संस्मरण
ये उन दिनों की बात है!
यादों की पोटली खोलने बैठती हूँ तो अपने को विस्मृति के उस अथाह सागर में पाती हूँ, जहाँ की तिलिस्मी दुनिया में न जाने कितने अनमोल, अनगिनत भूले- बिसरे पल, दिन, महीने, साल सब कहीं गहरे, बहुत पीछे छूट गये।
कितनी- कितनी बातें, यादें मन को जकड़े रहती हैं। आगरा का वह बड़ा सा सत्ताईस कमरों का मायके का घर। छुपा-छुपी के खेल में कौन सा बच्चा कहाँ जाकर छुप गया, किसी की मजाल है जो ढूँढ ले। ऊपर से प्रत्येक कमरे का एक अनूठा नाम। ये बैठक, ये रेडियोघर, ये तहखाना, ये मम्मी का कमरा, वह कोठरी जिसमें थी तिजोरी और धन का अथाह भंड़ार, और ये पौली, जिसमें हर समय न जाने कहाँ से आकर एक-न-एक गाय विराजमान रहती। नीचे वाली छत पर मन्दिर और ऊपर वाली छत पर दुर्गा की कोठरी। दुर्गा, हमारा बहुत पुराना भृत्य। मन्दिर में सुबह और शाम दोनों समय पूजा होती, लेकिन संध्या आरती देखने लायक होती। जैसे ही घन्टे- घड़ियाल बजते, ऊपर- नीचे, गली- मुहल्ले की सारी चिल्लर मन्दिर में आरती के बाद शंख फूँका जाता और उसकी ध्वनि बहुत देर तक हमारे कानों में गूँजती रहती। प्रसाद वितरण के बाद सारी जनता तितर- बितर हो जाती और हम घर के बच्चे जब तक खाना नहीं लग जाता, छत पर खेलते रहते। मन्दिर में राधा- कृष्ण, शिव- पार्वती की दर्शनीय मूर्तियों के साथ – साथ पन्द्रह- बीस छोटे-बड़े लड्डूगोपालजी भी थे। बड़ी बड़ी फ्रेमजड़ित सभी भगवानों की तस्वीरें। कल्याण के ढ़ेर, रामचरितमानस, गीता, भागवत, शिव-पुराण, जिसे मैंने चौदह साल की उम्र में ही पूरा पढ़ ड़ाला था। आज न मन्दिर रहा, न घंटे-घड़ियाल, न शंख-ध्वनि ना बच्चों की टोली। समय के प्रवाह में रेशा-रेशा बनकर सब इधर उधर बिखर गया ।
ऊपर की छत से दिखता था ताजमहल। कोई मेहमान आता तो हम सबसे पहले उसे छत पर ले जाते और उँगली से दिखा कर कहते, “देखो! वह रहा ताजमहल। हमारी तो छत पर से ही दिखता है।” यह कहते हुए हमें बड़ा गर्व महसूस होता।
छत से ही दिखाई देती मुख्य बाजार की सड़क। रात होते – होते जैसे एक रंगबिरंगी दुनिया जीवन्त हो उठती। बत्तियों, बल्बों की जगमगाहट से सारा बाजार जगमगा उठता। सामने दिखती मंगो हलवाई की दुकान, बड़ी सी कड़ाही में दूध औटाते हुए उसके नौकर और कुल्हड़ में दूध पीते हुए, मधुमक्खी के छत्ते से जमा हुए असंख्य लोग। ये आगरा वालों की खासियत है, उनका दिन शुरू होता है गरमा- गरम कचौड़ी और जलेबी के नाश्ते से और रात का समापन होता है खौल – खौल कर लाल हो गये मलाईदार दूध से।
इसी छत पर घूम- घूम कर मैंने घन्टों पढ़ाई की है। इसी छत पर से न जाने कितनी प्रेम- कहनियों के सफल, असफल किस्से देखे हैं। छत की मुँडेर पर, जगमगाती रोशनियों के साये में बैठकर न जाने कितने किस्से कहानियों का मायाजाल बुना है। मेरी भांजी प्रीति, आरती और भतीजी गीता और नीता ने इसी मुँडेर पर बैठकर जीवन भर की यादों को यहाँ समेटा है। बचपन की कैसी अनोखी, रंगीन परी कथा जैसी दुनिया थी। हमारी छत से झाँकने पर दिखता था ‘कलकत्ता होटल‘। उस के ओनर की भांजी थी मालविका चौधरी। उसी ने मुझे बंगला सिखायी, लिखना- पढ़ना और बोलना। बोल उतनी अच्छी तरह से नहीं पाती हूँ पर आज भी पूरी तरह से लिख और पढ़ लेती हूँ और कोई बोल रहा हो तो समझ भी लेती हूँ।
