कविताएँ
मासिक धर्म की पीड़ा
मासिक धर्म की पीड़ा को
उपहार स्वरूप
प्रकृति ने दिया नारी को
हरण/ग्रहण/आकर्षण /विकर्षण
है अटूट सत्य
फिर क्यों इस पीड़ा को
कटु शब्दों और नफरत से बयाँ किया जाता है
ये जाने/सोचे बिना कि
इस पीड़ा के बिना,
नारी का नारी होना संभव नहीं…
ये तो
यौवन के आगमन पर
है सुडौलपूर्ण परिवर्तन,
आषाढ़ी रस में भीगी बयार सा
बहती मधुर धारा के प्रवाह सा
पर कुछ नादान..
अपरिपक्व सोच वाले
अनजान है शून्य से बिंदु बनते
आकर से
जिसके बनते ही
सारी पीड़ा श्रद्धा में बदल जाती है
नारी की जिंदगी,
कोई जिंदगी नहीं, इसके बिना
मासिक धर्म एक चक्र है,
घर-गृहस्थी,जीवन,सुख-दुःख के मिलन का
अब वो राज़ नहीं
वो कोई दाग नहीं
जिसे, सबसे छिपाना पड़े
बल्कि …वो एक वरदान है
एक नव-जीवन के आगमन का ||
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प्रेम में स्त्री पहल नहीं करती
प्रेम में स्त्री पहल नहीं करती
वो निवेदन भी नहीं करती…
आँख मटकती है
प्यार की तरफ से,
वीणा के तार छिड़ते है
तारों से स्वर उठते हैं
पर दोनों के मध्य
कोई रसधार नहीं बहती
प्रेम में स्त्री पहल नहीं करती
वो निवेदन भी नहीं करती….
पर जब हृदय मानता है
अपने मूक वार्तालाप से
तब बुद्धि विचारों से वेश्या बन जाती है
और हृदय उसे रति कर देता है
प्रेम में स्त्री पहल नहीं करती,
वो निवेदन भी नहीं करती…
वो भरना चाहती है रिश्तों में संवेदनाएँ,
सत्य और गणित-तर्क की दुनिया के
शब्द ह्रदय मान ले तो ठीक,
नहीं तो
वो रिश्तों की भीख नहीं मांगती
प्रेम में स्त्री पहल नहीं करती,
वो निवेदन भी नहीं करती…
ह्रदय खुद को समर्पित करता है
वो मांगता है महबूबा का कोर-कोर
मिलन की बेला पर बुद्धि मांगती है,
कुछ ओर …
ना चाहते हुए भी, हृदय कर देता है..
बार बार समर्पण
पर इस मांगने में फर्क है गहरा
सत्य रुखा-रुखा सा और कंटीले काँटों सा
ह्रदय कमोवेश की खुमारी के बाद
खोज लेता है नई राहें
और बुद्धि प्रमाण ढूँढती रह जाती है
अपने प्रेम के
तभी तो प्रेम में स्त्री पहल नहीं करती,
वो निवेदन भी नहीं करती…
और अकेली पड़ जाती है,
कट्टरपंथियों की निगरानी में !!
– अंजु चौधरी अनु