कहानी
यू-टर्न
आन्या ने जैसे ही हवेलीनुमा घर में कदम रखा, वो सहम गयी। ठंडे संगमरमर के फर्श सिर्फ ठंडे ही नहीं थे, उनमें से एक अजीब तरह की घृणात्मक, नकारात्मक शीत लहर उसके पैरों की छोटी उंगली को छूकर पूरे शरीर में बिजली-सी दौड़ा गयी।
“यहाँ आ जाओ और इस कमरे में अपना सामान जमा लो।”
दो टूक आदेशात्मक स्वर उसके कानों में पड़े। फर्श से ऊपर पलकें उठाकर देखा तो पाया कि एक संगमरमर की मूर्ति बोल रही थी। फर्क इतना था कि मूर्ति के अंग प्रत्यंग चलते-फिरते थे व साइंटिफिक भाषा में वो जीवित व्यक्ति थी।
“और ऐश का सामान?” आन्या ने भोलेपन से पूछा। तभी उसने देखा कि ऐश शरारत भरी हँसी हँस रहा था।
“ओह!” याद आई ऐश की हिदायत। “इंडिया में हम अलग-अलग कमरे में ठहरेगें।”
“थैंक्यू” कहकर आन्या आगे की ओर बढ़ी।
आन्या अभी-अभी यूरोप से इण्डिया आयी थी। उसका जन्म स्विट्ज़रलैंड के एक ख़ूबसूरत शहर लूजरन में हुआ था। उसके पिता सत्यजीत सिंह, जिन्हें सब ‘सैट’ कहते थे, आए तो थे सर्विस करने पर उन्हें वह देश इतना भा गया था कि वो कभी इंडिया नहीं गये, घर खरीद कर वहीं बस गये थे। उनके घर में फ्रैंच और जर्मन फर्राटे से बोली जाती थी। हालाँकि हिंदी, पंजाबी और मराठी से भी उनका परिचय था। माँ रेवती, जिन्हें सब ‘रे’ बुलाते थे, मुंबई की रहने वाली थी। परन्तु उसके अपने घर में न तो कहीं मंदिर था, न उनके घर की रसोई में भारतीय पकवान पकाए व परोसे जाते थे। उन्होंने अपने को वहीं की मिट्टी में जड़ लिया था और बिटिया थी कि चुहिया बनी ज़मीन में फैली जड़ों को कुतरने लगी थी। उसे इंडिया की हुड़क बहुत सताती थी।
“आई वांट टू सी इंडिया।”
अश्विन वहीं के स्थानीय कॉलेज में रह कर पढ़ रहा था परन्तु वहाँ उसका अपना घर नहीं था। वो होस्टल में रहता था। आन्या का घर ही अब उसका अपना हो चला था। आगे की पढ़ाई करने पेरिस गये तो पश्चिमी सभ्यता के चलते एक साथ एक ही रूम में रहने लगे थे।
“इस बार मै इंडिया चलूंगी।” आन्या ने ऐश से कहा और वे इंडिया आ पहुंचे थे। अगले दिन रात के दस बजे होंगे, वो अपने कमरे की ओर जा रही थी कि उसने अपने को एक बहुत बड़े हॉल में खड़े पाया। कानों में खुसर-फुसर सुनाई दी।
“अपने साथ जो लौंडिया लाया है, उससे ब्याह करेगा!” कोई शुष्क तथा गंभीर चेतावनी सुनाई पड़ी।
“ऐसे कैसे कर लेगा ब्याह? ये नहीं होने दूँगा। दुर्गा प्रसाद।”
भयंकर-सी भारी आवाज थी। आन्या को लगा जैसे उसने वहाँ चमकती तलवार देखी हो।
“एक्सक्यूज मी” डरते-डरते उसने कहा। वहाँ दुर्गा प्रसाद अंकल जिनसे ऐश पहले मिलवा चुका था। शुष्क आवाज वाली उनकी स्त्री, जिनसे उसे पहला आदेश मिला था। जिन्हें ऐश ने अपनी आंट बताया था और एक और शख्स बैठे थे। कमरे का फर्नीचर भारी भरकम था और छत के बीचों-बीच बहुत बड़ा व शानदार लाईट का शंडेलियर जो एंटीक ग्लास का था, लटक रहा था।