मालविका से बंगला लिखना सीख कर फिर मैंने अपने भतीजे राकेश को भी सिखायी और बहुत समय तक हम लोग पत्र- व्यवहार बंगला में ही करते थे। यादों को उलीचने बैठूँ तो एक अकथ कहानी है, कहने को।
छत पर ही थी हमारे बहुत पुराने भृत्य दुर्गा की कोठरी। शायद मेरे जन्म से भी बहुत पहले से वह वहाँ रहता था, उसका एक हाथ कोहनी से नीचे कटा हुआ था,और एक आँख में परमानेन्ट मोतिया था परन्तु एक हाथ से भी वह जिस कुशलता से काम करता था, वह देखने लायक था। एक साबुत हाथ में पानी से भरी बाल्टी और दूसरे ठूँठे हाथ पर दूसरी बाल्टी लटकाकर वह सर्राटे से तीन मंजिल चढ़ जाता था। क्योंकि वह छत पर रहता था, बहुत समय तक मेरे बच्चे ये ही समझते थे कि ताजमहल दुर्गा ने बनवाया है। यहाँ तक कि एक बार जब हमारी क्लिनिक पर किसी पेशेन्ट ने उनसे ये पूछा कि “ताजमहल किसने बनाया है?” तो उन्होंने बड़े कॉन्फीड़ेन्स से कहा ’दुर्गा’ ने।
गर्मियों की छुट्टियों का भी हमारा अपना एक अलग इतिहास है। सारे भाई-भाभी,बहन, भतीजे-भतीजियां, भांजे-भांजियां, चचेरे-ममेरे। कुल मिलाकर इतने घरवाले इकठ्ठे हो जाते थे, जितने आज शादी-व्याह में भी नहीं होते। नाश्ते में किलो के हिसाब से जलेबी – कचौड़ी आते। एक विशालकाय भगौने में कभी ठंड़ाई , कभी शरबत बनता। सारे दिन धमाचौकड़ी मचती। अच्छा है उस समय मोबाइल नहीं थे, नहीं तो शायद मैं आज ये सब न लिख पाती जो लिख रही हूँ।
खाना खाते ही कमरों में पर्दे लगाकर अँधकार कर दिया जाता और सभी बच्चों को कड़े शब्दों में हिदायत दी जाती कि सब चुपचाप सो जाओ, बाहर मत निकलना, लू लग जायेगी। हम आँख बंद कर सोने का नाटक करते और जैसे ही देखते माँ और दूसरे लोग सो गये हैं, हम धीरे से बाहर निकल जाते और लंगड़ी, आइस- पाइस, गुट्टे , गुड़िया और न जाने क्या क्या खेलते। गुड़ियों का व्याह तो खूब धूम- धाम से किया जाता। बाकायदा बारात आती, गुड़िया को दहेज दिया जाता, रो- रो कर विदा किया जाता और दूसरे दिन हम अपनी गुड़िया को मायके भी लाते और फिर दूसरे पक्ष को अपनी गुड़िया देने से मना करते फिर इस बात पर खूब झगड़ा होता। बचपन की अनगिनत यादें , अनोखे खेल जो आज के बच्चे शायद कभी न जान पायें। उन्हीं गर्मियों की अलसाई दुपहरियों में हम डाँस सीखते थे और सिखाता था मेरा भतीजा शैलेन्द्र जो आज आगरा का सुविख्यात डॉक्टर है। अच्छे से मेकअप करके, साड़ी पहनाकर बच्चों को तैयार करता और फिर नाचना सिखाया जाता।मैं कह सकती हूँ मेरा व बहुत सारे और लोगों का वह नृत्य गुरू है।
जितना बड़ा परिवार था, उतने ही नौकर थे। कल्याण, चंदन , बरतन माँजने वाली सोमा जो मेरी बैस्ट फ्रेंड नीरजा के घर भी काम करती थी और हमारा चलता- फिरता पोस्टमैन थी। दोपहर को मेरी चिठ्ठी ले जाती, रात को नीरजा का जवाब लाती। कितनी मासूमियत से भरे हुए छोटे- छोटे पत्र
