विमर्श
मणिपुर का सनामही धर्म और वैष्णव संस्कृति
– वीरेन्द्र परमार
सनामही धर्म दक्षिण पूर्व एशिया का सबसे प्राचीन धर्म है, जिसकी उत्पत्ति मणिपुर में हुई तथा मणिपुर, असम, त्रिपुरा, म्यांमार, बंगलादेश आदि में रहनेवाले मीतै समुदाय इनकी पूजा करता था। मणिपुर में प्राचीनकाल से रहनेवाले आदिवासी समुदाय भी सनामही धर्म में आस्था रखता था, लेकिन ईसाई धर्म अपना लेने के बाद सनामही में इन समुदायों की आस्था नहीं रह गई है। मणिपुर की तंगखुल, कुकी, कबुई, कोम, पुरुम, चोथे इत्यादि जनजातियाँ भी सनामही धर्म के प्रति पूर्ण आस्था रखती थीं लेकिन ईसाई धर्म को स्वीकार करने के बाद इन जनजातियों की आस्था सनामही के प्रति नहीं है। प्राचीनकाल से प्रत्येक मीतै घर में सनामही की पूजा की जा रही है। सनामही धर्म मीतै समुदाय की परंपरा और रीति-रिवाजों का आधार स्तम्भ है। यह मीतै समाज और उसकी जीवन शैली का अभिन्न अंग है। सनामही के बिना मीतै जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
सनामही ही मैतै समाज के सुख-दुःख का कारण, सृष्टि के नियंता व नियंत्रक और समस्त आध्यात्मिक प्रतीकों के केंद्रबिंदु हैंI सनामही सभी देवताओं के राजा हैं, उन्हीं की कृपा से जीवन में सौभाग्य की प्राप्ति होती है। मीतै समाज की सनामही में अखंड आस्था है। यह धर्म सत्य और न्याय के सिद्धांत पर आधारित है। भगवान सनामही का मानव के अस्तित्व से सीधा जुड़ाव है। मीतै अवधारणा के अनुसार सत्य का अर्थ ज्ञान और सनामही का एहसास है। वास्तव में सनामही ही सत्य हैं, शेष सब मिथ्या है। जो भक्त या साधक सत्यनिष्ठ होते हैं उन्हीं को सनामही का आभास होता है। सनामहीवाद का जीवन दर्शन शाश्वत नैतिक सिद्धांतों पर आधारित है। भगवान सनामही सर्वकल्याणकारी और सर्वहितैषी हैं। मीतै समुदाय के सामाजिक और नैतिक उन्नयन में सनामही की महत्वपूर्ण भूमिका है। यह एक मानवतावादी धर्म है। सनामही के अनुयायी सभी मानव को समान दृष्टि से देखते हैं, इस धर्म में मानव-मानव के बीच कोई विभेद नहीं है। अनेक मीतै छुआछूत में विश्वास करते हैं लेकिन ऐसा करना सनामही धर्म के मानदंड के विरुद्ध है। मीतै समाज के लोगों द्वारा अपने दैनिक जीवन में समाज के प्रति कुछ मानदंडों और कर्तव्यों का पालन किया जाना आवश्यक है। उपयुक्त मंत्रों के साथ लईनिंगथौ सनामही की पूजा करने से लोगों के दुख और संकट दूर हो सकते हैं।
सनामही के अनुयायी निम्नलिखित तीन रूपों में उनकी पूजा करते हैं-
1. प्रदेश के ईश्वर के रूप में भगवान लईनिंगथौ सनामही की पूजा
2. गृहदेवता के रूप में भगवान लईनिंगथौ सनामही की पूजा
3. पूर्वज के के रूप में भगवान लईनिंगथौ सनामही की पूजा