“मेरा नाम आर. के. बंसल है।” तलवार-सी तीखी आवाज वाले ने अपना परिचय दिया। आन्या ने अपना हाथ मिलाने के लिए आगे बढ़ाया फिर नमस्ते याद आ गया। बड़े क़ायदे से दोनों हाथ जोड़कर उसने कहा, “नमस्ते आर. के. बन्—–स—ल।”
“नहीं बेटा, अंकल बोलो नाम नहीं लेते।” दुर्गा प्रसाद ने उसे बीच में रोक कर करेक्ट किया।
“ओ. के.” उसे वहाँ ठहरने का बिल्कुल मन नहीं किया। वो लपकती हुई अपने कमरे की ओर रास्ता पूछकर चली गयी।
वो घर था कि भूल भुलैया? दो सीढ़ी नीचे तो तीन ऊपर, कभी छज्जा आ जाता तो कभी दरवाज़ा। कभी खिडकी तो कभी दीवार। पूरे दो दिन बाद आन्या को उसके प्रवेश द्वार से अपने कमरे तक जाने का रास्ता हाथ आया। जैसी भूल-भुलैया हवेली थी, वैसे ही वहाँ के लोगों का चरित्र।
दुर्गा प्रसाद ऐश के पिता के बड़े भाई थे। हालाँकि लगते उसके दादा थे। थे भी अस्सी एक साल के। उनकी पत्नी ‘ऑट’ अंकल दुर्गा से उम्र में काफी कम लग रही थी। दोनों में कोई संगत नहीं थी। वैसे भी वो थी एकदम काली आबनूस, मांसल देह, लंबे हाथ और पैर मरदाना चाल-ढाल, ममता रहित सपाट बोली। उनका सानिध्य सिहरन पैदा करता था।
आन्या पुरातत्व इतिहास पर रिसर्च कर रही थी। उसे स्पैनिश, ग्रीक व अरेबिक भाषा का भी ज्ञान था। यद्यपि उसके पास आधुनिक मोबाइल, आई-पैड आदि सबकुछ था किन्तु अक्सर नेटवर्क तंग करता था। आन्या तो हर बात के लिए नेट पर लटकी रहती थी। जिस कमरे में उसे ठहराया गया था, उस कमरे के बाथरूम के अंदर एक छोटी कोठरी थी। आन्या को रहस्यमय लगती कोठरी में दिलचस्पी जागी और ध्यानपूर्वक उसका निरीक्षण करने लगी। मिट्टी-रेत हटा कर देखा। कुछ आड़ी-तिरछी रेखाएँ दीवार पर खुदी थीं। वह पढ़ने की कोशिश करने लगी। अरेबिक से मिलती-जुलती भाषा थी। लैपटॉप पर गूगल सर्च किया। जिस इलाके में यह हवेली थी वो नानक डेरासाब का इलाका था। क्या यहाँ कोई इतिहास दबा पड़ा था? आन्या ने अपनी खोज प्रारम्भ कर दी थी। अब तो इस हवेली और इस प्रदेश को जानना ही उसका लक्ष्य बन गया था। ऐश व ऐश से विवाह दोनों को भूल गयी थी वह।
बंसल साहब की जीप व उनका ड्राइवर भजन सिंह, जिसे सब भजना कहते थे, सदा उनके लिए हाज़िर रहते थे। उसकी चार संतानें थीं। एक बूढ़ी माँ थी। जिस सरसों के साग, मक्की की रोटी, ताजा गुड़ के चरचे सारा संसार करता है उसका असली स्वाद आन्या को बंसल साहब के साधारण-सी आय वाले ड्राईवर के परिवार के घर की मंजी पर बैठकर मिला। उनका टूटा-फूटा घर उसे ऐश की हवेली से अच्छा लगने लगा और वो रोज़ तड़के अपने रनिंग शूज़ पहनकर उनके खेतों की ओर दौड़ पड़ती।
भजन सिंह की नब्बे वर्षीया दादी, जिसे सब ‘दद्दा’ कहते थे, उनके साथ आन्या का विशेष लगाव हो गया था। उनका जर्जर शरीर, झुकी कमर, गड्ढे में आँखे, दो चार टेढ़े-मेढे मुहँ में दाँत परन्तु याद्दाश्त एकदम बढ़िया।
उसने सोचा, ‘हो न हो दद्दा को सब पता होगा हवेली के बारे में, हवेली में रहने वालों के बारे में।’
“दद्दा आप को हवेली के बारे में कुछ पता है?”
