लेख
‘बा’ …तुम्हें सलाम! -प्रतिभा नैथानी
अपने नाम का शाब्दिक अर्थ ‘भाग्यवान’ किंतु उन दिनों दुर्भाग्यग्रस्त हुमायूँ उस दिन भाग्यशाली था, जब अमरकोट सिंध में उसकी बेगम हमीदा बानो ने एक पुत्र को जन्म दिया। यूँ हुमायूँ बादशाह था मगर उन दिनों गर्दिशों का। पुत्र जन्म की ख़ुशी में उसके पास उस वक्त अपने वफादार सरदारों में बाँटने को कुछ भी न था। उसने अपने एक सेवक से तस्तरी मँगवाई और उसमें एक छोटी-सी कस्तूरी फोड़कर सब को बाँट दी। कस्तूरी की महक से आह्लादित बादशाह हुमायूँ समेत सब सरदारों ने दुआ माँगी कि जिस तरह इस छोटी-सी कस्तूरी की ख़ुश-बू चारों तरफ फैल रही है, उसी तरह इस नन्हे बालक की कीर्ति भी दिग-दिगंत तक फैलती रहे। जब भी कस्तूरी शब्द सुनती हूँ या पढ़ती हूँ तो मुझे हुमायूँ के बेटे बादशाह अकबर के जन्म का यह किस्सा ज़रूर याद आता है और इस किस्से से यह भी याद आ जाता है कि ऐसी ही कस्तूरी 11 अप्रैल 1869 को पोरबंदर, काठियावाड़ में गोकुलदास मकन जी के घर भी महकी थी, जिसने महात्मा गांधी की पत्नी के रूप में संपूर्ण राष्ट्र की ‘बा’ बनकर अपनी सुगंध से हमेशा के लिए दक्षिण अफ्रीका और हिंदुस्तान के कोने-कोने को महका दिया। यूँ हमेशा देखा जाता है कि किसी महान व्यक्तित्व के आगे उसके समर्थकों का अस्तित्व गौण हो जाता है। उनके बड़े से बड़े कार्यों की चर्चा भी इतिहास में नहीं होती है। लोगों को बस उनका नाम भर याद रख लेना ही काफी लगता है, किंतु कस्तूर ‘बा’ के मामले में इतिहास ने कोई ग़लती नहीं की। ‘कस्तूर’ गाँधी जी से उम्र में छह महीने बड़ी थीं।
सात वर्ष की आयु में गाँधी जी के साथ उनकी सगाई हो गई थी और तेरह वर्ष की आयु में विवाह। बालक मोहन की माँ पुतलीबाई और करमचंद गाँधी धर्मपरायण व्यक्ति थे। करमचंद गाँधी राजकोट रियासत के दीवान के रूप में पद-प्रतिष्ठा प्राप्त व्यक्ति थे। उनकी पत्नी पुतलीबाई को भी वाकपटु और बुद्धिमती महिला के तौर पर राजमहल की स्त्रियों के बीच बहुत सम्मान प्राप्त था। सो, उनका पुत्र मोहन भी विद्यालय जाने वाला, शिक्षा के महत्व को समझने वाला किशोर था। किंतु उस वक्त भारतीय समाज के असंख्य कन्याओं की तरह ही कस्तूर विद्यालय का मुँह न देख सकी और विवाह के वक्त तक वह निरक्षर थी। मोहन, कस्तूर से बहुत ज्यादा प्रेम करते थे, क्योंकि कस्तूर के रूप में उन्हें एक दोस्त भी मिल गई थी। पढ़ना-लिखना सिखा देने के रूप में वह अपनी प्रिय दोस्त को जीवन भर के लिए सबसे सुंदर तोहफा देना चाहते थे क्योंकि कस्तूर उनकी प्रेयसी भी थी और पत्नी भी। कस्तूरबा को साक्षर बनाने के लिए पढ़ाई-लिखाई के बहाने दोनों को साथ गुजारने के लिए और अधिक वक्त मिल जाने का यह कोमल और नेक इरादा फिर भी परवान न चढ़ सका।
दिन में घूंघट वाली कस्तूर से मिलने के लिए मोहन के पास कोई और रास्ता और ‘रीत’ न था। इसलिए रात में वक्त मिलने पर पढ़ाई-लिखाई एक तरफ रख उन्हें कस्तूर के लिए सिर्फ ‘प्रीत’ ही सूझ पाती थी। गाँधी जी कहते हैं कि यदि मेरा प्रेम दूषित न होता, कस्तूर भी मेरी माँ पुतलीबाई की तरह ही विदुषी स्त्री होती। तब तो दिन-रात ऐसे ही निकल गये लेकिन फिर गाँधी जी को अपनी भूल का अहसास हुआ तो उन्होंने घर पर अध्यापक की भी व्यवस्था करवा ली, जो कस्तूर को पढ़ा सके। किन्तु घर-गृहस्थी के चक्कर में पड़कर वो हमेशा पढ़ने के प्रति आलस कर जातीं और इस तरह वह मुश्किल से पत्र लिखने और गुजराती समझने तक ही सीमित रह गईं। गाँधी जी ने अपनी पढ़े-लिखे