगिनी या जोगिनी का स्वरूप धारण कर लिया। उसका सारा शरीर प्रकंपित हो गया। सिर के बाल बिखर गये, हवा में टूट-टूट कर उड़ने लगे, बाल जहाँ-जहाँ गिरे जोगिनी का रूप धारण कर गये। देवी ने जब खड्ग-त्रिशूल से रक्तबीज पर प्रहार किया तो ये जोगनियाँ अपना खप्पर लेकर उसका रक्त पीने लगीं। रक्तबीज भागकर अन्तर्हिमालय के क्षेत्रों की ओर दौड़ा और भागता हुआ सिरमौर, महासू आदि उत्तर पूर्वी क्षेत्रों में पहुँचा और मारा गया जो कालांतर में जोगिनियों के स्थान बने। भगवती ने उन योगिनियों को वरदान दिया कि कलियुग में तुम्हारी पूजा हुआ करेगी। एकान्त स्थानों में तुम्हारे वास होंगे। तब से ये वहाँ वास करती हैं। त्रिशूल, मेख, लोह के शस्त्र लगे वृक्ष इनके स्थान हैं। आज भी गाँव-देहात में जहाँ किसी स्त्री को जोगिनी का आवेश आता है, शरीर में प्रकम्पन होकर बाल बिखर जाते हैं।
डाॅ. शमी शर्मा के अनुसार “जोगिनी शब्द योगिनी का अपभ्रंश रूप है। ‘य’ अक्षर प्रयत्न लाघव से ज में परिवर्तित हो गया है। ज्योतिष शास्त्र में योग और करण का सम्बन्ध सूर्य और चन्द्रमा की गति से कहा जाता है। सूर्य और चन्द्रमा अश्विनी नक्षत्र से जब इकट्ठे आठ सौ कलाएँ पार करते हैं तो एक योग व्यतीत होता है। यह योग सत्ताईस है। इसी प्रकार से चन्द्रमा की एक तिथि का आधा भाग ‘करण’ होता है। इस प्रकार से नभ में विचरण करते हुए यह योग और करण, मनुष्य को प्रभावित करते हैं। ऐसी ही अदृश्य शक्तियाँ नभ में विचरण करती हैं, जिन्हें योगिनी या जोगिनी नाम दिया गया है।”
योगिनियों या जोगिनियों के पौराणिक पक्ष को लेकर ज्योतिष शस्त्र और तंत्र के अनुसार हिमाचल प्रदेश में इनके पूजन का विधान है। इन की संख्या चौसठ हैं और सभी के नाम हैं। ये निरन्तर वायु मंडल में विचरण करती रहती हैं। कर्मकाण्ड के अनुसार किसी भी अनुष्ठान या संस्कार की निर्विघ्नता से परिसमाप्ति के लिए योगिनी पूजन अनिवार्य माना गया है। यज्ञ एवं बड़े महायागों में यज्ञ परिसर के अंदर योगिनी, वास्तु, क्षेत्रपाल और नवग्रह यज्ञ मंडल के चार कोनों पर स्थापित किये जाते हैं, इससे सिद्ध है कि सर्वप्रथम योगिनी पीठ होता है। इनका वर्ण सिन्दूरी लाल होता है। वस्तुतः पूजार्चना में योगिनियों का महत्व सर्वोपरि है। उनकी रुष्टता पर अमंगल या अकस्मात् विघ्न होने की संभावना रहती है। अपने राक्षसी स्वरूप से अमानुषी दानवीयता की संहारिका शक्तियाँ बन विघ्न बाधाओं का भक्षण और तक्षण करती हैं। तान्त्रिक अनुष्ठानों में इनकी भावात्मकता का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है।
इस प्रकार हम दखते हैं कि देश में शक्तिपूजा के अनुष्ठान में इन तान्त्रिक शक्तियों को बहुत अधिक महत्त्व दिया जाता है। वास्तव में देवी भागवत पुराण अथवा दुर्गा सप्तशती के माध्यम से नारी सशक्तिकरण की ही पुष्टि होती है, जिसके प्रतिबिम्ब ही कहें तो हिमाचल में नारी स्वातंत्र्य और सशक्तिकरण पहले से ही उपस्थित है। यहाँ महिलाओं को समाज में पर्याप्त अधिकार प्राप्त हैं, यही योगिनी पूजन की सार्थकता कही जा सकती है।
– आशा शैली