आन्या ने मौक़ा पाकर ज़िक्र छेड़ा। दद्दा ने तुरंत करवट बदल ली और सोने का नाटक करने लगीं। आन्या दूसरी तरफ आ गयी, फिर पूछा “रोसी—–राजी या रोस जैसे कोई नाम पढ़ा है मैंने वहाँ उस हवेली की कोठरी में। आप ऐसे किसी व्यक्ति को जानती हैं?”
“रोजा —– रोज़ी —” आन्या बार-बार पूछती। वो कहाँ मानने वाली थी। “रोसा–रोज” दोहरान तिरहाने लगी। दादी की शून्य आँखों ने हथियार डाल दिये।
“किन्नें दसियाँ तैनू?” (तुन्हें किसने बताया?)
“हवेली में एक कोठरी है। बहुत छोटी-सी, लगता है जैसे किसी नजरबन्द कैदी की हो, उधर कुछ लिखा है। बहुत-से अक्षर मिट गये हैं, वहीं पर मैंने खोज करके पाया है।”
हवेली का नाम और कोठरी का ज़िक्र सुनकर दादी मरणासन्न हो गयी। जीभ तलुवे पे चिपक गयी, जुबान लड़खड़ा गयी, ज़ोर-ज़ोर से साँस लेने लगी। लगा कि प्राण अब निकले, तब निकले! आन्या भागकर पानी ले आयी, तब जाकर कहीं उनकी साँस ठीक हुई। आँखें मूँद कर दादी लेट गयी। आन्या उनका हाथ सहलाती रही फिर उठकर जाने लगी तो दादी ने उसका हाथ पकड़कर पास बिठा लिया। दोपहर का गहरा सन्नाटा था।
“नेड़े पाकिस्तान वे, आहो, जेडी हेली है, एन्ना लोकां नी कोई ना”
दादी की बातों का अर्थ समझने में आन्या को भजन सिंह की बेटी मंजीत का सहारा लेना पड़ा वैसे भी वो थोड़ी-सी बात करती और करवट बदलकर आहें भरती, “अहो कि दसया तैनू?” और कभी उत्साहित-सी अपना बचपन याद करती और उनके पोपले मुँह पर बच्चों-सी सरल मुस्कुराहट फ़ैल जाती। कई दिनों की बातों को एकत्रित करके उसने इतना पता लगाया कि ‘हवेली किसी नवाब के नामी कारीगर की थी, जो भूल-भुलैय्या बनाने में बहुत कुशल था। शायद किसी अब्दुस सलीम की। उसके गलियारों में दादी खूब खेली थी, जब वो छोटी बच्ची थी। वे अपनी सहेलियों के नाम याद करके एक-एक के बारे में बताना शुरू कर देती। अब्दुस की बेटियाँ, भतीजियाँ, बेटे और भाई आदि मिलाकर पूरे पैंतीस-चालीस लोग रहते थे वहाँ। नूरा, कर्मी, इशरत, बन्नो, जुलेखा, शाहजादा आदि। वे सबके नाम बड़बड़ाती रहतीं। अपने हाथ की कलाई पर बने टैटू दिखाकर बोली, “सारी सहेलियों ने एक-दूसरे के नाम गोदवा लिए थे अपने-अपने हाथों पर। ये देख।” आन्या ने उनकी कलाई पर खुदे टैटू का फोटो खींच लिया फिर उसे कम्पयूटर पर ट्रांसलेट किया और पढ़ा; कर्मी बी, इशरत बी, कमलेश। दादी का नाम कमलेश था और जिस नाम की उसे तलाश थी, वो दादी की कलाई पर गुदा हुआ था- फिरोज़ा बी।
‘पार्टीशन का समय किसी जलजले से कम न था। चारों तरफ तबाही, खून-खराबा, अफरा-तफरी मची थी। मुसलमान अपना घर द्वार छोड़कर भाग रहे थे। अब्दुस साहब बड़े आदमी थे। उन्हें लगा था कि किसमें दम है, जो उनकी तरफ नज़र उठाकर देख सके। वैसे भी कोई उनके घर में बिना सिर कटाये वापस जा ही नहीं सकता था। यदि कोई घुस गया तो लौटेगा कैसे? पर फिर घर का भेदी रामदीन, जो हिंदू नौकर था उसे हवेली का चप्पा-चप्पा ज्ञात था। उसने अब्दुस सलीम से साफ़ शब्दों में अपनी नीयत बताते हुए कह दिया, ‘या तो चुपचाप निकल जाओ, नहीं तो जैसे बाक़ी सबके सिर काटे हैं वैसे ही तुम्हें भी नही छोडेंगें!’ चार-पाँच आदमी सिर पर मुंडासा बांधे हाथों में गंडासा लिए उनकी हवेली में घुस गये। अब्दुस सलीम को समझने में देर न लगी। जल्दी-जल्दी बहू-बेटियों को लेकर भाग खड़े हुए। रामदीन ने अपना नाम रामचद्र प्रसाद रख लिया। दुर्गा प्रसाद का बाप ही तो था वो। उसके तीन भाईयों ने मुसलमानों की दुकानें घेर लीं और नौकर से मालिक बन बैठे। अब्दुस सलीम जितना हो सका बटोर कर निकल गया पर जब तक उसे पता चलता तब तक बहुत देर हो गयी थी। वह बॉर्डर पार कर चुका था।
“क्या पता चलता?”
दादी गहरी साँस लेकर खून का घूंट पीते हुए बोली, “वो बहुत छोटी थी सिर्फ तीन चार बरस की डर के मारे तखत के नीचे छिप गयी। दो दिन बाद उसे रोते हुए पाया।”
“किसे?”
“फिरोज़ा को! वहीं छूट गयी थी वो। पहले तो रामदीन चला उसका गला काटने फिर कुछ सोचकर छोड़ दिया। दुर्गा उस समय छोटा था। खेलने के लिए उसे फ़िरोजा गुडिया दे दी। पहले-पहल दोनों आँख-मिचोली खेलते रहे, पकड़म-पकड़ाई करते रहे फिर लड़का-लड़की वाले, चिर-परिचित खेल खेलते-खेलते खिलखिला उठे। किन्तु वो तो थी मात्र गुड़िया, चाबी वाली गुड़िया! सोने जागने वाली गुड़िया! निर्जीव होती, कपड़े की होती, प्लास्टिक की होती तो जवान न होती। अंग-प्रत्यंग न होते, उदर न होता, भूख न लगती और न होता गर्भाशय! न ही दुर्गा के बच्चे को जन्म देने वाली अछूत रखैल बनती। लकड़ी की होती तो दुर्गा के ब्याह पर ज़ार-ज़ार न रोती। उसे उम्र कैद दे दी गई थी। कोठरी में बंद कर दिया जाता था।
दुर्गा की शादी एक कमसिन रईसज़ादी से कर दी गयी थी, जो अक्सर बीमार रहती थी। वह केवल पाँच वर्षों में मर गयी। न जाने क्या रोग था? कहते हैं दिल में कौड़ी भर का छेद था। लगभग अगले दस साल दुर्गा दूसरी शादी को तैय्यार नहीं हुआ फिर रामदीन ने हज़ारों सौगंध दिलाई। वह मरने हाल हो रहा था। अब तक घर में कोई वंश आगे बढाने वाला नहीं था। दूसरी शादी करवाई। दूसरी बीवी ‘भवानी देवी’ पूरी डायन निकली। आते ही फिरोज़ा का जीना दूभर कर दिया। मर्दों की गैरहाजरी में उसे नंगा नाच कराती। उसके कोख जने को आग पर चलाती। अपने साथ अपनी औलाद की तड़प सहते-सहते फिरोज़ा गुड़िया काली पड़ गयी। डायन की कोख कभी हरी नहीं हुई। दुर्गा वैसे भी उसके पास कभी नहीं फटकता था। डायन का नाम न तो कोई लेता था न कोई शायद जानता था। उसे सब दुर्गा की बहू या छोटी बहू ही कहते थे। रामदीन उर्फ रामचंद्र प्रसाद का निधन हो गया था।
अब उस हवेली में बस तीन जने ही रह बचे थे। ‘चाँद’, हाँ, यही नाम दिया था फिरोज़ा ने अपने जिगर के टुकटे का। उसे ‘चाँद’ कहती थी। फिर! फिर, इन लोगों ने फिरोज़ा से उसका ‘चाँद’ छीन लिया। फिरोजा का पता नहीं क्या हुआ? मर-खप गयी या कि मार कर गाड़ दी गयी?”