अनेक कारणों से सनामही धर्म का पतन हो गया लेकिन मीतै समाज में अन्तः सलिला की भांति यह हमेशा विद्यमान रही है। सनामही एक प्रकार का जड़ात्मवाद अथवा प्रकृतिपूजा है। इसमें पूर्वजों और प्राकृतिक शक्तियों की पूजा की जाती है। सनामही का शाब्दिक अर्थ है ‘सर्वत्र तरल पदार्थ की तरह फैलना’। तात्पर्य यह कि भगवन सनामही सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान हैं। यह मीतै लोगों के सबसे महत्वपूर्ण देवता हैं। सनामहीवाद की अवधारणा, उत्पत्ति, इतिहास और पूजा विधि के संबंध में मतभिन्नता है। व्यापक रूप से ऐसा माना जाता है कि इसमें जल, अग्नि, पर्वत आदि प्राकृतिक शक्तियों की पूजा की जाती है। हिंदू धर्म के आगमन से पहले मणिपुर के मीतै समुदाय सनामही धर्म का अनुसरण करते थे। सनामही का दूसरा नाम ‘अशीबा’ भी था। ऐसी मान्यता है कि ‘अशीबा’ ने आकाश, पृथ्वी और अन्य सभी चेतन-अचेतन वस्तुओं की रचना की। यह एक लोक धर्म है। यह वैष्णववाद के साथ प्रतिस्पर्धा करता है। अनेक लोग और गुट मणिपुरी विरासत पर जोर देने के साथ-साथ सनामहीवाद और संबंधित प्रथाओं को पुनर्जीवित करने की मांग करते रहते हैं। सनामहीवाद और हिंदू धर्म दो अलग-अलग धर्म हैं, लेकिन दोनों में अनेक समानताएं भी हैं। सनामहीवाद सिदबा मापु द्वारा सृष्टि की रचना में विश्वास करता है। यह धर्म प्राचीन स्वदेशी जड़ात्मवाद है, जिसका संबंध सूर्य पूजा से है। मीतै समुदाय के धार्मिक इतिहास को तीन कालों में विभक्त किया जा सकता है-
1. पूर्व– हिंदुत्व काल
2. हिंदुत्व काल और
3. सनामही धर्म का पुनरुत्थान काल
1. पूर्व– हिंदुत्व काल
पूर्व–हिंदुत्व काल में मीतै के प्रमुख ईश्वर सनामही थे। एक आख्यान के अनुसार अशीबा ने आकाश, खगोलीय पिंडों और पृथ्वी की रचना की। अंत में उन्होंने मानव की रचना की। उन्होंने अपने पिता ‘याईबिरल सिदाबा’ के परामर्श से सभी रचना की थी। सभी मीतै गृह देवता के रूप में सनामही की पूजा करते थे। ऐसा माना जाता था कि सनामही का निवास घर के दक्षिण-पश्चिम कोने पर होता है, इसलिए दक्षिण-पश्चिम कोने पर उनकी पूजा की जाती थी। चार देवताओं को चारों दिशाओं का अभिभावक समझा जाता था: 1. थनजिंग: दक्षिण-पश्चिम दिशा के स्वामी, 2. मरजिंग: उत्तर –पूर्व दिशा के स्वामी, 3.वंगबरेल: दक्षिण-पूर्व दिशा के स्वामी और 4. कौब्रू: उत्तर-पश्चिम दिशा के स्वामी। माइबा और माइबी (पुजारी और पुजारिन) द्वारा सभी धार्मिक समारोहों में इन चारों देवताओं का आवाहन किया था और दुष्ट शक्तियों को रोकने के लिए प्रार्थना की जाती थी। मीतै समुदाय द्वारा ‘उमंग लाई’ की पूजा की जाती थी। कुल 365 उमंग लाई थे, जिन्हें तीन वर्गों में विभाजित किया गया था: (1) समान उपनाम वाले परिवारों (सगेई) के उमंग लाई (2) गाँव विशेष के उमंग लाई और (3) चारों दिशाओं के उमंग लाई।
2. हिंदुत्व काल
