मानवीय मूल्यों का होता पतन: आज़र ख़ान
21वीं सदी का युग, हम देख सकते हैं कि मानव ने हर क्षेत्र में प्रगति की है। कृषि, विज्ञान, तकनीक आदि कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जिसमें मनुष्य उन्नति की ओर अग्रसर नहीं है। उन्नति की डगर पर बढ़ते हुए हमने कई उपलब्धियां प्राप्त की हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं है कि हम प्रगति की ओर अग्रसर हैं, लेकिन हमारे पास सबकुछ होते हुए भी हमसे एक चीज़ छूटती जा रही है, वो है मानवीय सम्बन्ध। कामयाबी के इस दौर में हमारे मानवीय सम्बन्ध खंडित होते जा रहे हैं। संसाधनों की खोज में मानव इतना व्यस्त हो चुका है कि उसके पास रिश्तों-नातों को निभाने लिए समय ही नहीं बचा है। विश्वास नाम का एक रिश्ता था दोस्ती, जो अब सिर्फ नाम का रिश्ता ही रह गया है। आजकल दोस्त तो देखने को मिलते हैं लेकिन दोस्ती नहीं, लोग दोस्ती का झूठा स्वांग रचते हैं और अपना स्वार्थ पूरा करते हैं, मौका पड़ने पर लोग एक-दूसरे के प्राणों से भी खेल जाते हैं, हमें आये दिन ऐसी खबरें मिलती रहती हैं कि एक दोस्त ने अपने दोस्त के साथ विश्वासघात करके उसकी करोड़ों की संपत्ति पर कब्ज़ा कर लिया, एक व्यक्ति ने अपने सगे भाई की हत्या कर दी। यह सब क्या है? स्वार्थ नामक शत्रु ने हमारे विश्वास को ख़त्म कर दिया, विश्वास नाम की चिड़िया अब इस विश्व में बहुत कम देखने को मिलती है।
दुनियां की चकाचौंध में हम इस कदर खो गए हैं कि मानवीय सम्बन्ध हमारे हाथ से छूटते गए। हम प्रेमचंद के उन आदर्शों को भूल गए जिनमें मानवीयता की चमक थी, अपनेपन की गुनगुनाहट थी। हम निराला के उस दर्द को भूल गए, जो उन्हें लोगों की स्थिति को देखकर मिलता था, हमने नागार्जुन की उस अभिव्यक्ति को भुला दिया,जिसमें आम जनता की आवाज़ है। हमने केदारनाथ अग्रवाल की उस शक्ति को नहीं पहचाना, जिसमें संघर्ष करने का जोश है।
मानवीय सम्बन्धों की बात करते हैं तो हम देखते हैं आज पति-पत्नी के बीच बस उतने ही सम्बन्ध हैं जितने में उन्हें तृप्ति मिलती रहे, बाकी पति की ज़िन्दगी अलग और पत्नी की ज़िन्दगी अलग दृष्टिगत होती है। आज हर घर में मोहन राकेश के आधे-अधूरे के महेंद्र और सावित्री नज़र आते हैं, जो कभी संतुष्टि प्राप्त नहीं करते, वे सबकुछ एक साथ प्राप्त करना चाहते हैं। पत्नी की नज़र में पति की इज़्ज़त नहीं रह गयी है और पति की नज़र में पत्नी के आदर-सम्मान में निरंतर निम्नता आ रही है। पत्नी ने सभी पुरुषों को एक ही साँचें में ढला हुआ बताकर भारतीय आदर्श के पति परमेश्वर की मान्यता को ख़ारिज किया है, वही पुरुषों ने स्त्रियों को अपने तक सीमित रखकर और चारदीवारी में क़ैद करके उसकी गरिमा को ठेस पहुंचाई है।
पिता-पुत्र में हमें अब वो समबन्ध देखने को नहीं मिलते, जिनकी हम मिसाल दिया करते थे, उपदेशों में उदाहरण के रूप में हम जिनका प्रयोग किया करते थे। पिता-पुत्र की जगह हमें कहीं न कहीं बिंबसार और अजातशत्रु की झलक दिख जाती है। पुत्र किस तरह अपने पिता का भी शत्रु बन जाता है, इस विषय पर बात करते हुए हमारा मस्तिष्क सोचने के लिए बाध्य हो जाता है। स्वार्थ का भूत हमारे ऊपर ऐसा छाया है कि हमने हर प्रकार के रिश्ते को खंडित कर दिया है। हम हर किसी को भूल गए हैं, हमारे माता-पिता, भाई-बहन, दोस्त नाम मात्र के लिए रह गए हैं, ये रिश्ते क्या होते हैं हम इसे भूल चुके हैं।
अखबार में पढ़ी हुई एक घटना को याद करके आज भी मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। हरियाणा में रोहतक के घरणावती गाँव में घर से भागे हुए प्रेमी-प्रेमिका को उनकी शादी करने का लालच देकर घर बुलाना और उन्हें मौत के घाट उतार देना। वैसे तो आदर्शों की बातें करने में हम अपने आप को किसी से कम को नहीं आंकते, लेकिन कब किस वक़्त हमारे अंदर बैठा हुआ शैतान जाग जाता है, इसकी कल्पना कोई नहीं कर सकता। कल तक जो हमारे साथ रहकर बड़ा हुआ, जिसे हमने खुद अपने हांथों से खिलाया, पाला-पोसा, बड़ा किया, एक दिन हम उसी की जान ले लेंगे, ये तो वो सोच ही नहीं सकता कि हमारा अपना अपने ही हाथों से हमारा क़त्ल कर देगा। यही सोचकर घरणावती के वो प्रेमी घर वापस आ गए, जहाँ उनकी प्रतीक्षा में घात लगाए हुए भेड़ियों ने उन्हें दबोच लिया।
