कथा-कुसुम
माँ की सीख
भोलू सूअर की माँ रोज़ भोलू को यही सीख देती-“कभी शहर मत जाना! वहाँ इंसानों की बस्ती है। न जाने वे तुम्हारे साथ कैसा व्यवहार करे” और छोटे-से भोलू सूअर के शहर घूमने का सपना धरा का धरा ही रह जाता। पर एक दिन भोलू को शहर घूमने की धुन सवार हो गयी और वह माँ की बात अनसुनी कर शहर घूमने निकल पड़ा।
शहर पहुँचते ही वह बड़ी-बड़ी इमारतों, दुकानों और सड़कों पर तेज़ी से दौड़ती कारों को हैरत से देखने लगा। वह शहर देखने में इतना मशगूल हो गया कि उसे पता ही नहीं चला कि वह कब सड़क के बीचों-बीच आ खड़ा हुआ।
“ध…ड़ा…क! ” की आवाज़ से उसका ध्यान टूटा और उसका कलेजा मुंह को आ गया। यह एक बड़ी-सी लारी थी, जिसके नीचे वह आते-आते बचा था। लारी के अचानक रुकने से पीछे का यातायात भी रुक-सा गया था। भोलू अभी अपनी जान बचाने के लिए भगवान को धन्यवाद दे ही रहा था कि यातायात को अस्त-व्यस्त देख ट्रैफिक पुलिस वहाँ आई और सारा माज़रा समझ भोलू को भगाने के लिए डंडा लेकर उसकी ओर दौड़ी. बेचारा भोलू जान बचा कर भागा।
इधर-उधर भागते-भागते दिन थोड़ा चढ़ आया और भोलू को भूख लग आई। अब वह क्या करे? उसने चारों ओर नज़र दौड़ाई। सामने एक ठेले पर एक आदमी गन्ने का जूस बेच रहा था। वह गन्ने को निचोड़ उनकी सीठी ठेले के पीछे रख रहा था। भोलू को गन्ने की सीठी बड़ी पसंद थी। वह चुपके-से ठेले के पीछे गया और जाकर जैसे ही इन्हें खाने को हुआ, गन्ने के रस बेचने वाले ने भोलू को देख लिया और एकदम चिल्ला उठा- “राम-राम! न जाने कहाँ से यह गन्दा सूअर का बच्चा यहाँ आ गया। अगर किसी सफाई पसंद ग्राहक ने इसे यहाँ देख लिया तो वह मेरे ठेले से गन्ने का जूस पीना पसंद नहीं करेगा।”, और उसने एक ढेला उठा भोलू की ओर फेंका। ढेला भोलू को लगते-लगते बचा। भागते-भागते वह सोचने लगा- उसकी बस्ती में सब कुछ कितना अलग और अच्छा है। ऐसी कोई पाबंदी नहीं। वह कहीं भी जाकर अपनी मर्ज़ी से खा सकता है। पर यहाँ पर तो…
भूखा-प्यासा भोलू घूमते-घूमते एक स्कूल के पास आ पहुँचा। उसने देखा, कैंपस के अंदर बच्चे मस्ती कर रहे थे। भोलू का बचपन जाग उठा। उसका मन भी उन बच्चों के साथ खेलने को हुआ। वह उन बच्चों को स्कूल के गेट के पास से खेलते हुए देखने लगा।
“छी:! कितना गन्दा है यह सूअर का बच्चा। न जाने यह स्कूल के सामने कहाँ से चला आया? मम्मा ने बताया था कि इनसे स्वाइन-फ्लू का खतरा रहता है”, भोलू ने जब सिर घुमाया तो दो बच्चे आपस में बातें करते और उसे घूरते हुए जा रहे थे। उन्होंने नाक और मुँह रुमाल से ढक रखा था। इतने में सिक्यूरिटी गार्ड भी डंडा लेकर भोलू की ओर दौड़ा और भोलू को भगाते हुए अपने-आप से बड़बड़ाने लगा- “यह तो अच्छा है, जो प्रिंसी मैम ने इस सूअर के बच्चे को नहीं देखा। वर्ना, वह तो शुरू हो जातीं और कहतीं कि हमारे स्कूल के बच्चे पॉश लोकैलिटियों से आते हैं। सिर्फ पढ़ाना ही नहीं बल्कि उन्हें एक साफ़-सुथरा वातावरण देना भी हमारी नैतिक ज़िम्मेवारी बनती है।”
थका और भूखा-प्यासा भोलू हताश हो चूका था। वह भारी क़दमों से वहाँ से निकल पड़ा। उसकी आँखें भर आई थीं। शहर की चमक-दमक अब उसे फीकी लग रही थी। वह सोचने लगा- “क्या वह वाकई इतना गन्दा और नफरत करने योग्य है? पर यह कैसे हो सकता है? उसकी माँ तो उसे हमेशा ‘राजा बेटा’ कह कर बुलाती है। वह गन्दा और नफरत करने योग्य कैसे हो सकता है? बस्ती में रहनेवाले भी सब उससे प्यार करते है। उसकी बस्ती में कितनी शान्ति और अमन-चैन है।”
उसे अब अपनी माँ की बातें याद आने लगीं। उसे लगने लगा कि माँ की बात न मान कर उसने अच्छा नहीं किया। माँ की सीख हमेशा सही होती है। उसे पता चल गया था कि वाकई इंसानों का व्यवहार जानवरों के प्रति कठोर और अपमानजनक है। उसे अब पछतावा हो रहा था और शहर घूमना रास नहीं आ रहा था।
धीरे-धीरे शाम हो रही थी और उसे लग रहा था कि घर पर उसे नहीं पाकर माँ कितनी चिंतित होगी। वह घर लौटने का रास्ता ढूंढने लगा। अभी वह थोड़ी दूर निकला ही था कि सामने से वाराह अंकल आते दिखाई दिए। भोलू की बाँछे खिल गयी। वह चिल्ला उठा- “वाराह अंकल!”
पास आते ही वाराह अंकल के भोलू को बाहों में उठा लिया और बताया कि उसके माँ-पापा भी शहर में अन्य दोस्तों के साथ उसे ढूंढ रहे हैं। अभी वे बातें कर ही रहे थे कि सामने से भोलू ने अपने माँ-पापा को आते देखा। माँ की आँखों से लगातार आँसू गिर रहे थे और साथ ही पापा की आँखें भी लाल थी। भोलू दौड़ कर अपनी माँ से लिपटकर रोने लगा और बोला- “माँ, मुझे इस गलती के लिए जी भरकर मार लो। पर अपनी सीख मत दुहराना, क्योंकि मैंने तुम्हारी यह सीख ज़िन्दगी भर के लिए याद कर ली है।”
– वंदना सहाय