पंद्रहवीं शताब्दी में मणिपुर में दूसरे प्रदेशों से ब्राह्मणों का आगमन हुआ लेकिन उनकी संख्या अत्यल्प थी। मणिपुर में केवल ब्राह्मण पुरुष ही आए थे। मणिपुर के राजा ने उन्हें निम्न वर्ग की स्त्रियों से विवाह करवाया। इन ब्राह्मणों की ऐसी कोई हैसियत नहीं थी कि वे मीतै समाज पर कोई प्रभाव डाल सकें। वे मीतै समाज में घुलमिल गए। चराईरोंगबा (1697–1709) मणिपुर के पहले राजा थे, जिन्होंने हिंदू धर्म को अपना लिया लेकिन उन्होंने मीतै समाज में हिंदू धर्म के प्रसार के लिए कोई प्रयास नहीं किया, न ही पारंपरिक सनामही धर्म को नष्ट करने का कोई प्रयत्न किया। ग़रीब नवाज़ (1709–1748) के शासनकाल में बहुत बड़ा बदलाव आया। वर्ष 1717 में सिलहटी ब्राह्मण संत दास गोसाईं ने ग़रीब नवाज़ को हिंदू धर्म में दीक्षित किया। ग़रीब नवाज़ ने पारंपरिक सनमाही धर्म को नष्ट करने के लिए अनेक कदम उठाए। उन्होंने वर्ष 1723 ई. में उमंग लाई के सभी मंदिरों को ध्वस्त करा दिया। वर्ष 1723 ई. में उन्होंने क्षत्रिय जाति को अंगीकार कर लिया। संस्कृति, धर्म, इतिहास, राजनीति, भूगोल, साहित्य आदि पर मीतै लिपि में लिखित 120 से अधिक पुस्तकों को अग्नि के हवाले कर दिया गया। मीतै समाज पर हिंदुत्व थोपा गया और जिन्होंने हिंदू धर्म को स्वीकार करने से मना किया उन्हें दण्डित किया गया। मणिपुर के विभिन्न भागों से उमंग लाई को एकत्रित कर उन्हें कब्र में दफना दिया गया। पारंपरिक मीतै गोत्र के स्थान पर सात नए हिंदू गोत्रों की रचना की गई: 1. शांडिल्य 2. कश्यप 3. मधुगल्य 4. गौतम– भरद्वाज 5. अत्रेय- अंगिरा 6. भरद्वाज 7. वशिष्ठ। राजाज्ञा से मीतै भाषा में धार्मिक गीत गाने पर रोक लगा दी गई। ग़रीब नवाज के पौत्र भाग्यचन्द्र (1759-1798) के शासनकाल में हिंदू वैष्णव धर्म का गौरव चरम पर था। उन्होंने गौरिया वैष्णव धर्म को अपना लिया था। राजा चन्द्रकीर्ति ने भी हिंदुत्व का विकास जारी रखा। राजा चूराचाँद (1891–1941) के शासनकाल में एक प्रसिद्ध विद्वान थे, जिनका नाम फुरैलतपम अतोमबापू शर्मा था। उनका मानना था कि मणिपुर आर्यों की प्राचीन मातृभूमि थी। उन्होंने हिंदुत्व की दृष्टि से पारंपरिक धर्म और संस्कृति की व्याख्या की। उन्होंने मीतै समुदाय के आर्यीकरण का औचित्य सिद्ध करने के लिए बंगला, मणिपुरी, हिंदी और अंग्रेजी भाषाओँ में अनेक आलेख और पुस्तकों की रचना की। उनकी प्रतिभा और विद्वता से प्रभावित होकर डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने उन्हें पूर्वी भारत के अगस्त मुनि की संज्ञा दी है। मणिपुर में राजा ग़रीब नवाज़ से राजा चूराचाँद तक की अवधि में हिंदू धर्म खूब फूला-फला।
3. सनामही धर्म का पुनरुत्थान काल
