मेरी निबंध यात्रा: पंकज त्रिवेदी
निबंध हमेशा मेरे अंदर व्याप्त रहता है। निबंध का निर्बंध होना ही मेरी सृजन प्रक्रिया का सरोकार और सतर्कता है। निबंध में लय है, संगीत है, कल्पना है, प्रकृति है, प्राण है और निबंध की सुन्दरता शब्द और चयन की मुखरता से सौन्दर्य का पर्याय बन जाती है। निबंध मेरी रग-रग में है क्योंकि मुझे संगीत प्रिय है, प्रकृति का तादात्म्य है, सांस्कृतिक विरासत की पूंजी है। निबंध का स्वर मेरी आत्मा को गुनगुनाने के लिए प्रेरणा देता है। निबंध में मुझे मेरी साँसों से धड़कते फेफड़ों से उठती मंद सुरीली ताल की आवाज़ सुनाई देती है। निबंध लिखने की इच्छा से ज्यादा मेरी आँखों के माध्यम से मेरी नज़रों के कैमरा से मैं जिस दृश्य को अपने मन के पट पर अंकित करता हूँ वो किसी ज़मीनी कलाकार के पेंटिंग से कम नहीं होता। निबंध में बयाँ होते विचारों से जो चित्र नज़रों के समक्ष महसूस होता है वो आपके विचारों में विभिन्न स्वरूप में चित्रांकन बनकर उभरता है, क्योंकि मेरे निबंधो में सिर्फ मेरी कल्पना को सीमा का बंधन नहीं होता! उसमें होती है अनंत संभावनाएं, जो मेरे निबंधो से अपने भावकों को भी दो कदम आगे ले जाने का दमखम रखती है। निबंध अपनी निर्बंधता के कारण ज्यादा ही लालित्य से प्रकट होता है।
निबंध प्रकृति से उभरा हो या आसपास के माहौल से चहकती चिड़ियों की चहचाहट से, मोहल्ले में आते जाते लोगों की भावनाओं और व्यवहारों से रिसती गंध से हों या किसी की खुशी से आंदोलित होते भावों से, दूसरों के चेहरे पे मुस्कराहट का अंकन बनकर निबंध अपने सही रूप में ढल जाते हों। रगों में दौड़ते खून के रिश्तों जैसा होता है यह निबंध। जो निश्चित दायरे की आभासी सीमा को तोड़कर नहीं, उन सीमाओं को जोड़कर एक उड़ान भरता है और भावकों को अनंत दिशाओं के दर्शन करवाते हुए खुले आकाश में छोड़कर खुद की दिशा में यात्रा करता है मेरा निबंध। निबंध की सूक्ष्मता दिखाई देती है मगर हर किसी को कभी नहीं दिखती। उसे देखने के लिए आँखों की, दिमाग की या पुस्तकों के कीड़े बनकर पढ़े-लिखे अनपढ़ों की आवश्यकता नहीं है। प्यार करने के लिए किताबों के पन्नों पर लिखी थियरी काम नहीं आती, ठीक वैसे ही निबंध की सूक्ष्मता को पाने के लिए अविनाशी ऐश्वर्य का सतरंगी सूर अपने आप हृदय को आंदोलित करता हुआ, मन को पुलकित करता हुआ, शरीर के रोयें-रोयें से बहते पसीने से, हवा के संग जुगलबंदी करता हुआ, नचाने लगें तब विचारों की दिशाओं से परे होकर शील के ब्लेक होल से गुज़रता हुआ नटराज को भी नृत्य के लिए उत्सुकता से उठ खड़ा होने को सहलाता हुआ, अपने प्रवाह में जोड़ता हुआ कोई अगोचर राह से गुज़रता मुफलिस आकृति बनकर उभरता हुआ होता है निबंध।
निबंध की लालिमा दैदीप्यमान बन जाती है तब नववधू की शरमाई-सी आँखों की, पलकें बंध होने से पहले, हौले-से उसे सहलाकर निकल जाती है और भावकों की आँखों की शोभा बढाने के लिए, उत्सुकता से नदी की तरह खेलती-कूदती उन आँखों से बहने लगे तब बनता है निबंध। निबंध ऋचाओं से निकलता हुआ, अपने आस्था ग्रंथो की समृद्धि को आगे बढाता हुआ, सहज-सरल जीवन से इन्सान को जोड़ता हुआ, फूलों के प्रति मुस्कुराता, सुगंध से प्रेरित करता हुआ, बेटी के प्यार को बयाँ करने की असमर्थता को क़ुबूल करता हुआ अनंत काल से चलता रहता है निबंध। यही निबंध है जो जीवन से इन्सान को जोड़ता है और इन्सान को ऐश्वर्य से, चेतना से, वेदना से, संवेदना से और अनंत के शून्यावकाश से। निबंध की फलश्रुति यही है कि उसी शून्यावकाश तक पहुँचाने के बाद मुक्त कर देता है। तब अपने आप की पहचान के सारे रास्ते अपने आप खुल जाते हैं, चित्र स्पष्ट होने लगता है, हमारी आँखें जो देखती थी, उसी आँखों को अब आंतर चक्षुओं के चश्मे से हवा या धुएँ से नीले आसमान का आकर्षण भी नहीं रहता और सफ़ेद रंग के बीच खुद को पाने का, तेजस्वी होने का और दिव्यता का दर्शन कराता है निबंध। हाँ, यही निबंध है जो मुझे अपने साथ यात्रा करवाता है और मैं उसी यात्रा से अविरत अपने भीतर की यात्रा का मुसाफिर बन जाता हूँ, तब पता ही नहीं चलता कि निबंध ने मुझे अपना लिया है या मैं खुद निबंध में घुलमिल गया हूँ।
– पंकज त्रिवेदी