कथा-कुसुम
बुलाकर देखो
उसने आज फिर पीछे से एक आवाज़ सुनी है, ‘जिज्जी…गोदी ले लो।‘ उसे अपने कान बजते से लगते हैं। भरी सड़क पर यह आवाज़ कैसी? उसने आस-पास मुड़कर देखा है। कहीं उसका भरम तो नहीं है? नहीं, नहीं..ऐसा नहीं हो सकता। उसे तो हल्की सी खट की आवाज़ भी झट से सुनाई दे जाती है। वह अपनी उंगली से कानों को एक बार फिर साफ करती है। अचानक उसे उसी छोटे बच्चे की आवाज़ फिर सुनाई देती है…-जिज्जी, भूक लगी है। …चाचा से कहना, कल उस जगह एक कटोरी दूध और बिस्कुट रख जायें। बिस्कुट भी हाथी, चिड़िया जैसे दिखनेवाले हों। आज तौ सो जायेंगे। सूरज डूबने के बाद हम नहीं खाते।‘
वह चलते चलते ठिठक जाती है। आवाज़ पहचानने की कोशिश करती है और मानो सब कुछ स्पष्ट होने लगता है। अरे! यह तो पंकू की आवाज़ है। पिताजी को चाचा कहते थे।
आज उसे अपनी जिज्जी की याद कैसे आ गई? वह तो भूल भी चुकी थी उसे। वह खुद भी तो उस समय छोटी थी। अपने छोटे से भाई को लिये लिये घूमती फिरती थी। ये गोरा-चिट्टा रंग और साथ में गुलाबी रंगत लिये उसका मासूम चेहरा। वह पिताजी की जान था। वे उसे अपने हाथों से छोटे छोटे कौर बनाकर खिलाते थे। सुबह वह सोकर उठता था और चाचा एक कप दूध के साथ षटकोणी मोनैको बिस्कुट, अरारोट और मैदे से बने अलग अलग जानवरों, फूलों के आकार के बिस्कुट लेकर उन्हें दूध में भिगो-भिगोकर खिलाते थे।
छोटा सा तो घर था। उन दिनों बैठी रसोई का चलन था। अम्मां नहाकर, रेशमी साड़ी पहनकर खाना बनाती थीं। चौके के पास आटे से चौक लगाती थीं। उस लाइन का मतलब था कि नहाने के बाद ही चौके में जाया जा सकता था। अम्मां आराम से घर के काम करती रहती थीं। वे दोनों न बोलते हुए भी एक तरह की अनकही समझदारी के तहत अपनी अपनी ज़िम्मेदारी निभाते थे। पिताजी हर तरह से अम्मां की मदद करते थे।
पिताजी सुबह ऑफिस जाने से पहले पंकू को सुबह सात बजे थोड़ी देर के लिये घुमाने ले जाते थे। उसके बिना पंकू की सुबह की शुरुआत होती ही नहीं थी। एक दिन उसे बहुत तेज़ बुख़ार आ गया था। उन दिनों जल्दी डॉक्टर के यहां नहीं जाते थे लेकिन उसे ले जाना पड़ा। बुख़ार उतर नहीं रहा था। डॉक्टर ने कई तरह से देखा, जांचा पर वे बुख़ार की जड़ नहीं पकड़ पा रहे थे। अम्मां एक दिन उसका शरीर पोंछ रही थीं कि पंकू के शरीर पर छोटे छोटे दाने देखे। बिना विचलित हुए बोलीं, ‘अरे, इसे तो खसरा निकला है। यह छोटी माता हैं। सात दिनों के बाद खसरा हल्का पड़ता जायेगा। हम बेकार में ही दवा खिला रहे हैं।‘ पिताजी को आश्चर्य था कि डॉक्टर को कैसे पता नहीं चला? भई, सीधी सी बात थी। डॉक्टर थर्मामीटर से बुख़ार नाप रहे थे। बनियाइन उतारकर थोड़े ही देख रहे थे। वह ज़माना थर्मामीटर और नज़र उतारने का था। पंकू ढाई साल का बच्चा ही तो था। देखते देखते रात के नौ बजे तक उसका पूरा शरीर ठंडा पड़ गया था। घर में सब लोग सदमे में आ गये थे। अम्मां ने इसे माता का प्रकोप समझा था। वे धीरे धीरे सुबकते हुए कह रही थीं, ‘माता देवी, हमें माफ़ कर दो। हम ही तुम्हारा आना नहीं समझ पाये।