‘कल शुक्रवार है, नंद टॉकीज में नयी पिक्चर लग रही है, चलें? फर्स्ट डे, फर्स्ट शो’
‘हाँ, चलते हैं, पर मम्मी से कौन पूछेगा’
‘बंक मारते हैं’’
या फिर—-
‘कल छुट्टी है, सदर चलें,या किनारी बाजार चलते हैं। सेठ गली में भल्ले खायेंगे’’
कितनी कितनी यादें हैं, यादों से भरी बातें हैं, अनकहे अफ़साने हैं, एक परीकथा सी दुनिया है।
आगरा को याद करूँ तो अपने स्कूल और कॉलेज को कैसे भूल सकती हूँ। ‘ऐग्लों बंगाली गर्ल्स इन्टर कॉलेज’ स्कूल लाइफ़ क्या होती है, कोई मुझसे पूछे! पहला उपन्यास ,ऐंग्लों बंगाली स्कूल में पेड़ के नीचे बैठकर छुप छुप कर पढ़ा, मैंने और नीरजा दोनों ने दसवीं में, गुलशन नंदा का भँवर। फिर तो जो चस्का लगा है। पढ़ने की किताब के बीच में छुपाछुपा कर ना जाने कितने उपन्यास पढ़े गये। हमारा पाँच सहेलियों का ग्रुप था, शैल, मधु मुदगल, वीना उपाध्याय, नीरजा और मैं। कालचक्र के प्रवाह में सब खो गये पर नीरजा और मेरी दोस्ती आज भी वैसी ही है। तेज बरसात होने पर हमारे स्कूल की छुट्टी हो जाती थी और मेरा और नीरजा का पिक्चर देखने का प्रोग्राम। यहीं हमने एन. सी. सी ज्वाइन किया और वो दो साल मेरे जीवन का सुनहरा काल था। एन. सी. सी की प्रैक्टिस के लिए हम लोग आगरा कॉलेज जाते थे और वहाँ के लड़के और लड़कियाँ मिलकर प्रैक्टिस करते थे और न जाने कितने अफ़साने शुरू होने से पहले ही दम तोड़ जाते थे। उनमें से एक नाम प्रदीप जोसफ़ आज भी स्मृतियों के पटल पर विराजमान है। समय के प्रवाह में वह भी न जाने कहाँ खो गया।
हमारा स्कूल बंगाली था इसलिए दुर्गा पूजा और बसन्त पंचमी का विशेष महत्व था। नौ दिन हमारे स्कूल में रोज रात को पूजा होती थी और हमारा जाना अनिवार्य होता था। विसर्जन वाले दिन भी हम लोग आँसू बहाते हुए प्रतिमा विसर्जित करने जाते थे। बसन्त पंचमी के दिन खूब धूमधाम से सरस्वती पूजा होती थी और प्रसाद में चार- चार लड्डू मिलते थे। हमारे स्कूल में एक कैन्टीन हुआ करती थी, जिसे एक वृद्ध चलाते थे, जिन्हें सारा स्कूल दादू कहता था। दादू की दुकान के क्रीम रोल का स्वाद आज भी नहीं भूली हूँ।
और फिर कॉलेज, बी. डी.के की कैन्टीन के समोसे और चाय। फ्री पीरियड में हम लोग कॉलेज के टैरेस पर जाकर बैठ जाते थे। वहाँ से दिखती थी वह सड़क जहाँ से रोज एक-न- एक अर्थी जाती थी। श्मशान पास था और उसी रास्ते से अंतिम यात्रा निकल कर अंतिम धाम को जाती थी। जैसे ही सुनाई देता ‘ राम नाम सत्य है’ हम एकदम गम्भीर होकर मुर्दे को देखते और फिर पूरी रात मैं ड़र के मारे सो नहीं पाती थी। लगता अभी वह आकर मेरा गला दबा देगा और कहेगा, “किसे मुर्दा कह रह थी बोल” क्योंकि राम नाम की ध्वनि सुनते ही सबसे पहले मैं चिल्लाती
‘वो देखो, मुर्दा जा रहा है।”