आन्या कांप उठी! बोली; “आपको कैसे पता कि फिरोज़ा का बच्चा हुआ था?”
“दाई कोलों पेट नईं छुपदा———–?”
“मायने ———– ?”
दादी दोनों हाथ फैला कर बोली, “इन्ही हाथों ने जच्चकी की थी। जना था उसे। फिर मुहँ सिल लिया। पट्टी बांध ली होठों पे। ‘हवेली के बाहर बात गयी तो देख लियो! तेरा गला काट डालूँगा!’ मरे रामदीन ने कसम दी थी।”
गहरी साँस भर कर दादी करवट फेर कर सो गयी।
“ओह माई गॉड! कोठरी के फर्श पर उसने जो चिह्न देखे थे, तो क्या? क्या? वो फिरोज़ा की कब्र के थे?” चाँद सलीम’ शब्द भी उसने पढ़ लिया था। ये ही नहीं अन्य बहुत-सी तारीखें दीवार की रेत मिट्टी के भीतर से निकाल ली थीं। ऐश अपने पिता का नाम ‘चन्द्र प्रसाद’ बताता था।
“चाँ——नद — च—न्द्र” आन्या बुदबुदाई। “मई—— महीना, तारीख?”
और उनकी जन्मतिथि? उसे वो कैसे भूल सकती थी? नौ मई तो उसका अपना जन्मदिन था और वो ही ऐश के फादर का भी। वो दोनों उनके नाम का भी केक काटा करते थे। हर साल वो अपने पिता को याद करता था। उनके बारे में उसे बहुत कम याद था क्योंकि कार एक्सीडैंट में उसके दोनों पैरंट्स मारे गये थे और ऐश हवेली में कभी रहा भी नहीं था। वो दिल्ली रहा अपने नाना के घर। फिर आगे की पढ़ाई वो यूरोप में रह कर रहा था।
तब ऐश के पिता, दुर्गा अंकल तथा भवानी आंट का क्या रिश्ता था? क्या उसके पिता दुर्गा अंकल और फिरोज़ा की वो ही संतान थे, जिसे दादी ने पैदा करवाया था? और उन्हें फ़िरोज़ा से छीनकर उसका काम तमाम कर दिया था? ये ही भवानी देवी डायन थी? आन्या इस ‘जिग–सा पज़ल’ को जोड़ने का प्रयत्न करने लगी। उसने सोचा ऐश से भी बात करेगी। उसे अपने पिता के बारे में सब सच जानने का आधिकार है।
अभी बात करने का अवसर ढूँढ ही रही थी कि अगले दिन सब लोग दिल्ली चल पड़े मिस्टर बंसल का बेटा वहाँ रहता था। बड़ा भारी बँगला था। कई कारें और चारों तरफ खूब ठाठ-बाट। मिस्टर बंसल की गहनों से लदी पत्नी उषा उनका बेटा संजय और बहू सीमा तथा परियों से भी सुन्दर कमनीय बेटी ‘रेनू’। वहाँ ऐश की खातिर इस प्रकार हो रही थी मानो वो कही का राजकुमार हो। आन्या भारतीय मनोवृति से वाकिफ नहीं थी वरना बिल्कुल स्पष्ट था कि वहाँ क्या खिचड़ी पक रही थी!
