मांगि मांगि रस पीवे बिचारा: नीता पोरवाल
‘मांगि मांगि रस पीवे बिचारा ’ कबीर कहते हैं: मन का यह कैसा भिक्षा पात्र है जो कभी भरता ही नही. आत्म-मुग्धता, आत्म-प्रशंसा की लालसा ने हमें भिक्षुक बना कर रख दिया है. संचार क्रांति और बढते बाजारवाद का उपयोग महज कुत्सित महत्वकांक्षाओं की पूर्ति के लिए किया जा रहा है. आज हालात ये हैं कि फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप आदि इंटरनेट के प्रचलित संसाधनों का हर उपयोग कर्ता परम ज्ञानी है, एक पत्रकार है, वह एक कुशल अभिनेता है, एक बिजनेसमेन भी है, वह जो सुर्ख़ियों में बने रहना बखूबी जानता है. हालात तब और भी बदतर हो जाते हैं जब समाज का खासा वर्ग सोशल मीडिया में दर्ज सूचनाओं व घटनाओं को अंतिम और परम सत्य मान बैठता है. वहीँ नेट पर उठे विरोध और आज़ादी के संक्रमण ने आज कितने ही परिवारों को बर्बाद कर दिया है.
सोशल मीडिया पर अपनी महिमामंडित छवि बनाने में चतुर खास वर्ग आज आकांक्षा और महत्वाकांक्षा के महीन भेद को समझ कर भी नासमझ बने रहना चाहता है. रंग बिरंगे रैपरों की चमक से अभिमन्त्रित होते हम वस्तु की गुणवत्ता के साथ साहित्य की गुणवत्ता तक से समझौता कर चुके हैं. समूची संवेदनायें मात्र इस मंच तक सिमट कर रह गयीं हैं, खुदा-न-खास्ता अपने सामने हुए हादसे को भी सिर्फ़ कैमरे में कैद करते रह जाते हैं. इंटरनेट का नशा दिल ओ दिमाग पर इस कदर सवार है कि हम असल जिंदगी के किरदारों से विमुख होते जा रहे हैं. अपनों के जन्मदिन अपनों के साथ मनाने के बजाय नेट पर शुभकामनाओं के आदान प्रदान में वक्त गुजारा जाता है, माता पिता तो बच्चों के साथ रहने के लिए दूर शहर से आये और बच्चों को नेट पर माँ की तस्वीर शेअर करने से ही फुर्सत नही. कैसा लगाव है यह. यहाँ तक कि बच्चे भी इस संक्रमण से अब अछूते नही रहे. कुछ बच्चे तो नेट पर रात दिन उलझे माँ बाप की अनदेखी के कारन तनाव ग्रस्त हैं और उनमे से कुछ इंटरनेट के अंधाधुंध प्रयोग से दिग्भ्रमित और रहे बचे बच्चे माता पिता के कड़े अनुशासन के चलते नेट न मिलने के कारण विद्रोही होते देखे गए हैं.
पर क्या वजह है कि इस मायावी चकाचौंध भरी दुनिया में हम मगन हैं, भाव विभोर भी हैं पर फ़िर भी बेचैनियाँ दिल ओ दिमाग को छलनी किये जाती है. मंच पर अभिनीत ये कैसी खुशी है जिसमें सुखी होना ही भूल गए हैं हम, कैसा विरोधाभास है जिसमें हमारे पास अपनों के लिये ही वक्त नही, जिसमे सिर्फ़ पर्दे की क्षणिक रंगीनियाँ लुभाती हैं हमें, जिसमें हर तीसरा बंदा बुद्ध बनने का प्रपंच करता दिखाई देता है तो कोई सच्चे प्रेम का दंभ भरता दिखाई देता है वहीँ कोई वान गॉग के चमकीले रंगों में डूबकर भी जिजीविषा से कोसों दूर खुद को अवसाद ग्रस्त बताता सहानुभूति पाने का कुचक्र रचता है, कोई अमृता इमरोज़ की आपसी समझ, एक दूसरे की भावनाओं को सम्मान देने व एक दूसरे को प्रोत्साहित करने जैसी खूबियों को समझने के बजाय प्रेम के शीतल झोंकों की लालसा में आंसू बहाता मिलता है.
कोई शक-ओ-शुबह नही कि अधकचरा ज्ञान और महत्वकांक्षाओं के चलते हम भ्रांतियों के दलदल में धंस चुके हैं. परम ज्ञानी होने के दम्भ ने हमें कहीं का नही छोड़ा. ग्रहण करने के लिए नही अपितु ज्ञान बांटने के लिए उतावले हैं हम. जेन कथा के अनुसार हमारे भरे कप में और चाय कैसे समा सकती है. तो नई और सुगन्धित चाय के लिए हमें अपना कप एक बार फ़िर खाली करना ही होगा. एक बार शेख फरीद से किसी ने पूछा , “क्या करूँ , भ्रांतियां नही छूटती .” फरीद मस्तमौला थे , झट जाकर एक खम्बे को जकड लिया और लगे चिल्लाने : छुडाओ ! छुडाओ ! भीड़ इकट्ठी हो गयी लोगों ने कहा कि आपका दिमाग तो ठिकाने पर है खुद ही खम्बे को पकडे हो और हाय- तौबा मचाते हो . इस पर फरीद ने कहा, ‘यही तो मैं इस व्यक्ति से कह रहा हूँ भ्रांतियों को खुद तुमने पकड़ रखा है जिस दिन तुम छोडना चाहोगे क्षण भर भी देर न लगेगी .’ तो जरूरत आत्म मंथन की है, कहीं रेशमी जाल की ये डोरियाँ हमारी सोच का ही भक्षण न कर लें ! कानों में पिघलते शीशे सी आ गिरती कबीर की यह उक्ति कहीं हमारे ऊपर ही खरी तो नही उतरती, ‘मांगि मांगि रस पीवे बिचारा ’ !
– नीता पोरवाल