….तुमैं पंकू की ज्य़ादा ज़रुअत होयगी।। सो जा हाथ दऔ और बा हाथ लै लऔ। हमाई किस्मत में इत्ते ही दिन बदे थे।‘
पिताजी सन्न थे। वे हाथ बांधकर कभी पालथी मारते थे, तो कभी उकड़ूं बैठ जाते थे। उनके मुंह पर मानो किसीने ताला लगा दिया था। रात को श्मशान नहीं जा सकते थे।
रातभर सब पंकू को आखि़री बार निहारते हुए बैठे रहे थे। सुबह होते ही पिताजी पड़ोस के दूधनाथ को बुलाकर ले आये थे। उन्होंने पिताजी को धीरज दिया और दोनों बाज़ार चले गये थे। थोड़ी देर में लौटकर आये तो उनके हाथ में कच्चे बांस की छोटी सी चटाई थी। उस चटाई में मलमल का सफ़ेद कपड़ा बिछाया था। पंकू को हल्के गुलाबी रंग की धारीदार बनियाइन पहनाई, जिस पर सफेद रंग की धारियां थीं और प्लेन गुलाबी रंग की फ्रिलवाली चड्डी थी। घर में पूरी तरह चुप्पी पसरी थी।सभी के आंसू मानो सूख गये थे। इस अचानक हुई अनहोनी पर चुप रहना ही बेहतर था। अम्मां चुपचाप दूध की कटोरी और एक छोटी प्लेट में पंकू के मनपसंद बिस्कुट ले आई थीं। बिस्कुट को दूध में डुबोकर उसके निष्प्राण होठों से लगाया और पिताजी फूट-फूटकर रो पड़े। उनका रोना कि मां की आंखों से टप-टप आंसू टपकने लगे। वे बोलीं, ‘बेटा, जा दिन कौं देखबे के लिये तुमै नौ महीने पेट में रखौ थौ का? इसके बाद खुद पर नियंत्रण करते हुए उसे कच्चे बांस की चटाई में लिटाया। उस पर मलमल का सफे़द कपड़ा डाला और और चटाई को लपेट दिया था। उस पर फिर से मलमल का कपड़ा लपेटा था ताकि पंकू को चटाई चुभे नहीं। इसलिये उस लाश को सुतली से तब तक तांत्रिक ने अपना सामान बटोर लिया था और मां को दिलासा देते हुए बोला था, ‘अब सब खत्म हो गया। अब दौरा नहीं पड़ेगा। और अलख निरंजन कहता हुआ और हंसता हुआ बाहर निकल गया था।
उस समय की मुंबई तमाशबीन नहीं हुआ करती थी…लोग एक दूसरे के साथ बिना किसी अपेक्षा के खड़े होते थे। दूधनाथ ने यह कहकर रुपये लेने से इंकार कर दिया था, ‘भाभी, आप हमारे अपने हैं। पैसा वापिस देकर बेइज्ज़त मत करो।‘ उस दिन के बाद पिताजी को दौरे पड़ने बंद हो गये थे। पारिवारिक ज़िंदगी खुशग़वार हो गई थी। परिवार कमियों में तो रह सकता था, पर बीमारियों को झेलना उनके वश में नहीं था, तब भी और आज भी। उस आत्मा ने तो मानो जीना हराम कर दिया था। उससे उसका कोई रिश्ता नहीं था और कोई अपनापन भी नहीं था। किसी मृतक महिला का सपने में आने का मक़सद क्या हो सकता था? वह भी पूरे अधिेकार से।
यह सब अचानक नहीं हुआ था। निश्चित रूप से इसकी भी एक लंबी प्रक्रिया रही होगी। एक दिन वह सो रही थी कि एक आत्मा उसके पास आकर बैठ गई थी। उन आंखों में एक तटस्थता और उसके प्रति विश्वास दिखाई दे रहा था। वे दोनों चुपचाप एक दूसरे को देखती रही थीं। उस महिला आत्मा की आंखों में एक अजीब सी बेचैनी थी। वह समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या कहना चाहती थी। उनकी मृत्यु के पहले एक हल्की सी झलक देखी थी। कोई बातचीत नहीं हुई थी। वह सिर्फ़ इकतरफा और एक नज़र भर देखना ही था।