आज तो बिचारे के भाग्य में कहाँ चार कँधे, कहाँ हुलसते हुए श्मशान तक जाना और कहाँ लोगों का पार्थिव देह को देखकर, अरे कौन था, कौन था कहना। आज का मुर्दा मजे से एंबुलैंस में जाता है और फर्राटे से इलेक्ट्रिक सुरंग में जाकर स्वाहा । कहना अच्छा नहीं लगेगा पर आज भी किसी गाँव में किसी को चार कंधे पर जाता देखती हूँ तो ले जाने वालों के लिए मन में बड़ी श्रद्धा उपजती है।
हमारे घर में त्योहारों का भी बड़ा महत्व था। गुजरात में जितना दीवाली का महत्व है, उतना उत्तर प्रदेश में होली का होता है। आठ दस दिन पहले से नमकीन, मिठाईयाँ बननी शुरू हो जाती थीं, गुझिया बनती थीं कम से कम दस किलो। होली पर वहाँ गुझिया का विशेष महत्व होता है। सारे दिन गली में ढ़ोल बजाते हुए लड़कों की टोली निकलती और जो दिखता, उसे रंगते हुए जाती। ये लोग उच्च स्वर में होली के गीत गाते और भूल से भी कोई लड़की छत या खिड़की से झाँकती नजर आ जाती तो ये लोग अश्लील हरकतें करने लग जाते, इसलिए हम पर घोर पाबंदी थी कि जब ये लोग गली में से गुजरें तो हम इन्हें न देखें। इतना अबीर, गुलाल और रंग उड़ते थे कि कितने ही दिनों तक ना रास्ते से, ना घरों से रंग उतरता था। चेहरे से उतरने का तो सवाल ही नहीं था। होली पर हमेशा दहीबड़े बनते थे और मैंने ये प्रथा अभी तक भी जारी रखी है। दीवाली की मेरी जो सबसे मीठी याद है, उसमें हैं खील- बताशों के साथ घर में आते खाँड के बने खिलौने। जो मैंने आगरा छोड़ने के बाद फिर कभी नहीं देखे। शक्कर के बने मोर, चिड़िया, हाथी, और ताजमहल। उन खिलौनों को ऐसे खाया जाता जैसे इससे बढ़िया दुनिया में कुछ है ही नहीं और आज वह सच भी लगता है, हजार रूपये किलो वाली मिठाई भी उन मीठे खिलौनों की बराबरी नहीं कर सकती। ऐसे ही होता था करवा- चौथ। शाम को कहानी सुनाने एक बूढ़ी ब्राह्मणी आती थीं, जिन्हें हम ताई कहते थे। घर की सारी बहुएं खूब साज श्रृंगार करके बैठ जाती थीं और ताई कहानी सुनाती थी
‘ सात भाईयों की एक बहन थी’ जो हमें मुँहजबानी याद हो चुकी थी फिर भी हम बड़ा रस ले लेकर सुनते थे। सबसे ज्यादा मज़ा हमें इस बात में आता था कि हमें बार- बार चाँद को देखने भेजा जाता था और जैसे ही चन्द्रमा दिखता हम चिल्लाते-
‘ चाँद निकल आया।’
सावन आते ही वहाँ एक अलग प्रकार की चहल- पहल शुरू हो जाती थी। सावन मतलब लड़कियाँ को पीहर बुलाने का समय । आज का तो पता नहीं पर जब मैं छोटी थी , मेरी बड़ी बहन आशा दीदी को लेने मेरा भाई हमेशा जाता था और जब मेरी नई- नई शादी हुई थी तो मायके से पिता का पत्र आ जाता था कि भाई को लेने कब भेजूँ? घर घर में, बागों में झूले पड़ जाते थे। हरियाली तीज, रक्षा-बन्धन पर हमारे घर चूड़ी वाला कंधे पर पोटली रखकर आता और आँगन में रंगबिरंगी, मीने वाली चूड़ियाँ बिछाकर बैठ जाता और कितनी सारी कलाईयाँ एक साथ उसकी तरफ बढ़ जाती। चूड़ी वाले का नाम बशीरा था। रात को नाइन आती मेंहदी लेकर और सबके हाथ मेंहदी से भर जाते। अब ऐसा कुछ भी नहीं होता। ना माँ रहीं ना पिता। बशीरा भी नहीं रहा। अब पेड़ों पर झूले भी नहीं पड़ते। मेंहदी लगाने वाली हथेलियाँ और चूड़ी पहनने वाली कलाईयाँ भी नहीं रहीं। सिर्फ यादें शेष हैं।
