कविता-कानन
ये दीवाली है या वो दीवाली थी…?
जेबों भर खील बताशे थे,
मस्ती और खेल तमाशे थे,
झोली भर भर खुशियां थी,
फुलझड़ियां और पटाखे थे…
आंगन में दीये रोशन थे
सच में वो दीवाली थी।
भेद नहीं जब लोगों में थे,
प्रेम सभी के दिलों में थे,
हंसी ख़ुशी से मिलजुल कर,
पड़ोसी भी मिलते महफ़िलों में थे..
मोहल्ले भी रोशन होते थे
सच में वो दीवाली थी।
फीके सब पकवान लगे,
शहर भी अब वीरान लगे,
रस्में बेमन से निभाते हैं,
बेरंग सभी त्यौहार हुए…
बारुद की महक है सड़कों पर
ये कैसी दीवाली है..?
मन में कोई अरमान नहीं है,
घर में कोई मेहमान नहीं है,
अब सब खुद में ही गुम है,
अपनेपन का नामोनिशां नहीं है..
अब बैठ के सोचूं मैं ये आज
ये दीवाली है या वो दीवाली थी…?
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ऐसे दीवाली मना पाई
कुछ वक्त से खुशियां रूठी हैं,
जीवन कुछ सूना सूना है
आज सब कुछ भूला के मैं,
कुछ उम्मीदों के दीप जला आई
रात फुटपाथ पे कुछ बच्चे,
ठंड में ठिठुरते सोए थे
सुबह सुबह सबसे पहले,
उन्हे कुछ कंबल गर्म उढ़ा आई
कुछ बच्चे सड़कों पर देखे,
जो कूड़े में खुशियां ढूंढ रहे थे
उन बच्चों से मिलकर,
थोड़ी मिठाई खिला आई
कुछ घर मैंने ऐसे देखे जहां
आज दीये तो क्या जलते
बस उनमें से कुछ एक घरों में,
चूल्हे आज जला आई
कुछ सालों से जुड़े हैं हम,
कुछ नेत्रहीन बच्चों से दिल से
कुछ वक्त साथ बिताकर उनके,
उनको अपनापन दे आई
पड़ोस के घर में एक मां ने,
अपने बेटे को खोया था
उनकी सूनी देहरी पर,
धीरज के दो दीप जला आई
एक मां कोख में पलती बेटी से,
छुटकारे को तत्पर थी
मां का मान बताकर उसको,
एक लक्ष्मी की जान बचा पाई
जीवन के सूने पलों में चुने,
मैंने आज खुशियों के कुछ पल
कुछ ऐसे अपने अपनों के संग,
मैं आज दीवाली मना पाई
– प्रीति सुराना