उस महिला ने तो उसे देखा भी नहीं होगा। बाद में कभी मुलाक़ात ही नहीं हुई थी। हां, शहर में उनके देहांत की ख़बर जंगल में लगी आग की तरह फैल गई थी। वह उनके चौथे पर जा भी नहीं पाई थी। पति के तबादले के बाद वैसे भी लोग बेग़ाने हो जाते हैं। कामकाज़ी महिलाओं की तो और आफ़त है। सब महिलाओं को अपने पति पर उनको छोड़ देने के असमंजस की दुधारी तलवार लटकती दिखाई देती है। खै़र…फिर उनका अचानक सपने में आना…मानो कुछ कहना चाहती हो।
एक दिन शाम को चार बजे वह सो रही थी कि वह आत्मा फिर सपने में आई थी। ऐसा लगा मानो वह हड़बड़ी में हो। उसे कुछ समझ में नहीं आया था। वह उठी थी और फिर रोज़मर्रा के कामों में लग गई थी। शाम को मंदिर गई। उस समय शाम के साढ़े सात बजे थे। आरती समापन के बाद उसने पंडितजी से पूछा, महाराज! मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। वह महिला मुझे बार बार सपने में क्यों दिखाई देती है। उनसे मेरा कुछ भी नहीं लेना-देना है।‘ इस पर पुजारी कुछ देर तक उसके चेहरे को देखते व पढ़ते रहे थे। उन्होंने उस महिला का हुलिया पूछा था। उसने उनको सब बता दिया। साथ ही वे बातें भी बता दी थीं, जो सपने में उस आत्मा से हुई थीं और उसे याद थीं। सब सुनने के बाद पंडितजी ने आंखें बंद कीं और कुछ मंत्र बुदबुदाते रहे।
पांच मिनट बाद आंखें खोलीं और बोले, ‘बहनजी, वह कोई अतृप्त आत्मा है जिसकी मृत्यु के बाद उसका पिंडदान नहीं किया गया है। …वह इस उम्मीद से आपको दिखाई देती है कि शायद आप उसकी आत्मा को शांति प्रदान करवा सकें।‘ यह सोचकर वह गंभीर हो गई थी।
घर आकर उसने अपने पति प्रमोद को यह सब बताया। इस पर वे बोले, ‘तुम जैसा उचित समझो वैसा करो। यदि तुम्हें लग़ातार यह आभास हो रहा है तो यह भी करके देख लो।‘ इसके बाद वे चुप हो गये थे। उसे ज़िंदगीभर चुप्पी से ही सामना करना पड़ा है। प्रमोद भी शायद मन ही मन डर गये थे। उसने किसीसे कुछ नहीं कहा। उस रात जब वह सोई तो यह कहकर सोई, ‘तुम सपने में मत आना। मुझे पता चल गया है। मैं जल्दी ही कुछ करती हूं।‘ इसके बाद वह आत्मा सच में नहीं दिखाई दी थी। दूसरी ओर उसने अपने खानदानी पंडितजी से इस बाबत बात की। वे बोले, ‘तुमने ज़रूर कोई सत्कर्म किये होंगे बेटी, जो वह आत्मा तुम्हारे जरिये मोक्ष पाना चाहती है। ….ऐसा करते हैं कि गुरुवार सबसे अच्छा दिन है। उस दिन ये शुभ काम कर देंगे।‘ यह सुनकर वह बहुत खुश हुई थी कि कोई तो है जो उससे मोक्ष की अपेक्षा रखता है। दो दिन बाद गुरुवार था। वह पूजा की तैयारी करने लगी थी। कंगाली में आटा गीला होना ही था और ऍन गुरुवार को उसकी माहवारी शुरु हो गई थी। वह मन ही मन झल्लाई, ‘सत्यानाश हो गया। यह कैसा अपशकुन हो गया? उसने घबराहट में पंडितजी को फोन किया था। यह तो अच्छा था कि उन्होंने ही फोन उठाया था। वे घर में ही थे। उसने बडे संकोच के साथ अपनी माहवारी की बात बताई और साथ ही कहा, ‘यदि आज यह काम टल गया तो टलता ही जायेगा।‘ इस पर वे बड़ी सहज आवाज़ में बोले थे, ‘घबराने की बात नहीं है। आप पानी में हल्दी मिलाकर एक ही बार में तीन बार उस पानी से स्नान कर लें। हल्दी शुद्ध मानी जाती है। पिंडदान तो आज ही करेंगे।‘
