कविता-कानन
भूखा और प्रेमी
कोई प्रेम को रोता है
कोई रोटी को।
भूख दोनों को है
दोनों कहते है भूख नहीं है।
अन्तर है दोनों में-
एक जीवन से हारता है
एक जीवन को हारता है
समता भी है दोनों में-
भूखा और प्रेमी
दोनो बिकते नहीं हैं
बदलता वही है-
जिसका पेट भरा है
और जिसे अवाञ्छित प्रेम मिला है
शाश्वत वही है-
जो पेट की भूख के लिये
पीठ की कठोरता
बन्धक रखता है
और प्रेम के लिये
अहम् की कठोरता
भूखे से बड़े पेट वाला
हारता रहेगा
और प्रेमी से स्वार्थी।
अकेले मे पेटू
भूखे के पाँव पड़ता है
और स्वार्थी निःस्वार्थी के पाँव में
पर भीड़ में दोनों तन को
तनकर लटक झटककर चलते है।
भूखा और प्रेमी
भीड़ का हिस्सा होते हुए भी
एकाकी होते हैं।
लुके छुपे से वैरागी से।
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तुम्हें दे सकूँ
समय के कुछ क्षण
भटकते आ गये है
मुझ तक
उछलते-कूदते,
फलाँग मारते,
जैसे दूध पीने के लिये
बन्धन मुक्त किया गया हो
बछड़ा
मैं दौड़ता-गिरता-पड़ता
समेट रहा हूँ क्षण-क्षण
कि तुम्हें दे सकूँ
समय का एक
भरपूर हिस्सा
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तुझे साधता रहूँ
तुझे साधता रहूँ
यूँ ही किसी निर्जन में
तेरे व्यापक नाद सागर में
ध्वनियों के बेड़े उतारता हूँ
तेरे विभू आँचल में
विचारों के मृग फलाँगते हैं
तुझमें भटक-भटक कर
लौट आता हूँ खुद में
तुम भी कहाँ विलग हो मुझसे
समा जाते हो मुझमें
बना देते हो मुझे स्वयं-सा
स्वयं हो जाते हो मुझसे
ओर दोहराते हो
वही प्रक्रिया
जिससे आह्लादित हुए थे तुम
मुझे आनन्दित करने को
भला संसार के प्रेम में
यह
प्रत्यावर्तन कहाँ…..!
तुम प्रेम हो……।
– दिलीप वसिष्ठ