इतना ही नहीं कुछ दिन पहले हुए एक खुलासे ने पूरे भारत को हिलाकर रख दिया, एक ऐसा केस जिसका सच तलाश करते करते साढ़े पांच साल लग गए। एक मासूम-सी बच्ची आरूषि का मर्डर, वो भी इतनी बेरहमी से, कोई कल्पना भी नहीं कर सकता था कि उसके ही माता-पिता ने ही इस काम को अंजाम दिया है और पुलिस को साढ़े पांच साल तक गुमराह रखा लेकिन आखिर में सत्य की विजय हुई और आरुषि को इन्साफ मिला।
मुजफ्फरनगर जो कि प्रेम और सौहार्द्र की मिसाल माना जाता था। कभी वहाँ ऐसा माहौल हुआ करता था कि अगर पड़ोसी ने खाना नहीं खाया तो उसका पड़ोसी भी खाना नहीं खाता था, अगर किसी को कोई तकलीफ है तो पड़ोसी को रातभर नींद नहीं आती थी। पल भर में ऐसा हुआ कि हमें संदेह होने लगा कि हम 21वीं सदी में जी रहे हैं! आज की युवा पीढ़ी जो शायद साम्प्रदायिक दंगों का नाम तक भूल गयी थी, इस दौर का ऐसा भयंकर दंगा जिसने हमें आज़ादी के वक़्त के दंगों की याद दिला दी। मुजफ्फरनगर के सांप्रदायिक दंगे ने एक बात तो ज़रूर याद दिला दी कि हमारा पढ़ना-लिखना, उच्च शिक्षित होना सब बेकार है, हम कुपढ़ थे, कुपढ़ ही रहे गए। दंगे होते नहीं कराये जाते हैं, हमें आपस में लड़ाकर तोड़ दिया जाता है, ये हम सब जानते हैं और ये सब बातें हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में शामिल हैं फिर भी हम बनी बनायीं साजिश का शिकार हो जाते हैं, इससे हमारे कुशिक्षित होने का संकेत मिलता है।
‘इंसान’ ये नाम किसी दैवीय शक्ति का दिया हुआ नहीं है बल्कि ये नाम इस संसार में ही मिला और इंसान के आचरण के आधार पर नाम दिया गया- ‘इंसानियत’। इस प्रकार हम ‘इंसान’ शब्द की परिभाषा दे सकते हैं- “जिसके अंदर इंसानियत हैं वही ‘इंसान’ है।” ‘इंसानियत’ और ‘मानवता’ एक-दूसरे के पर्यायवाची शब्द हैं परन्तु जब यही इंसान हैवानों वाले काम काम करने लगे, इंसानियत की जगह हैवानियत ले ले तो क्या उसे इंसान कहना उचित है? हम अपने अंदर की इंसानियत को भुलाकर अपने अंदर के राक्षस को जगा देते हैं और एक-दूसरे के खून के प्यासे हो जाते हैं।
कवि नज़ीर अकबराबादी ने भी अपनी कविताओं में जगह-जगह पर मानवतावाद का संदेश दिया है, उन्होंने अपने समय में टूटते मानवीय मूल्यों को ध्यान में रखकर सदैव आपसी भाई-चारे और मानवतावाद पर बल दिया। उनका मानना है कि इस संसार में रहने वाले व्यक्ति बादशाह, वज़ीर, मजदूर, धनी, गरीब आदि बाद में हैं, सर्वप्रथम वह आदमी हैं। वे कहते हैं-
“दुनिया में बादशाह है सो वह भी आदमी।
और मुफलिसो-गदा है सो वह भी आदमी।
ज़रदार बेनवाह है सो है वह भी आदमी।
नेमत जो खा रहा है सो है वह भी आदमी।
टुकड़े चबा रहा है सो वह भी आदमी।”
समय-समय पर अनेक कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से मनुष्य को जगाने का प्रयास किया है, लेकिन इन कविताओं को हमने किताबों तक ही सीमित रखा, उनसे कुछ सीखा नहीं, उनके आदर्शों को अपने अंदर ग्रहण नहीं किया।
समग्र रूप में हम यही कह सकते हैं कि हमने जीवन-यापन करना तो सीख लिया, लेकिन ज़िन्दगी को कैसे जिया जाये ये नहीं सीखा। इस भाग-दौड़ भरी जिंदगी में हमने खुद को ही खो दिया। हम आज दुनिया में क्या हो रहा है ये तो पता रखते हैं लेकिन हमारा अपना किस हालत में है ये हमें पता नहीं होता। बात करने में तो हम किसी से कम नहीं हैं आदर्श, नैतिकता, सदाचार, सभ्यता की हम बात तो करते हैं लेकिन उन पर अमल नहीं करते। यही कारण है कि हमारे संबंधों की पकड़ निरंतर कमज़ोर होती जा रही है।
– आज़र ख़ान