उनकी बात से तसल्ली हुई थी कि चलो…उसके हाथों एक आत्मा को तो मोक्ष मिलेगा। उसने गायत्री मंत्र का जाप करते हुए स्नान किया और उसके बाद पूजा की तैयारी शुरु कर दी थी।
उसने कोरा व्रत रखा था। खाना पूरी तरह उसी प्रकार का बनाया था, जैसे पितृपक्ष में बनाते हैं। उस खाने में आलू, अरबी, भिंडी, काशीफल की सब्ज़ी, उड़द की दाल की कचौड़ी, पूड़ी और चिंरौंजी डाले हुए दूध का समावेश था। ठीक दस बजे पंडितजी आये थे। उन्होंने समय गंवाये बिना पूजा की जगह तय की र्और पूर्वजों का आवाहन करना शुरु कर दिया था। उसके साथ ही मंत्रोच्चार करते हुए और पिंडदान की सामग्री तैयार करके उस अनजान आत्मा को समर्पित किया था। वह सारा कार्य करते करते दोपहर के बारह बज गये थे। उसके लिये यह सारा कारज नया था। उसे कभी यह सब भी करना पड़ेगा, उसने सपने में भी नहीं सोचा था। वह किसी अंतरात्मा की शान्ति का निमित्त बनेगी, यह सोचकर ही उसकी अंतरात्मा को शान्ति मिली थी। पंडितजी ने कहा, ‘पिंडदान की सामग्री आप समुद्र में विसर्जित कर दें। वह सबसे सही जगह है।‘ उसने हामी भरते हुए पंडितजी को अपनी क्षमता के अनुसार दान-दक्षिणा देकर विदा कर दिया था।
उनके जाने के बाद उसने उस खाद्य सामग्री को थैली में रखा और समुद्रकी ओर चल दी थी। वहां जाकर देखा कि समुद्र में आया हुआ ज्वार उतार पर था। उसने हाथ जोड़कर समुद्र को प्रणाम किया और घुटनों तक पानी में जाकर पिंडदान की सामग्री को विसर्जित कर दिया था। जब वह पानी में से वापिस आने लगी थी। उसी समय पीछे से एक अदृश्य आवाज़ सुनाई दी थी, ‘मत जाओ। ज़रा मुड़कर देखो, लेकिन उसने मुड़कर नहीं देखा था। उसे पंडितजी की बात याद आ गई थी। वे घर से जाते समय चप्पल पहनकर बोले थे, ‘जब समुद्र में पिंडदान की सामग्री अर्पित की जाती है, तो आत्मा की आवाज़ सुनाई पड़ती है। बस, मुड़कर नहीं देखना होता। मुड़कर देखा तो वे खुद को वापिस ले जाने की ग़ुहार लगाती हैं।‘ उसने खुद पर नियंत्रण कर लिया था और परम संतुष्टि के साथ घर वापिस आ गई थी। उसी रात वह अनाम आत्मा फिर सपने में आई थी और उसके चेहरे पर संतुष्टि का भाव था।उसकी आंखों में खुशी और होठों पर एक स्मित मुस्कान थी। कुछ देर वह आत्मा अदृश्य हो गई थी। उसने उठकर पानी पिया था और फिर सो गई थी।
बहुत दिनों के बाद उसे सुक़ून की नींद आई थी। उसने मन ही मन सोचा कि चलो, वह एक ज़िम्मेदारी से मुक्त हुई। अब वह आराम से अपना काम करेगी और अपने साथ जियेगी। उसका यह सोचना और उसी रात की भोर में वह आत्मा पुन: सपने में आयी थी और उसके पैरों के पैताने बैठ गई थी थी और फिर खड़ी होकर हल्के से मुस्कराई थी और बोली थी, ‘मैं आप पर पूरा भरोसा करती हूं। आप मुझे नहीं छलेंगी। मैं तो अब पृथ्वीलोक पर नहीं हूं। आप मेरे बच्चों और पति का ध्यान रखना। मैं जानती हूं। मेरे पति का मन बहुत चंचल हैं।….बच्चों पर से उनका ध्यान न हटे, बस, इतना ही चाहती हूं।‘ इस पर उसने कहा था, ‘ऐसा दुस्साहस मैं कैसे कर सकती हूं? मेरा अपना परिवार है। कहीं कोई ग़लतफहमी न हो जाये।’
