संस्मरण
यादों के आइने में ‘अजमल सुल्तानपुरी’
– डॉ. अरुण कुमार निषाद
अजमल सुल्तानपुरी से मेरी पहली मुलाकात सन् 2003-2004 ई. के आस-पास हुई जब मैं कमला नेहरू भौतिक एवं सामाजिक विज्ञान संस्थान सुल्तानपुर से स्नातक (बी.ए.) की पढ़ाई कर रहा था। अवसर था कालेज में काव्यगोष्ठी का। उसके बाद से अब तक मेरी उनकी मंच से लेकर घर तक दर्जनों मुलाकाते हो चुकी हैं । मैंने उनसे, उनके पुत्र (शायर अशरफ बेग एडवोकेट उर्फ अनवर सुल्तानपुरी), उनके पोते (शायर मोहम्मद तारिक अजमली) उनके चाहने वालों से, उनके
शागिर्दों से उनके बारे में जो कुछ जाना वह पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।
सर्वप्रथम तो उनके चाहने वालों को यह बता देना चाहता हूँ कि अजमल किसी पाठशाला में नहीं पढ़े थे इसलिए उनकी जन्मतिथि के विषय में किसी के पास कोई सही जानकारी उपलब्ध नहीं है। उन्होंने बातचीत में मुझे बताया कि- मेरी माँ के बताने के अनुसार मेरा जन्म सन् 1926 ई. के आस-पास हुआ है | वे कहते हैं कि – मेरा जन्म स्थान सुल्तानपुर जिले के कोड़वार (कुड़वार) रियासत के हरखपुर गाँव में हुआ। यह शहर से पश्चिम 12 किमी पर है। मेरे पिता जी का नाम मिर्जा
आबिद हुसैन बेग था। हम दो भाई (अब्दुल कुद्दूस) और दो बहन थे। सबसे बड़ा मैं था। मैं चार पाँच साल का था तो पिता जी का इंतकाल हो गया। तो पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण मैं बचपन ही न जान पाया।
पुस्तकों के विषय में पूछने पर उन्होंने बताया ‘सफ़र ही तो है’ उनकी पहली प्रकाशित पुस्तक थी। इस काव्यसंग्रह का शेर उन्होंने कुछ इस तरह सुनाया –
रो दिया दुनिया में जो पैदा हुआ
कौन आया है यहाँ हँसता हुआ
इसके अलावा उनकी अन्य रचनाएं हैं- झुरमुट, खुर्शीदे अरब, जलव-ए-हरम, मेहमाने अर्श, दायरे हरम, रुहे कायनात, रुहे तबस्सुम, परचमे नूर, पवन संदेश, नूरे मुजस्सिम, बहारे तैबा, राहे नजात, नगमाते अजमल, जज्बाते अजमल, जन्नत का नगमा आदि। बातों-बातों में उन्होंने यह भी बताया कि सैकड़ों लोग उनकी पाण्डुलिपियाँ छपाने के लिए माँग कर ले गये और उनके नाम से छपवाने के बजाय अपने नाम से छपवा के खूब पैसे कमाए और मंचों पर वाहवाही बटोरी। इस बात पर उनका दर्द कुछ यों छलका-
मेरे गीत चुराने वाले जा तू भी शायर कहलाए
जैसे मैं बेचैन हूं तू भी राम करे बेकल हो जाए
यह अलग बात है कि वे आजीवन आर्थिक तंगी से जूझते रहे (परिवार का पेट पालने के लिए बींड़ी तक बनाए, वैद्यखाना तक चलाए) पर उन्होंने किसी के आगे कभी हाथ नहीं फैलाया। चाहे वह कोई संस्था हो या कोई व्यक्ति विशेष। अजमल सुल्तानपुरी सुप्रसिद्ध गीतकार मजरुह सुल्तानपुरी के अच्छे मित्र थे। मेरे पूछने पर कि-क्या आपने कभी फिल्मों के लिए गीत नहीं लिखे तो वे बोले-‘ एक बार मजरुह के कहने पर मुम्बई गया था। उस समय के सेंसर बोर्ड के अध्यक्ष ने मुझसे कहा कि- आपको मुंह माँगा पैसा दिया जाएगा पर गीत मेरे हिसाब से लिखने होंगे। अजमल ने कहा क्या करना है? उन्होंने कहा कि- आपके सामने एक लड़की नाचेगी आपको उसके हाव-भाव को देखकर गीत लिखना है। अजमल ने कहा कि-आपका पैसा आपको मुबारक हो। किसी बहन, बेटी, बहू के नाचने पर
मैं गीत नहीं लिख सकता, चाहे वह मेरी अपनी सगी हो अथवा किसी और की। मेरे लिए सारी बहू, बेटियाँ बराबर हैं। उन्होंने यह भी बताया कि- मुशायरे के प्रोग्राम की पहले से तारीख तय होने के कारण कई बार वे आकाशवाणी और दूरदर्शन तक के कार्यक्रम को ठुकरा दिये थे।
यह पूछने पर कि क्या आपकी कोई प्रेमिका थी। तो उनका जवाब कुछ इस तरह था-
मेरी ग़ज़ल नहीं औरत से बात करना सिर्फ़,
मुझे मोआफ़ करैं लग़्व फ़न परस्त अरबाब
चूँकि अशरफ बेग भाई मेरे मौसेरे भाई देवतादीन निषाद एडवोकेट के मित्रों में हैं तो अक्सर न्यायालय में भी उनके साथ उठना-बैठना हो जाता है। उन्होंने बताया कि अब्बा ने (अजमल सुल्तानपुरी) ने साफ तौर पर यह कहा है कि- कभी भी मेरी कोई रचना किसी संस्था को पुरस्कार के लिए मत भेजना। खुदा का दिया खाए हैं, खुदा का दिया खाएंगे।
एक घटना का जिक्र करते हुए अशरफ बेग बताते हैं कि अपने समय के मशहूर शायर गोहर गोरखपुरी तक को अजमल ने मंच छोड़ने पर मजबूर कर दिया था। वाकया कुछ इस तरह था कि- शाहगंज (उत्तर प्रदेश का एक जिला) में एक मुशायरे का प्रोग्राम था गोहर गोरखपुरी ने मंच से चैलेंज कर दिया कि उनके शेर पर कोई एक मिसरा लगा दे तो वह उसे अपना उस्ताद मान लेंगे । यह बात अजमल साहब को अखर गई उन्होंने अपने शागिर्द जाहिल सुल्तानपुरी से कहा कि संचालक उमर कुरैशी से वे इल्तजा करें कि गोहर साहब के बाद उन्हें मंच पर बुलाया जाए। अजमल साहब ने माइक संभाला और कहा कि मेरा मतला उनकी पूरी ग़ज़ल पर भारी ना पड़े तो वह गोहर साहब को अपना उस्ताद मान लेंगे। मगर इसका फैसला जनता करेगी । उन्होंने मंच से पढ़ा –
‘ है अक्स-ए-जुल्फो रुखे लाजवाब पानी में,
नहा रही है शबे माहताब पानी में…..’
यह सुनते ही वाहवाही से पूरा पंडाल गूँज उठा हालात ये हो गए कि जनता की माँग पर इन्हीं पंक्तियों को उन्हें 15 बार दोहराना पड़ा। इस शोर के बीच गोहर साहब मंच छोड़कर चले गए।
जब मैंने अजमल साहब से पूछा कि शायरी के क्षेत्र में आप किसे अपना उस्ताद मानते हैं तो वे बोले- खुदा को। वही सारे उस्तादों का उस्ताद है। आदमी के रुप में कभी कोई मेरा उस्ताद नहीं हुआ।
मेरी इस्लाहे ग़ज़ल कौन करे ऐ अजमल,
क्योंकि मुझसा कोई शायर कहीं पागल ही नहीं
या एक शेर और याद आ रहा है कि-
मैं अपनी सिम्त ख़ुद अजमल सफ़र में हूँ मसरूफ़
मैं ख़ुद ही मंज़िलों राही व राहो-रहबर हूँ
वे बताते हैं कि – अपने समय के मशहूर शायर शैख़ तुफै़ल अहमद के साथ मेरा उठना- बैठना था। पर वे मेरे उस्ताद थे आप ऐसा नहीं कह सकते। मैं अक्सर रविवार की छुट्टियों में उनके पास जाता था। वे कहा करते थे ऐसे ही आया करो जब समय हो। वे बड़े ही मन से मेरी कविताएं सुनते थे और अपनी सुनाते थे। चुटकियाँ लेने में भी वे पीछे नहीं हटते थे।
एक बार मैंने अपना लिखा एक गीत ‘वो पागल लडकी है/जो मुझ पर मरती है/बिन बोले आँखों से /वह सब कुछ कहती है।’ सुनाया तो वे बोले कि उससे बोलो थोड़ा कम पगलाए और बच्चों की तरह ठहाका लगाकर हँसने लगे। उन से मिलकर कभी यह महसूस नहीं हुआ कि मैं दुनिया के इतने प्रसिद्ध और वरिष्ठ शायर के साथ बातचीत कर रहा हूँ। वह उम्र की सारी दूरियाँ मिटा देते थे। मैं उन्हें प्यार से बाबा कहता थाऔर वह मेरे लिए बाबा जैसे थे भी। जैसे एक दादा अपने पोते की बात सुनता है, उसी तरह वे मेरी बात सुनते थे।
आज वे हमारे बीच नहीं हैं पर उनकी यादें हमारे चारों ओर तरंगित होती महसूस हो रही हैं। अजमल अदबी पाठशाला थे, वे सबको यह सिखाते रहे कि जीवन की हलचल में डूबो, जिन्दगी का वास्तविक मर्म मिलेगा और शब्द की गहराई में उतरो तो जिन्दगी के मर्म को व्यक्त करने के जिन्दा और तरोताजा अल्फाज मिलेंगे। वे प्राय: कहा करते थे कि भाषा का दोगला इंसान जिन्दगी में कभी सच्चा नहीं हो सकता। उनके सबक हम कभी भूल नहीं सकेंगे।
मेरी ग़ज़लों को अब करेगा कौन इस्लाह ‘अरुण’
तुम सा न उस्ताद कोई, मुझ सा न ताबिले इल्म कोई
– डॉ. अरुण कुमार निषाद