राजा चूराचाँद (1891–1941) के शासनकाल में सनामही धर्म के पुनरुत्थान का आंदोलन शुरू हुआ। कछार के एक मीतै गाँव से आरंभ पुनरुत्थान आंदोलन के नेता थे नावरम फुल्लो, जो लाईनिंगल नाओरिया के नाम से प्रसिद्ध थे। नावरम फुल्लो बंगाली वेशभूषा में रहते थे, बंगला बोलते थे और बंगाली हिंदू की तरह पूजा करते थे। जब वे छात्र थे तो उनके बंगाली मित्र कहते थे कि क्या तुम्हारी कोई भाषा और संस्कृति नहीं है? उन्होंने इस विषय पर गंभीर चिंतन–मनन किया। वे दो बार मणिपुर गये और वहाँ पारंपरिक धर्म के पवित्र स्थलों का भ्रमण किया। उन्होंने मीतै भाषा, संस्कृति और सनामही धर्म का अध्ययन किया और अनेक पुस्तकें लिखीं। सनामही धर्म हिंदू धर्म का विरोधी नहीं है। यह दुनिया के सभी धर्मों का सम्मान करता है। सनामही धर्म के उद्देश्य निम्नलिखित है-
• हिंदुत्व का त्याग करना।
• मीतै हिंदू विद्वानों द्वारा निरुपित संस्कृतकरण के सभी सिद्धांतों को नकार देना।
• पारंपरिक धर्म, संस्कृति, लिपि, भाषा, साहित्य के पुनरुत्थान के लिए आवश्यक कार्य करना।
• पर्वतीय और मैदानी लोगों के बीच एकता और भाईचारा स्थापित करना।
• मणिपुर और मणिपुर के बाहर रहनेवाले मीतै लोगों में एकता की भावना को मजबूत करना।
• मणिपुर के इतिहास का अनुसन्धान करना।
वैष्णव संस्कृति
मणिपुर की संस्कृति विभिन्न काल खंडों में अनेक संस्कृतियों और धर्मों से प्रभावित होती रही है। पंद्रहवीं शताब्दी में भारत के विभिन्न भागों से यहाँ ब्राह्मणों का आगमन हुआ, जिन्होंने ‘मीतै’ संस्कृति पर गहरा प्रभाव छोड़ा लेकिन अंततः ब्राह्मण संस्कृति भी इसी संस्कृति में घुलमिलकर एक हो गई। प्राचीनकाल में यहाँ के लोग सूर्य (सनामही) की पूजा करते थे। चंद्रमा (पखंगबा) को बाद में सर्प देवता के रूप में मान्यता दी गई। चंद्रमा (पखंगबा) को मणिपुरी राजा का देवता माना जाता है। मणिपुर हिंदू धर्म की तीनों शाखाओं- शैव, वैष्णव और शाक्त का केंद्र रहा है। गुजरात, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों से कई ब्राह्मण पुजारी मणिपुर में आए और वहीं बस गए। राजा क्यंबा (1467-1523) ने विष्णुपुर में एक विष्णु मंदिर का निर्माण कराया। वर्ष 1704 में राजा चरई रोंगबा ने वैष्णव परंपरा की शुरूआत की, तब से वैष्णव धर्म मणिपुर का राज्य धर्म बन गया। इसके कारण मणिपुर का भारत के साथ सांस्कृतिक संबंध और भी मजबूत हो गया। मणिपुरी वैष्णव केवल कृष्ण की पूजा नहीं करते बल्कि राधा-कृष्ण की पूजा करते हैं। अठारहवीं शताब्दी में शाही संरक्षण में यहाँ वैष्णव धर्म की बंगाल शाखा का खूब विस्तार हुआ। 18 वीं शताब्दी में पुनरुत्थानवादी आंदोलनों के बावजूद बड़ी संख्या में मणिपुरी लोगों ने वैष्णव धर्म को अपनाया। पंद्रहवीं शताब्दी में मणिपुर में संभवतः बंगाल से कीर्तन की परंपरा का आगमन हुआ। विष्णुपुर गाँव में स्थित एक छोटे-से विष्णु मंदिर में कीर्तन गायन होता था। उस समय तक कीर्तन की परम्परा अल्पज्ञात थी। महान मणिपुरी राजा ग़रीब नवाज (1700–1748 ई.) के शासनकाल में कीर्तन लोकप्रिय हुई, जिन्होंने रामानंदी पंथ अपना लिया था। मणिपुर की ‘रास लीला’ का सूत्रपात अठारहवीं शताब्दी (1763-1798 ई.) में राजर्षि भाग्यचंद्र द्वारा किया गया। राजर्षि भाग्यचंद्र