इस पर वे यह कहते हुए अदृश्य हो गईं, ‘उसकी आप चिंता न करें। परिवार ऐसे नहीं टूटा करते। मैंने अपने छोटे से परिवार का ध्यान रखने के लिये कहा है, शादी करने के लिये नहीं।‘
यह सुनकर वह चुप हो गई थी। दुविधा में फंसकर रह गई थी…क्या करे और क्या न करे। उसे लग रहा था कि शायद उस आत्मा ने अपने पति को भी इस बात की भनक दे दी थी कि बच्चों का खयाल कौन रख सकता था। एक अपरिचित हाथ उसकी ओर मित्रता का हाथ बढ़ा रहा था और उसने अपने हाथ का हल्का सा स्पर्श दे दिया था। मानो कहा हो, ‘घबराईये मत। मुझसे जितना हो सकेगा, आपके बच्चों का ध्यान रखूंगी। अपने बच्चों का भी तो ध्यान रखती हूं न।‘ इस तरह से उन दोनों के बीच मित्रता प्रगाढ़ होती जा रही थी।
इसी बीच उस आत्मा के पति का तबादला दूसरे शहर में हो गया था। नया शहर, नये लोग, नई महिला मित्रों ने उन्हें अपना लिया था और मानो उन पर अपना प्यार लुटा देने की होड़ सी लग गई थी। अब उससे नाममात्र की ही बात हो पाती थी। 2 मिनट…3 मिनट के फोन के बीच वह क़तरा क़तरा दोस्ती निभा रही थी। उनके बच्चे बड़े हो गये थे। उनसे बहुत कम बात हो पाती थी।
हां, उन्हें यह पता था कि संकट की घड़ी में वे अपनी उस आंटी को याद कर सकते थे। प्रगाढ़ मित्रता औपचारिकता में बदलती जा रही थी। सही भी था। उन्हें दोस्ती में, बातों में नवीनता चाहिये थी। वह इतनी दूर से भला कितना वक्त़ दे सकती थी। यह भी कड़वा सच है कि पुराने संबंधों को मज़बूत करने में पुरानी मित्रता के मांजे को काई पोचे करने की कोशिश की जाती है। यह क़वायद बाक़ायदा की जा रही थी और कई मायनों में पूरी भी हो रही थी। उसने अपने रिश्ते का एक सिरा पकड़ रखा था। हां, अब वह अपनी ओर से कोई फोन नहीं करती थी। पता नहीं, वे अपनी नई मित्र के साथ हों और एक-दूसरे को समझने-समझाने की प्रक्रिया पूरी कर रहे हों। उसने अपनी ज़िम्मेदारी की इतिश्री मान ली थी। एक रात को वह आत्मा पुन: सपने में आई थी और बोली, ‘आपका सफर पूरा हुआ है, ख़त्म नहीं। मेरे पति भटकें नहीं, इसका पूरा खयाल आपको रखना है।‘ यह कहकर वह फिर अदृश्य हो गई थी। वह फिर दुविधाग्रस्त हो गई थी। आत्मा-अंतरात्मा के संवाद को अनदेखा भी तो नहीं किया जा सकता था।
वे आत्माएं कव्वे, चिड़िया और मैना के रूप में घर की बाल्कनी में आने लगी थीं। वह कव्वा सुबह सुबह आठ बजे आ जाता था। कांव..कांव…कांव…आवाज़ का वॉल्यूम बढ़ता ही जाता था। जब तक वह एक कटोरी में कुरमुरे, सींगदाने या पुलाव और दूसरे कटोरे में पानी न रख दे, उसे चैन से बैठने नहीं देते थे।
मज़ा तो तब आता था, कटोरी रखते ही कव्वा तिरछा होकर, हवा में तैरता हुआ कटोरियों के पास पहुंच जाता था। यदि वह उसेक ब्रेड देती थी तो वह गले से ग़र्र..ग़र्र…जैसी आवाज़ निकालकर गर्दन फिरा लेता था।
