लेख
बेटी को बेटी ही रहने दें- कविता विकास
घटना पच्चीस साल पुरानी है। एक प्रतिष्ठित महिला कॉलेज की प्राचार्या के समक्ष एक नेता किस्म के पिता अपनी बेटी के एडमिशन के लिए चिरौरी कर रहे थे। प्राचार्या ने साफ़ कह दिया था कि मेरिट लिस्ट में जिनका नाम नहीं आया है, उनका दाखिला किसी भी कीमत पर नहीं होगा। पिता ने अपनी बेटी की खूबियों का बखान करते हुए कहा कि उसे वह बेटों जैसा पालते हैं। प्राचार्य ने कुछ रोष प्रकट करते हुए कहा, “क्यों, बेटी को बेटी जैसा क्यों नहीं पालते?” और उठकर चली गयीं। तब इस बात का अर्थ नहीं समझी थी। अब जब दुनियादारी की समझ हो रही है, तब इसका अर्थ जान पाई हूँ। बेटी और बेटा वस्तुतः अलग-अलग स्वभाव के दायरे में व्यस्क होते हैं। बेटियाँ कोमलांगी होती हैं। उन्हें पहले शारीरिक और बौद्धिक स्तर पर कमज़ोर भी माना जाता था। लड़के स्वभावतः उग्र, कठोर और बलवान माने जाते हैं। अब जब पैदाइश पर परिवेश का प्रभाव लक्षित होने लगा है, बेटा और बेटी के बीच की महीन रेखा लुप्त होती जा रही है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर वर्ष 1975 को अंतर्राष्ट्रीय महिला वर्ष के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया था। 1975 से 1985 के दस वर्ष का समय महिलाओं के योगदान को सम्पूर्ण पहचान देने के लिए कार्यरत रहा। इन प्रयासों का आगाज़ विभिन्न नारी-संगठनों और उनके रचनात्मक सहयोगों को विश्व पटल पर लाने हेतु अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस, मदर्स डे, डॉटर्स डे आदि दिवस निश्चित किये गए।
आलोचक चाहे जो कहें, विदेशी तर्ज़ का उलाहना दें या ऐसे आयोजन से लाइमलाइट में बने रहने का लालच, पर इतना तो सत्य है कि छोटे शहरों में आस-पास के गाँव और कस्बों से चुनकर ऐसी प्रतिभाओं को सामने लाया गया है, जिनकी उपलब्धियां प्रेरणास्रोत हैं। मसलन, एक ऐसी बैंक मैनेजर को लोगों ने जाना, जिनका दाहिना हाथ एक सड़क दुर्घटना में कंधे तक से कट गया। भीषण संघर्ष को झेलते हुए उसने कॉलेज की पढ़ाई पूरी की और बैंक मैनेजर तक का लम्बा सफर तय किया। सरकारी नौकरी पर कार्यरत एक अन्य महिला ने अपने आपको उस समय भी जोड़े रखा, जब शादी के मात्र एक हफ्ते बाद उनके ससुराल वालों ने उन्हें घर से निकाल दिया, इसलिए कि वह काली थीं। कानूनी दांव-पेंच के खर्चे वहन करने की क्षमता उनमें नहीं थी, सो उन्होंने चुपचाप अपनी पढ़ाई पूरी की और नौकरी पर लग गयीं। गुमनामी में जीने वाली ऐसी महिलायें हिम्मत की मिसाल हैं और सम्मानीय भी।
असल में बेटियों की परवरिश में अगर आपके ख्याल में उन्हें बेटों जैसा बनाने की बात आती है तो फिर यह ‘जैसा’ शब्द ही उनके बीच के भेदभाव को दिखाता है और बेटों के सुपीरियर होने की बू आती है। बेटी को उसकी कमज़ोरियों और खूबियों के साथ स्वीकारें और उसी के बीच उनका मार्ग प्रशस्त करें। आज विभिन्न राज्यों में लड़कियों में शिक्षा का प्रचार करने के लिए साइकिल से लेकर लैपटॉप तक दिए जा रहे हैं। जिनसे निःसंदेह उनमें जागरूकता आयी है। इसके लिए माता-पिता की सोच बदलनी होगी। सच पूछा जाये तो महिलाओं को वस्तुतः हमारी सामाजिक सोच ने कमज़ोर बना दिया है। शारीरिक रूप से उन्हें कमज़ोर मानने के साथ साथ बरसों से चली आ रही वह सामंती सोच भी है जिसमें उन्हें उपभोग की वस्तु माना जाता