बच्चे का जन्म भी हमारे यहाँ किसी उत्सव से कम नहीं होता था। सवा महीने तक किसी को उस कमरे में नहीं जाने दिया जाता था जिसमें सद्यप्रसूता रहती थी। ग्यारह दिन तक खूब जच्चा गायी जाती थीं, सबको भर भर कर बताशे बाँटे जाते थे। आज छटी है, आज दष्ठौन है, आज नामकरण है, खूब पूजा पाठ, पार्टी चलती थीं इसी बीच एक और महोत्सव हो जाता था। बच्चे होने की खबर सुनकर हिजड़ों की टोली आ जाती थी, उस समय के किन्नर वास्तविक किन्नर लगते थे। आज की तरह नहीं कि कई बार पता ही नहीं चलता कि किन्नर है या लड़की। उनके आते ही सरगर्मी शुरू हो जाती। पहले तो वह खूब नाचते। फिर ताली बजा- बजा कर अपनी माँगें रखते। उन्हें जितना दिया जाता वह उस से ड़बल माँगते। हमारे घर से वह हमेशा संतुष्ट होकर जाते और खूब आशीर्वाद देकर जाते। पर दूसरों के घर जहाँ उन्हें, उनका मनचाहा नहीं मिलता वहाँ वह हमेशा साड़ी ऊँची करने को तत्पर रहते और हम बच्चों की टोली इसी इन्तज़ार में रहती कि कब वह साड़ी ऊँची करें और हमें वह राज पता चले कि इन्हें हिजड़ा क्यों कहा जाता है पर अफसोस हम ये ना कभी जान पाये ना देख पाये क्योंकि नज़ारा देखने से पहले ही हमें कान पकड़ कर घर ले जाया जाता था।
इसी तरह आगरा में बन्दर का खेल, भालू का खेल दिखाने वाले , चित्र – विचित्र मदारी जो एक के बाद एक मुँह में से लोहे के गोले निकाल कर, कबूतर की मुँडी काटने के बाद उसे जोड़कर हमें आश्चर्य में ड़ाल देते थे; वह भी आज लुप्तप्राय हैं।
कहाँ गये वह दिन, कहाँ गये वह लोग, कहाँ गयी वह त्योहारों की खुशबू! कहाँ गया वह सत्ताईस कमरों का घर! घर के गैरेज में खड़ी शेवरलेट, पौली में रखी बुलैट, ऐतिहासिक छत, छत से दिखता ताजमहल!
एक बेहद सम्पन्न , भरा-पूरा, अनगिनत घरवालों और बाहर वालों से गुलजार, बच्चों के शोर से महकता घर अचानक चुप हो गया।
जब माँ से मिलने आखिरी बार आगरा गयी तब वह अपने कमरे में, अपनी आराम कुर्सी में बैठी थीं। मुझे देखते ही बोली,
‘कौन आशा?’
मैंने कहा, ‘नहीं, निशा’
मेरे ज़हन में यही उनकी अंतिम याद है। उनके जाने के बाद, जब फिर गयी तो घर में एक सन्नाटा सा छाया था। मन्दिर की घंटिया चुप थीं। दुर्गा अन्नत पथ पर जा चुका था पर उसकी कोठरी में माँ की आराम कुर्सी अपनी तीन टाँगों पर किसी कबाड़ से टिकी हुई खड़ी थी।
उसके कुछ साल बाद जब फिर से आगरा जाना हुआ तो मैं भाई की विशाल कोठी के सामने खड़ी थी। मेरे घर का पता बदल चुका था। सत्ताईस कमरों वाला घर अब बिक चुका था, उसके साथ बहुत कुछ।
फिर से जाना है वहाँ, देखने कि अब वहाँ क्या है, कौन रह रहा है, क्या आज भी वहाँ हमारी यादों के अवशेष बचे हैं? क्या आज भी वहाँ की छत से ताजमहल दिखता है? क्या आज भी ……. !
आवारा इच्छाएं हैं कि समय के बाँध को तोड़कर न जाने कितनी गली- मुहल्लों के चक्कर मार आती है। अचानक दर्द आँखों से झरने लगता है।
पारिजात के फूल झरते रहे उस पर, वह सोचती रही, उड़ जाऊँ कहीं, उस खुशबू के साथ ही विस्तृत असीम शून्य में…..!
– निशा चंद्रा