व्यंग्य
बोलो सियावर रामचन्द्र की जय
हमारे घर के पास एक पार्क है। उसके पास एक छोटा पार्क और है। उसमें चार दिन से (भागवत कथा चल रही है) शमियाना लगा है, मंच बना है, जिस पर भगवानों बड़ी-बड़ी की तस्वीरों पर मालाएँ चढ़ी हैं। तस्वीरों के बगल में एक तख़्त और लगा है, जिस पर पीले वस्त्र पहने तीन पंडितजी माइक में बारी-बारी से कथा कहते हैं, जो कथा कहते हैं; उनके अलावा एक मंजीरे और एक ढोलक भी बजाते हैं। मेरेस्कूटर की रफ़्तार ने मुझे इससे ज़्यादा देखने का मौका नहीं दिया। इन दिनों में मैं कई बार आते-जाते इस पांडाल में जो कुछ चल रहा था, उसे देख रही थी। मैंने देखा कि कोई इक्का-दुक्का ही भक्त सामने कुर्सियों पर बैठे होते हैं। वहाँ का नज़ारा देखकर लगता है कि सारा मार्केट ठंडा पड़ा है। जितना इन्वेस्ट किया उतना निकलना भी मुश्किल है। मैं स्कूटर पर रास्ते में मन में सोचती जाती कि पंडित लोग, हम जैसों के लिए सोचते होगें कि आजकल की पीढ़ी का भगवान में ध्यान नहीं है। तभी तो हमारी संस्कृति इतनी नष्ट और पीढ़ी भ्रष्ट हो रही है। इस विश्वगुरु जैसे देश में राम ने जन्म लिया, कृष्ण ने जन्म लिया। कहाँ उज्जैन देवनगरी, कहाँ अयोध्या, कहाँ ये छोटी काशी (जयपुर)।
कल जब ऑफिस से घर आ रही थी तो मंच के आगे वाली पूरी लाईन पर भक्त विराजमान थे और “हम तुम जोरी से, बंधे एक डोरी से जइयो कहाँ ए हुज़ूर…..” की धुन पर बने भजन पर दो महिलाएँ और एक युवा लड़की भाव-विभोर होकर नृत्य कर रही थीं, जिसमें सभी भजन फ़िल्मी गीतों की धुन पर चले थे। वहाँ भजन चल रहे थे और मैं वो फ़िल्मी गीत घर में मन ही मन गुनगुना रही थी। मेरे घर आने के कोई घंटे भर बाद माइक चुप हो गया तो लगा कि अब कार्यक्रम बंद हो गया है।
अब शाम को साढ़े सात बजे के क़रीब फ़िल्मी डिस्को टाइप (छप्पन छुरी) गानों की आवाज़ पांडाल से गूँजी। कोई आधा घंटे ये गीत चले। आखिर पंडित जी भी इन्सान ही तो हैं न! कहाँ तक भगवान का नाम लें बेचारे? अब अंत में पंडित जी ने अगले दिन के कार्यक्रम का ब्यौरा देते हुए घरों में बैठे हुए भक्तजनों से सप्ताह का लाभ लेने का आग्रह किया फिर अंत में नारे लगाए–
भारत माता की जै
सनातन धर्म की जै
सियावर रामचंद्र की जै
बोलो भाई, सब संतन की जै
थैंक यू
अगली सुबह पंडितों ने सुबह पार्क में घूमने आने वालों से भागवत कथा सुनने आने का आग्रह किया। मैंने भी सोचा ज़रा कार्यक्रम का जायज़ा लिया जाए सो आज ऑफिस से आते हुए स्कूटर साइड में लगाया और एकप्रौढ़ पंडितजी, जो मेरी तरफ आते दिखे; उनको नमस्कार कर वहाँ रखी एक कुर्सी परबैठ गयी। मेरे पास बैग था तो उन्हें लगा कि मैं नौकरी करती हूँ तो पंडित जी बोले- नौकरी करती हो? टीचर हो? दोनों सवाल उन्होंने एक के बाद एक पूछे। मैं बोली- “नहीं, एक संस्था में काम करती हूँ”। यह सुनकर उन्होंने प्रशंसा में ऐसे मुँह बनाया जैसे संस्था में काम करना कोई बहुत बड़ी बात हो। इसी बीच एक युवा पंडितजी भी आ गये। वो बोले- एन.जी.ओ में हो? एन.जी.ओ में? मैंने कहा- “हाँ!” अब प्रौढ़ पंडितजी बोले कहाँ रहती हो? अग्रवालों के हो? घर का मकान है? अग्रवालों के हो का जवाब मैंने दिया- “मेरी जात नहीं है”। इस पर उन्हें अटपटा तो लगा पर वो कुछ बोले नहीं। अब मैंने भी कुछ उनके बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि वे मथुरा से आए हैं। आगे उन्होंने अपना दर्द बताया कि अब कोई एक परिवार तो बुलाता नहीं, खर्चा लगता है। अब सात दिन का पचास हजार खर्च होगा। इसी बीच एक महिला अपने घर से लोटे में शायद दूध लेकर आयीं, जिसे वे युवा पंडितजी कूलर के पीछे रखकर आ गये। उसी समय एक अन्य पंडितजी मेरे लिए चाय ले आए। मेरे बहुत मना करने पर भी उन्होंने मुझे ज़बरदस्ती चाय दे दी। मैंने पी फिर कप धोया। अब लगा चाय जितना तो पैसा चढ़ा दूँ, यहाँ। सो अपने बैग से मैंने दस रूपये निकाले और दान पात्र में डाल दिए। इसके बाद मैं आने लगी तो वही प्रौढ़ पंडितजी मेरे पास एक केला लेकर आए और मुझे देने लगे। मैंने मना किया तो उन्होंने कहा- “अरे! ये तो प्रसाद है।” उस समय मन कह रहा था कि कहती चलूँ कि पंडित जी, ये पत्थर पूजने का समय नहीं, पत्थर गढ़ने का समय है।
– अनुपमा तिवाड़ी