आन्या भजना के साथ दिल्ली घूमने निकल गयी। रास्ते में भजन सिंह ने आन्या को बताया कि बंसल की पोती रेनू से अश्विन का रिश्ता तय कर दिया गया है।
“क्या? और ऐश मान गया!?!” पीड़ित स्वर में आन्या ने पूछा।
“बंसल साहब ने अश्विन भैय्या की पूरी पढ़ाई करवायी है वरना हवेली वालों के पास क्या इतना पैसा धरा था? उनके पास ले दे के बस ये हवेली बची है, वो भी टूट रही है। सुना है काफी कर्जा चढ़ा है।” भजन ने स्पष्ट किया।
स्विट्जरलैंड की निश्छल सफ़ेद बर्फ पर स्कीइंग करते हुए जो ऐश उसे मिला था, जिस पर उसने असीम विश्वास किया था। वो ऐश कुछेक दिनों में इतना बदल जायेगा———-! उसका मन किया कि अभी इसी समय एयरपोर्ट चली जाए और पहली फ्लाईट पकड़कर लौट जाए किन्तु उसका पासपोर्ट आदि सब हवेली वाले कमरे में कैद पड़ा था।
अगले दिन बहुत सवेरे सब लोग वापिस चल पड़े। आन्या को छोड़कर सब ख़ुश थे। वो अनमनी-सी ऐश को देख रही थी पर वो उससे नज़रें चुरा रहा था। आन्या ने तय किया कि वो ऐश से बात करेगी।
‘हीओन्स मी एन एक्सप्लेनेशन’ (उसको मुझे सफाई देनी होगी।)
दुःख व क्रोध से भरी आन्या ऐश के कमरे की ओर चल पड़ी। तभी उसे बरामदे में बातचीत की आवाज़ सुनाई दी। बाहर अँधेरा था।
“लड़के को समझा ले वरना मैं अपनी तरह समझा लूँगी।” भवानी की खून सुखा देने वाली सख्त आवाज़ ने उसके कदम रोक लिये।
दुर्गा प्रसाद चुपचाप गूंगे बने बैठे थे। थोड़ी देर में मुहँ खोला; “आन्या का क्या करें? आशू न माना तो?”
“मानेगा कैसे नहीं!” पक्के इरादे की गर्जन। वो कह नही रही थी, निर्णय सुना रही थी। “इसे वहीं पड़े रहने देंगे यूरोप में, क्या फर्क पड़ेगा?”
आन्या ने सुना, साफ़-साफ़ सुना, साफ-साफ़ समझा। पिछले चौबीस घंटे के घटना-चक्र उसे अशक्त करने के लिए काफी थे। उलटे पैर कमरे में लौटकर उसने अपना सामान सम्भाला। बैग पैक किया। उसके आत्मसम्मान को ठेस लगी थी, आहत मन धीरे-धीरे क्रुद्धता की ओर बढ़ने लगा। आड़ी तिरछी विद्धुत की महीन रेखाएँ उसके मस्तिष्क में करेंट मारने लगीं। ‘चली जायेगी, अब वो यहाँ एक पल नहीं ठहरेगी’। सब सो चुके थे, जीप की चाबी उठाई और झटपट बाहर आई और जीप स्टार्ट करके चल पड़ी, “काश! फिरोज़ा भी भाग पाती। तो क्या, क्या वो भी— फिरो-–ज़ा— बनने जा रही थी?” जीप चलाते हुए आन्या के दिमाग़ में हज़ारों सवाल बिच्छू की तरह ज़हरीले दंशों से उसे डस रहे थे। आन्या को आज इसी समय अपने मॉम-डैड बहुत याद आ रहे थे। डैड का पीड़ा से भरा चेहरा जब उन्होंने अपने अतीत के जख्मों को आन्या के साथ शेयर किया था। ताया जी अपनी बेटी को खेत का हिस्सा देना चाहते थे। उनके ही भाइयों ने उन्हें मार काट कर खेतों की मुंडेर में गाड़ दिया था। दस वर्षीय नन्हा सत्यजीत, माँ के कहने पर पिता को बुलाने खेत पर आया था। भयावह मंजर याद कर उनकी आँखों से लाल बरसाती आँसू बहर-बहर पड़े थे। उनके जख्म छूते ही हरे होते देख आन्या ने उनकी गहरी वेदना को अधिक नहीं कुरेदा था। मॉम का अपनों से बिछड़ने का दर्द, अपनी मिटटी से विलग होने की कसक। उन दोनों का मौन बनवास। सब याद आ रहा था।
अचानक उसकी तंद्रा टूटी और देखा कि दो मोटर साइकिलिस्ट उसका पीछा कर रहे हैं। उसे खतरे का आभास हुआ, उसने जीप की रफ़्तार और तेज कर दी। तभी उनमें से एक ने सामने आकर आन्या को गाड़ी रोकने पर मजबूर किया। आन्या को अपनी गाड़ी रोकनी पड़ी। सुनसान सड़क पर वो अकेली! डर गयी। दोनों साइकिलिस्ट उसके पास आये, “माल अच्छा है।” बोले, “मस्ती करनी है, चलोगी हमारे साथ?”
“जस्ट लीव मी अलोन, मेरा रास्ता छोड़ो।” उसने कहा।
“छोड़ देंगे सुबह तक हमारे साथ रहो।” उदंडतापूर्वक बोले। बेपरवाह आवारा लड़के और आन्या अकेली!
तभी एक और मोटर साइक्लिस्ट वहाँ आ पहुंचा। हैल्मेट हटाकर एक लम्बा चौड़ा युवक उन तीनों की ओर आया, “क्या हो रहा है?” बड़ी रौबीली आवाज़ में उसने पूछा।
उन दोनों उदण्ड लडकों को और मज़ा आ गया। मस्ती में बोले, “अबे! तू कौन है? तुझे भी माल चाहिए?” वे दोनों बेहूदी हँसी हँस रहे थे कि इतने में उस तीसरे युवक ने बारी-बारी दोनों की पिटाई कर डाली। वे पिटाई खा कर भाग खड़े हुए। उसके बाद उसने आन्या के नज़दीक आकर आन्या को डांट लगाई,
“आप, मैडम इतनी रात को अकेली कहाँ जा रही हैं?”
“कही भी जाऊँ मेरी मर्जी! मैं क्यों अकेले नहीं जा सकती? मैं अकेले कितने किलोमीटर पहाड़ों पर जाती हूँ, ट्रैकिंग करती हूँ, साइकिल चलाती हूँ, ये कैसा बेहूदा सवाल है। मेरे देश में मेरे एडॉप्टड (दत्तक देश) में अकेले आने-जाने पर कोई सवाल नहीं उठता।” आवेश भरे स्वर में आन्या ने उसे जवाब दिया।
“तो वहाँ ही रहिये न! यहाँ क्यों आते हैं आप जैसे लोग हम जैसे पुलिसवालों की मुसीबत बनने! चलिए छोड़ आता हूँ आपको आपकी आज़ादी के साथ।” मोटर साइकिल को किनारे लगाकर वह जीप में बैठ गया।
“कहाँ से आई हैं? घर से लड़कर या बॉयफ्रैंड से झगड़ कर और कहाँ जा रहीं हैं?”