वह अपने पेट में अनाज सबसे बाद में डालती थी। ये अबोले पक्षी, जो इंसानी भाषा नहीं बोल सकते, उनका पहले खयाल रखती थी। जब वह लिविंग रूम में नहीं होती तो वह कव्वा रसोईघर की खिड़की पर आता था। यदि वह वहां होती तो ग्रिल पर आकर चुपचाप बैठ जाता था। वह चिल्लाता नहीं था, बल्कि दबी हुई आवाज़ में ग़र्र…ग़र्र बोलता था। मानो कह रहा हो, ‘मैं बहुत भूख़ा हूं। कुछ भी दे दो, चलेगा।‘ इस प्रकार वह लग़ातार अपनी उपस्थिति का आभास देता रहता था। वह मले हुए आटे का टुकड़ा दे देती थी और वह उसे चोंच में दबाकर सामनेवाले पेड़ की डाल पर पत्तों के बीच छिप जाता था। यदि वह व्यस्त होती तो कह देती थी, ‘अभी कुछ नहीं है खाने को। बाद में आना।‘ कव्वा बहुत समझदार और चालाक होता है। वह इंसानी ज़ुबान समझता था और उड़ जाता था। सामनेवाले पेड़ पर जाकर बैठ जाता था। जब वह रोटी सेक लेती तो पेड़ की ओर देखकर कहती थी, ‘आओ’ और पता नहीं वह धीरे से बोला शब्द कैसे सुन लेता था और दूसरे ही पल उड़कर आ जाता था। वह रोटी का टुकड़ा लेकर चला जाता था और सामनेवाली मुंडेर पर बैठकर खाने लगता थाहै। कभी कभी ग्रिल पर ही पंजे में अड़ाकर खाता है। यदि रोटी कड़क हुई तो बार बार उसकी ओर देखता था। वह समझ जाती कि उसे खाने में तक़लीफ हो रही थी। उसके बाद भी अनदेखा करने के बाद वह ग्रिल से अपनी चोंच को ग्रिल से रगड़ता था। वह समझ जाती कि उसे पानी चाहिये। वह प्लास्टिक के बर्तन में पानी उसके आगे करती थी और बूंद-बूंद करके पानी पीता था, अपनी चोंच तर करता था और तिरछा होता हुआ उड़ जाता था।
वह सुबह अपनी खिड़की से सिर टिकाकर बैठी थी कि चार-पांच मैना आकर बैठ गई थीं और कर्र..कर्र की आवाज़ से बाल्कनी गुलज़ार कर रही थीं। वे भी भूखी थीं। उसके उठते ही वे फुर्र से उड़ गई थीं। उसने कटोरी में रात की बची रोटियों में हल्का सा घी लगाकर उसके टुकड़े डाल दिये थे और मुंडेर पर चावल बिखरा दिये थे।
मज़ेदार बात…एक मैना उसके घर के साथ लगे ट्यूबलाइट के खंभे पर बैठकर अपने समुदाय को बुलाने लगी थी। देखते देखते सात-आठ मैना चावल और रोटी पर टूट पड़ी थीं और बड़े अनुशासित तरीके से। ये मुंबई की मैना थीं। नीचे चावल के कुछ दाने गिर पड़े थे..सो गौरैया चिड़िया फुदक-फुदककर चावल खा रही थीं। यह सब देखकर उसे बहुत अच्छा लग रहा था। जब मैना का समूह खा रहा होता है तो ग्रिल के ऊपर के हिस्से में कव्वा असहाय सा बैठा रहता था। मानो इंतज़ार कर रहा हो कि कब वे आफ़त की परकाला उड़ें और वे अपने पेट भरें। पिताजी चिड़ियों के लिये बाजरा डालते थे और तसले में पानी रखते थे। कबूतर और चिड़ियों के लिये मानो लंगर का काम करता था।
उनकी चीं..चीं और गुटरगूं को सुनकर अम्मां हंसकर कहती थीं, ‘कैसी कचर कचर कचरियां पकाय रही हैं। मानौ बातें कर रई होंय।‘
इसी के विपरीत वह देखती कि जब उसके घर की बाल्कनी और खिड़की बंद होती थीं और लाइट बंद होती थी तो ये पक्षी समझ जाते थे कि वह घर में नहीं है। वरना खिड़की ज़रूर खुलती और लाइट ज़रूर जलती। उसे अंधेरे में बैठना बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। ये पक्षी उसके हाथ के अलावा किसी के हाथ से नहीं खाते हैं। ये अबोले हैं तो क्या हुआ? खिलानेवाले की नज़र और खिलाने का ढंग पहचानते हैं। वह सोचती कि पक्षी बुलायें तो वह खिड़की खोले और पक्षी सोचते हैं कि खिड़की खुले तो वे उससे खाने को मांगें। आत्माएं बोलती हैं…बुलाकर तो देखें…..!
– मधु अरोड़ा