होने के अहंकारवश एक बार उन्हें बुद्धिहीन, अनपढ़ कहकर भी बुरी तरह कोसा था। किन्तु कस्तूर को अपने अज्ञान से असंतोष न था। उनमें आत्म सम्मान की भावना थी और वह पढ़े-लिखे मोहन को उनके हाल में छोड़कर अपने माता-पिता के घर चली गयीं। तब तक मोहन, कस्तूर की तुलना कबीर जैसे अनपढ़ विचारक से ही कर पाते होंगे शायद! जिनके पास एक बार एक व्यक्ति सलाह लेने गया कि दांपत्य बंधन में बंधना कितना सही है और कितना ग़लत? कबीर ने उसे बिना कोई जवाब दिए अपनी पत्नी को आवाज़ दी कि ज़रा लालटेन जला कर लाओ। पत्नी ने तुरंत लालटेन जलाकर कबीर के सामने धर दी। यहाँ पत्नी ने तो कुछ नहीं पूछा किंतु उस व्यक्ति ने कबीर से हैरानी जताना आवश्यक समझा कि – ‘महोदय दिन के प्रकाश में आप लालटेन जलवाते हैं’, क्यों? कबीर ने कहा दांपत्य जीवन में पति-पत्नी निर्विरोध एक-दूसरे की बात मानते हुए चले जाते हैं तो विवाह करना सुखमय है, अन्यथा नहीं। युवक संतुष्ट हुआ अपनी उलझन का हल पाकर। पर मैं संतुष्ट से कहीं ज्यादा ‘प्रसन्न’ हो गई कि कस्तूर ने मात्र अनपढ़ शब्द में ही कबीर की बराबरी नहीं की वरन दर्शन में वह कबीर से भी आगे निकल गई, क्योंकि पत्नी होने के कारण हमेशा गाँधी के पदचिह्नों पर चलने वाली कस्तूर ‘बा’ ने अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिए कभी उनकी अगुवाई स्वीकार नहीं की, जबकि वो गाँधी जी से अगाध प्रेम करती थीं।
सच कहते थे गाँधी जी कि- ‘शुद्ध प्रेम के लिए कुछ भी असंभव नहीं’। एक बार स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान जब कस्तूर ‘बा’ जेल में थीं, तो वहाँ उनके साथ एक तेरह-चौदह बरस की बालिका भी थी। उससे जेल वाले बहुत कठिन काम करवाते थे। कस्तूर ‘बा’ ये सब देखकर दु:खी हो जातीं। इसलिए वो उस लड़की के हिस्से का सारा काम कर देतीं और बदले में उससे पढ़ना-लिखना सीखतीं। इस तरह जेल के दिनों में उन्होंने गाँधी जी के नाम अपना पहला ख़त लिखा। गाँधी जी को यकीन न आया। मगर बाद में उन्होंने प्रसन्न होकर कस्तूर और उस लड़की को शाबाशी दी कि जो काम मैं न कर सका, वो इस लड़की ने कर दिखाया।
कभी पढ़ाई से मन चुराने वाली ‘बा’ अपने अन्तिम समय में भी अंग्रेजी सीखने का प्रयत्न कर रहीं थीं, ये बात बहुत से लोगों के लिए उसी तरह प्रेरणादायी साबित हो सकती है, जिस तरह उनके कार्य हमेशा बापू को प्रेरित करते रहे।
दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान जब तक कि बैरिस्टर गाँधी का राजनीति और आंदोलनों से कोई नाता न था, कस्तूर ‘बा’ ने वहाँ बसे भारतीयों से अमानवीय हालातों में काम कराए जाने के खिलाफ एक जन आंदोलन छेड़ दिया। इसमें उन्हें 3 महीने की जेल हुई। यहीं से गाँधी जी को अपनी स्त्री से प्रेरणा मिली और उन्होंने अश्वेत लोगों के प्रति श्वेत लोगों की अश्वेत मानसिकता का सत्याग्रह के माध्यम से विरोध करना शुरू किया। दक्षिण अफ्रीका के उन्हीं दिनों में उन्होंने ‘फिनिक्स’ नाम के एक आश्रम की स्थापना की। आश्रम में एक दिन एक व्यक्ति के पेशाब के बर्तन को अपने हाथ से उठाने की अनिच्छा जाहिर करने पर गाँधी, कस्तूर ‘बा’ पर बहुत क्रोधित हुए और उन्हें लगभग घसीटते हुए दरवाजे तक ले आए कि यदि आश्रम के इस काम के प्रति तुम ऐसा रवैया रखती हो तो अभी इस आश्रम से निकल जाओ। बा ने कहा ‘मेरे माता-पिता का घर यहाँ नहीं है। होता, तो मैं ज़रूर चली जाती। इसलिए मेरी मजबूरी है कि मुझे तुम्हारी बात माननी ही पड़ेगी क्योंकि मैं तुम्हारी पत्नी हूँ’। गाँधीजी के हृदय में यह बात तमाचे की तरह लगी कि वास्तव में विवाहित महिलाएं कितनी मजबूर होती हैं अपने पति की हर बात मानने के लिए।