ने कीर्तन गायन की एक नई शैली विकसित की जिसे नाट संकीर्तन कहा जाता है। उन्होंने मणिपुर में वैष्णव संप्रदाय का प्रसार किया एवं रासलीला का सूत्रपात किया। मणिपुरी रासलीला में प्रायः राधा और कृष्ण के प्रेम का मंचन किया जाता है। मणिपुरी नृत्य भारत का प्रमुख शास्त्रीय नृत्य है। इसका नाम इसके उत्पत्ति स्थल (मणिपुर) के नाम पर पड़ा है। यह नृत्य मुख्यतः हिन्दू वैष्णव प्रसंगों पर आधारित होता है, जिसमें राधा और कृष्ण के प्रेम प्रसंग प्रमुख है। मणिपुरी नृत्य भारत के अन्य नृत्य रूपों से भिन्न है। इसमें शरीर धीमी गति से चलता है, सांकेतिक भव्यता और मनमोहक गति से भुजाएँ अंगुलियों तक प्रवाहित होती हैं। यह नृत्यम रूप 18 वीं शताब्दी में वैष्णव सम्प्रदाय के साथ विकसित हुआ, जो इसके शुरूआती रीति-रिवाज और जादुई नृत्य रूपों से बना है। विष्णु पुराण, भागवत पुराण तथा गीत गोविन्द की रचनाओं से ली गई विषयवस्तुएँ इसमें प्रमुख रूप से उपयोग की जाती हैं।
मैतै समुदाय की दंतकथाओं के अनुसार जब ईश्वषर ने पृथ्वी का सृजन किया तब यह एक पिंड के समान थी। इस नवनिर्मित गोलार्ध पर नृत्य किया गया तथा अपने पैरों से पृथ्वी को मजबूत और चिकना बनाया गया। आज भी जब मणिपुरी लोग नृत्य करते हैं तो वे अपने कदम तेजी से नहीं रखते बल्कि अपने पैरों को भूमि पर कोमलता और मृदुता के साथ रखते हैं। महिला रास नृत्य राधा-कृष्ण की विषयवस्तु पर आधारित है, जो बेले तथा एकल नृत्य का एक रूप है। पुरुष संकीर्तन नृत्य मणिपुरी ढोलक की ताल पर पूरी शक्ति के साथ किया जाता है। राजा चंद्रकीर्ति के शासनकाल (1850–1886) में पहली बार 64 सत्रों में 64 रास की प्रस्तुति हुई। अठारहवीं शताब्दी में मणिपुर वैष्णव धर्म के तीनों रूपों के आगमन का साक्षी बना। इस काल में ही मणिपुर में वैष्णव धर्म के निम्बार्क सम्प्रदाय (निमान्दी), रामानंद सम्प्रदाय और चैतन्य सम्प्रदाय (गौडिया) का प्रवेश हुआ। निमानंदी सम्प्रदाय ने इस राज्य के लोगों को अधिक नहीं प्रभावित किया। पड़ोसी जिले सिलहट से एक वैष्णव उपदेशक शांतिदास आए और उन्होंने महान मणिपुरी राजा ग़रीब नवाज को रामानंदी संप्रदाय में दीक्षित किया। आरंभिक विरोध के बाद वैष्णव धर्म मणिपुर का राज्य धर्म बन गया। राजर्षि भाग्यचंद्र (1763-98 ई.) के शासनकाल में वैष्णव धर्म के चैतन्य सम्प्रदाय का खूब विस्तार हुआ। अनेक स्थानों पर कृष्ण, राधा, मदनमोहन, नित्यानंद, अद्वैत की काष्ठ मूर्तियाँ स्थापित की गईं। महाकवि विद्यापति, चंडीदास, ठाकुर नरोत्तमदास और अन्य वैष्णव कवियों के गीतों का खूब प्रयोग किया गया। वैष्णव आंदोलन ने मणिपुर के सभी कला रूपों पर गहरा प्रभाव डाला। अठारहवीं शताब्दी और उसके बाद की प्रदर्शन कलाओं पर वैष्णव धर्म का उल्लेखनीय प्रभाव देखा जा सकता है। लोगों ने शाही संरक्षण में बंगला भाषा को अपना लिया, जिसके कारण मणिपुरी