“यूरोप से आई थी और अब वहीं जा रही हूँ। मैं स्विस नागरिक हूँ तथा मेरे माता-पिता भारतीय हैं। पिछले तीस सालों से वहाँ रहते हैं।” आन्या ने भाव विहीन सपाट उत्तर दिया।
“अच्छा तो आप दूसरी पीढ़ी की वो भारतीय हैं, जो यहाँ के चटपटे खानों का स्वाद लेने, ऐथनिक कपड़ों की नुमाइश देखने, रेतीले रेगिस्तान पर चाँदनी रातों में ऊंट की सैर करने आते हैं। किन्तु मैडम इंडिया कोई कार्निवल या बड़ा भारी मेला नहीं है। ये कठोर सत्य की असली भूमि है। विदेशियों का मनोरंजन करने का अखाड़ा नहीं।” कड़वाहट से भरा युवक आन्या पर व्यंग्य कसते हुए बोल रहा था।
“जान गयी हूँ तभी तो भाग जाना चाहती हूँ।” उदास स्वर में उसने कहा।
“हाँ, हाँ, भाग जाइए। आप व आपकी पहली पीढ़ी के लोग हमेशा भागते ही तो रहे हैं। पलायन करते रहे हैं। यहाँ गरम चट्टानों पर तपना पड़ता है। जाइए, आप तो अपने मुलायम गुदगुदे गद्दों पर आराम फरमाइए।” किन्तु आन्या का प्रश्न उसे विचलित कर रहा था।
“क्यों इस महान देश में लड़कियाँ सुरक्षित नहीं! अकेली कहीं आ जा नहीं सकती? क्यों वे स्वतंत्रता पूर्वक अपना मनचाहा नहीं कर सकती?”
“किन्तु किन्तु यहाँ रहने से भी क्या होगा?” अब निराश स्वर युवक का था।
आँखें गड़ाए तीखी नज़र से तेज रफ़्तार में दौड़ी जा रही थी। क्या वो कोई खेलने की रैग-डौल थी या फिरोज़ा गुड़िया, जिसे यूरोप में दफ़न किया जा सकता था? क्या ये सत्य है कि इतिहास अपने को दोहराता है किन्तु आज इतिहास की पुनरावृत्ति नहीं होगी। वो होने ही नहीं देगी। फिरोजा की हड्डियों को न्याय मिलना चाहिए। आन्या ज़िद्दी थी। दृढ निश्चया भी। आन्या ने स्टीयरिंग व्हील पूरा 180 डिग्री घुमाकर एक ख़तरनाक यू–टर्न मारा।
“अरे—अरेरे रे रे –रे —रे—रे, क्या कर रही हैं आप? एक्सीडैंट हो जाएगा। लाइए दीजिए, गाड़ी मैं चलाता हूँ।” युवक संभलता सकपकाता हुआ बोला।
दिल्ली की सीमा सामने थी। रात की स्याही खत्म हो चली थी। पौ फटने लगी थी। जीप को वापिस उसी सड़क पर दौड़ाते हुए आन्या ने उसे एक आत्मविश्वास भरी नज़र से देखा। क्रोध व अपमान के बादल चेहरे से छंट गये थे। उदासी व कमज़ोरी के क्षण, जो उसे अवसाद के गहरे पानी में डूबो रहे थे उसे एक कुशल तैराक की भांति तैर कर ताजे पानी से सिर बाहर निकाल; वो अनायास ही मुस्कुरा उठी।
“मेरा इरादा बदल गया है।” धवल दीप्तिमय दन्तावली सुबह सवेरे चाँदनी बिखेर रही थी। उसके चेहरे पर कोमल कान्ति विराजमान थी।
आन्या ने उसी स्थान पर जीप रोक दी, जहाँ युवक की मोटर साइकिल खड़ी थी। वो जीप से नीचे उतर गया। प्रश्न चिन्हित चेहरे की गोलाकार रेखाओं का सरल सहज उत्तर संतुलित शब्दों में देते हुए वो बोली, “तुमने ठीक कहा था हम कटु सत्य का सामना नहीं करते बल्कि पलायन करते आये हैं। किन्तु आज ये दूसरी पीढ़ी की भारतीय लड़की भागेगी नहीं। कोई अकारण ही मेरे अस्तित्व को ललकारे, मेरे स्वाभिमान को पराजित करने का प्रयत्न करे ऐसा संभव नहीं है।”
अंग्रेजी गाने की लाइनें I will rise—— like the break of dawn—- (सुबह की नई किरण-सी फूट कर उदित हो रही हूँ) गुनगुनाते हुए उसकी जीप सीधी सरपट सपाट सड़क पर गीत की सरगम से ताल मिलाकर दौड़ पड़ी।
– मधु