कविता-कानन
माँ की भावनाएँ
मैं लिखूँ चाँद
तुम शीतलता की परिभाषा बन जाना
मैं लिखूँ सूर्य
तुम किरणों की सौगातें ले आना
मै लिखूँ चमकता तारा
तो घर आँगन को दमकाना
मैं फूल लिखूँ
तो ख़ुशबू के संदेशों से भर जाना
मैं लिखूँ धरा
तो सहनशक्ति की सीमा ही बन जाना
मैं लिखूँ गगन
तो हृदय से विस्तृत बन जाना
मैं लिखूँ जलधि
तो अंतहीन गहराई तुम पाना
ऐसी इस अखण्ड धरा पर
तुम ‘माँ’ सदृश्य बन जाना।
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माँ का अस्तित्व
माँ का अस्तित्व घर में
कभी-कभी होने
और
कभी-कभी न होने जैसा है
क्योंकि
पिता जब भी चिल्लाते हैं
माँ होकर भी
कहीं नहीं दिखती
नहीं तो
हर तरफ़ दौड़ा करती माँ
नज़र का धुआँ उतारती
मन्नत का कपूर जलाती
प्रसाद का लडडू बाँटती
नज़र का काला धागा बाँधती
माँ का अस्तित्व घर में
कभी-कभी होने
और कभी-कभी न होने जैसा है
माँ को बहुत दिनों से ख़बर आई है कि
नानी माँ बीमार है
पर माँ को फुर्सत नहीं
दादा की दवाओं से,
दादी की कथाओं से,
मेरी व बहन की दुविधाओं से
और पापा की अनवरत सुविधाओं से
माँ सबकुछ निपटा कर चुपचाप रो लेती है
नानी को याद कर
पर नहीं निकल पाती है माँ
अपने सुविधाओं के चक्रव्यूह से
माँ का अस्तित्व घर में होना
कभी-कभी होने
और
कभी-कभी न होने जैसा है।
– रागिनी श्रीवास्तव