भाषा का विकास अवरुद्ध हो गया लेकिन अपनी मातृभाषा मणिपुरी के प्रति समर्पित कवियों–लेखकों ने बंगला को अंगीकार नहीं किया बल्कि समानांतर रूप से मणिपुरी में लेखन करते रहे। राजा ग़रीब नवाज के दरबारी मणिपुरी विद्वान अंगोम गोपी ने कृतिवास रामायण पर आधारित सात खंडों में मणिपुरी रामायण की रचना की। मणिपुरी नाट संकीर्तन बंगाल के ठाकुर नरोत्तम दास के लीला कीर्तन का ही विस्तार है, जिसमें आलाप, राग और ताल का प्रयोग किया जाता है। मनोहरसाई पदावली– कीर्तन का एक शास्त्रीय रूप है, जो मणिपुर को बंगाल का उपहार है। सोलहवीं शताब्दी के महान वैष्णव संत ठाकुर नरोत्तमदास ने ध्रुव-प्रबंध-गान के आधार पर इसका सूत्रपात किया। इसे लीला अथवा रास कीर्तन कहा गया। उनके बाद कीर्तन के अन्य तीन रूप विकसित हुए– मनोहरसाई, रेनेती और मंदारिनी। जब उन्नीसवीं शताब्दी में कीर्तन की इन तीन शैलियों का मणिपुर में आगमन हुआ तो इन्हें मनोहरसाई कहा गया। इस शैली में नाट कीर्तन गायन की सभी विशेषताएँ थीं। मंडप में सामान्यतः सोलह कलाकार एक वृत्त बनाते हैं। अभिनेता, उसके सहायक और मणिपुरी मृदंग बजानेवाली मण्डली को पाला कहते हैं। मंडप के केंद्र में केले का पत्ता, पूजन सामग्री और कपड़े का एक टुकड़ा रखा जाता है, जिसे आसन कहा जाता है। वहाँ दीप, पान पत्ते और फल रखे जाते हैं। इसे मण्डली पूजा कहा जाता है। यहाँ पांच वैष्णव संतों यथा, श्री कृष्ण चैतन्य, नित्यानंद, अद्वैत, गदाधर और श्रीवास की पूजा की जाती है। भक्ति रत्नाकर के अनुसार खोला (मृदंग) और करताल दोनों की पूजा की जाती है। परंपरानुसार दीप, धूप और तिलक से सोलह करताल और दो मृदंग की पूजा की जाती है। ध्रुमल नट संकीर्तन का एक अनोखा रूप है। इसमें 14 मृदंग बजानेवाले होते हैं। तेरहवीं शताब्दी में प्रकाशित महाकवि जयदेव की कृति गीत गोविन्द का भारतीय कला जगत और दर्शन पर क्रांतिकारी प्रभाव पड़ा। भारतीय संगीत और नृत्य को इस महान कृति ने गहराई तक प्रभावित किया। इस अमर कृति ने न केवल संस्कृत कला–जगत को बल्कि भारतीय भाषाओँ के सभी कला रूपों को प्रभावित किया। इस कृति ने असम के श्रीमंत शंकरदेव की रचनाओं और श्रीकृष्ण चैतन्य द्वारा शुरू किए गए बंगाल के कृष्ण कीर्तन पर व्यापक प्रभाव डाला। बंगाल के कृष्ण कीर्तन को ही बाद में यात्रा कहा गया। यात्रा का शाब्दिक अर्थ जुलूस होता है और संभव है कि ईश्वर के सम्मान में भक्तों द्वारा जुलूस निकालने का रिवाज रहा हो और जुलूस में नृत्य, गीत व नाटक की भी प्रस्तुति होती हो। मणिपुर की यात्रा परंपरा अत्यंत उन्नत है और इस पर बंगाल की वैष्णव संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यहाँ रथ यात्रा, झूलन जात्रा और डोल यात्रा अत्यंत मशहूर है। यहाँ कृष्ण और गोपियों से संबधित छोटे-छोटे नाटक भी होते हैं, जो भागवत कथा पर आधारित हैं।
– वीरेन्द्र परमार