ऐसा नहीं है कि ‘बा’ को आश्रम और आश्रम के लोगों से लगाव न रहा हो, बल्कि आश्रम में रह रहे हर व्यक्ति की आवश्यकताओं का ख़याल रखने की ज़िम्मेदारी बा ने स्वयं ही अपने ऊपर ले रखी थी। पर कौन जानता है कि तब आश्रम में कौन-कौन रहता था, जिससे पूछा जाए कि आपके लिए ‘बा’ और ‘बापू’ ने कोई कमी तो नहीं रखी?
हाँ, मैं जानती हूँ जो गवाही देते हैं मोहनदास करमचंद गाँधी और कस्तूर गाँधी के सच्चे अर्थों में ‘बापू’ और ‘बा’ कहलाने के। 1941 में पेशावर कांड के महानायक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली की बेटी माधवी का जन्म आनन्द भवन में हो तो गया क्योंकि उनके परिवार की देखभाल का जिम्मा नेहरू जी ने लिया था, किंतु इलाहाबाद का यह समृद्ध, धनी नेहरू परिवार ग़रीबी और गुलामी में फर्क नहीं समझता था शायद। सो, उन्होंने गढ़वाली जी की पत्नी के साथ नौकरों जैसा सलूक किया। फिर जाने कैसे उनकी मुलाकात गाँधी जी से हो गई और उनके अनुरोध पर ‘बा’ उन्हें साबरमती आश्रम ले आईं। वहाँ गढ़वाली जी की बेटी माधवी बिष्ट बताती हैं कि आश्रम में जब कुछेक बार उन्हें दूध न मिल पाया और ‘बा’ से बापू ने पूछा- ‘गढ़वाली जी की नन्हीं-सी बच्ची के आज भूखी क्यों रही’? आश्रम में रहने वाले व्यक्ति के भूखे-प्यासे न रह जाने की जिम्मेदारी क्या हमारी जिम्मेदारी नहीं’?
फिर दूध की कमी का क्या हुआ? पता नहीं, लेकिन ‘बा’ ने सब आश्रमवासियों को माँ का प्यार देने में फिर कभी कोई कमी न की। आश्रम तो आश्रम फिर गाँधी जी भी कस्तूर को ‘बा’ अर्थात माँ ही कहने लगे, जब गाँधी जी ने सैंतीस वर्ष में आयु में एकतरफा ब्रह्मचर्य का व्रत ले लिया। और ‘बा’ भी उन्हें बापू ही कहने लगी थी कि अचानक पचास वर्ष की आयु में गाँधी जी को रवीन्द्र नाथ टैगोर की भतीजी सरला देवी चौधरानी से प्यार हो गया। शांति निकेतन परिवार की थीं वो आखिर! साहित्य, संगीत, कला की ज्ञाता और सबसे ख़ास कि वह भाषण बहुत अच्छा दिया करती थीं। गाँधी जी लाहौर में कुछ दिन उनके पास ठहरे थे, जहाँ उन्होंने सरला देवी को ख़त लिखकर स्वीकार किया कि तुम मेरे दिल में शिद्दत से समाई हुई हो। गाँधी जी की आदत थी कि वह हर अच्छी, बुरी बात को लिखकर या बोलकर किसी और को भी बता दिया करते थे। इस बार उन्होंने अपने समधी चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को यह बात बतायी कि उन्हें सरला देवी से प्यार हो गया है। राजाजी को जहाँ यह बात बहुत ख़राब लगी, वहीं गांधी जी ने एक कदम और आगे बढ़कर इसे वैचारिक या आध्यात्मिक विवाह की संज्ञा दे डाली।
किंतु ‘जहाँ संस्कार बलवान होते हैं, वहाँ सिखावन फालतू चीज़ है’ गाँधी जी की ही कही इस बात को ‘बा’ ने उन्हीं के सोचने-समझने के लिए छोड़ कर इस मुद्दे पर चुप्पी साध कर रखी। ‘बा’ के विश्वास और निष्ठा के प्रति गाँधी जी ने नतमस्तक होते हुए कुछ वक्त के बाद इस रिश्ते से सचमुच दूरी बना ली कि ‘बा’ को दुख न पहुँचे। गाँधी जी सरला देवी के भाषण देने की कला से बहुत प्रभावित थे तो क्या! 9 अगस्त 1942 को जब गाँधी जी की शिवाजी पार्क में एक बहुत बड़े जन समुदाय को संबोधित करने की तैयारी चल रही थी मगर अंग्रेजों ने उससे पहले ही उन्हें बिड़ला हाउस से गिरफ्तार कर जेल भेज दिया, तब संकट आया कि इतने बड़े जन समुदाय को अब कौन संबोधित करेगा?