है। स्त्रियों का घर से बाहर निकलकर पुरुषों के अधिकार क्षेत्र में अपना भी दबदबा कायम करना पुरुषों के लिए भले ही असहनीय हो जाए पर उन्हें यह समझना होगा कि बराबरी का यह अधिकार संविधान द्वारा दिया गया है। इसलिए निर्भया मामले के बाद जनता के दबाव पर क़ानून में कई संशोधन हुए। कानून में आयी सख्ती का ही परिणाम है कि अब पीड़िता अपना केस दर्ज़ करने थाने तक पहुँच रहीं हैं। देशभर में अनेक महिला थाने खोले गए हैं। यह आश्चर्यजनक बात है कि हरियाणा जैसे राज्य में जहां लड़के-लड़की के बीच का अनुपात सबसे ज्यादा है, एक हज़ार लड़के पर 879 लडकियां, वहीँ सबसे ज्यादा 21 महिला थाने खोले गए हैं और दो महीने में करीब 4700 शिकायतें दर्ज़ हुईं। नागालैंड महिला सम्बन्धी अपराधों को निबटाने में सबसे आगे है, जहां बलात्कारियों को सजा मिलने की दर 85% है। पूरे देश में यह दर 27% है। आज पूरा देश महिलाओं की सुरक्षा चाहता है और उन्हें आगे बढ़ते देखना चाहता है। यूनिसेफ ने ‘बाप वाली बात’ शीर्षक से एक विडियो जारी किया है जिसमें जन्मदाता पिता को बेटियों को संरक्षण देने के साथ-साथ उन्हें योग्य बनाने का प्रयास भी शामिल है। यानि पिता की सोच जब सकारात्मक होगी तो बेटों की सोच में भी बदलाव आएगा। बेटे अपनी बहनों का सम्मान करना सीखेंगे और महिलाओं के प्रति आदर भाव रखना जानेंगे। इससे बेटे-बेटियों दोनों की परवरिश और बेहतर भविष्य का निर्माण होगा। देशभर में अनेक स्वयं सेवी संस्थाएं चल रही हैं जो बेटियों को पढ़ा-लिखा कर आगे बढ़ाने में सहायक हो रही हैं।महिलाओं को भी यह जानना होगा कि देश में कौनसी कानून व्यवस्था उनके हित और सुरक्षा हेतु बनाई गई हैं। मसलन, कार्यस्थल में आंतरिक शिकायत कमिटी का गठन, जिसमें कर्मचारियों द्वारा किया गया दुर्व्यवहार और गाड़ी में किया गया यौन शोषण दर्ज़ किया जा सकता है। सोशल वेबसाइट्स पर उन्हें परेशान करने वाली तस्वीरें या टिप्पणियाँ भी आई टी ऐक्ट के अंतर्गत अपराध है। कानून के तहत ऐसे अनेक कदम उठाए गए हैं, जिनसे महिलाओं की सुरक्षा बढ़ेगी, अतः समय-समय पर सेमिनार आयोजित कर स्कूल-कॉलेज में इनकी जानकारी देनी चाहिए। सुरक्षा के लिए सजग रहना आवश्यक है और सजगता शिक्षा से ही आती है। स्त्रियों के प्रति दुराचार कम हो, इसका दायित्व समाज और प्रशासन के साथ-साथ स्वयं महिलाओं पर भी है।
सच मानिये, अपनी संस्था के लिए सांस्कृतिक समन्वयक के रूप में कार्यरत मैंने देखा है, समाज में अद्भुत सोच विकसित हुई है। लड़कियां जुडो-कराटे सीखने के साथ मूर्ति बनाने की कला तक में पारंगत होना चाहती हैं। पढ़ाई-लिखाई में तो लड़कों को पछाड़ ही रही हैं। कई एक प्रतियोगिता में तो सफल प्रतिभागी केवल लड़कियां होती हैं। लड़कों को भाग लेने के लिए पुश-अप करना होता है, जबकि लड़कियाँ स्वयं आगे आना चाहती हैं।
यह परिवर्तन बेटियों के सुखद भविष्य की ओर इंगित करता है। जिन परिवारों ने एक बेटी के बाद ही संतान-सुख पर रोक लगा ली हैं, वे ज्यादा प्रोग्रेसिव विचारधारा वाले हैं। बेटियां आने वाले दिनों में परिवार चलाने वाली मुख्य स्तम्भ बनेंगी। उनमें परिवार को जोड़कर रखने वाली संवेदनशीलता है और अपने शोषण के विरुद्ध आवाज़ बुलंद करने वाला संकल्प। बस उन्हें बेटों जैसा न पालें, बेटी के दायरे में रखकर तेज और बलवती बनाएँ।
– डॉ. कविता विकास