‘बा’ ने कहा- ‘मैं संबोधित करूंगी’ और उन्होंने फटाफट सुशीला नैयर से अपना भाषण टाइप करवा लिया। इस तरह बापू का विकल्प बनते हुए उन्होंने मुंबई के शिवाजी पार्क में डेढ़ लाख लोगों के सामने जीवन का पहला भाषण दिया। उनका भाषण बहुत भावपूर्ण था। जहाँ भाषण ने लोगों में एक तरफ जोश भर दिया तो दूसरी तरफ लोगों की आँखें नम भी हो गईं। भाषण के तुरंत बाद वहीं से अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर आगा खान पैलेस पहुँचा दिया। उसी जेल में गाँधी जी के सचिव महादेव देसाई की मृत्यु के सदमे से ‘बा’ की तबीयत बहुत ज़्यादा बिगड़ गई तो ब्रोंकाइटिस के इलाज के लिए उन्हें पेनसिलीन के इंजेक्शन लगवाने की सलाह दी गई, किंतु गाँधी जी ने मना कर दिया, क्योंकि उन्हें यह प्राकृतिक चिकित्सा के ख़िलाफ़ जान पड़ता था। गाँधी जी के सिद्धांतों की रक्षा हुई कस्तूर की जान लेकर। कस्तूर ‘बा’ के लिए उनके बेटे देवदास गाँधी पेनसिलीन का इंजेक्शन ले भी आए थे, तब गाँधी जी ने कहा कि यदि कस्तूरबा अपनी मर्जी से इंजेक्शन लेना चाहे तो मैं मना नहीं करूँगा।
मगर कस्तूर ‘बा’ को नियति ने हाँ, ना कहने का मौका ही नहीं दिया और वो उसी सुबह तड़के गाँधी जी को सत्य, अहिंसा के साथ सदैव के लिए अकेला छोड़ गयीं। गाँधी की चिता के लिए संजो रखी गई लकड़ियों पर ही ‘बा’ की चिता बनायी गयी। कारावास के दौरान गाँधी जी के 21 दिन लंबे उपवास पर अंग्रेजों ने सोच लिया कि गाँधी जी इस बार बचेंगे नहीं, तो उन्होंने गाँधी जी की चिता के लिए पहले से ही चंदन की लकड़ियों का इंतजाम कर रखवा दिया था। पर गांधीजी बच गए तो चंदन की लकड़ियाँ भी बच रहीं। ‘मेरे लिए जो लकड़ियाँ रखवाई गई हैं उन्हीं पर कस्तूर को अंतिम विदाई दी जाएगी’ कहते हुए गाँधी जी ने कई लोगों द्वारा ‘बा’ के लिए चंदन की लकड़ियाँ देने का आग्रह ठुकरा दिया कि वो बहुत महँगी होती हैं।
चंदन और कस्तूर!
चिता जलती है बेश़क मगर श्रद्धा से मन कैसा मह-मह हो जाता है ना ‘बा’ के प्रति।
बापू की आज्ञानुसार समस्त गहनों का परित्याग भले ही कर दिया ‘बा’ ने मगर उनके ही अनेक बार कहने पर भी पति-परायण कस्तूर ने अपने हाथ की काँच की चूड़ियाँ मरते दम तक न उतारीं। ‘इस बूढ़ी का कितना मन है इन चूड़ियों में’ यही कहा था तब बापू ने ‘बा’ को प्यार से। देह राख हो गई मगर कस्तूर की चूड़ियाँ गलाने का साहस न कर पायीं चंदन की लकड़ियाँ।
अकेले रह गये मोहन ने संभाल कर रख लीं वो चूड़ियाँ ‘कस्तूर-मन’ मानकर ।
– प्रतिभा नैथानी