संस्मरण
बालकवि बैरागी जी
अजीब सा लगता था मुझे उनका व्यक्तित्व ,इसलिए कि जब देने पर आएं तो इतना स्नेह दें और जब किसी पर बरस पड़ें तो ज़रा ज़रूरत से ज़्यादा ही! मैंने बैरागी जी का बहुत स्नेह पाया है किन्तु दूरदर्शन के सिंह द्वार पर अपने साथ जाते हुए हस्ताक्षर-रजिस्टर में हस्ताक्षर करने के लिए कहने को उनका उस बंदे को डाँटता हुआ स्वरूप भी मैं नहीं भूल पाई।
बैरागी जी से मेरी मुलाकात तब हुई थी जब मैं मुज़फ्फरनगर में या तो एम.ए के प्रथम वर्ष में थी अथवा बी.ए के आखिरी वर्ष में कुछ ठीक से याद नहीं आ रहा है। एक मित्र थे ,वकील ,जिनका नाम संभवत:सुखपाल सिंह था,अब तो वे इस दुनिया में रहे भी नहीं हैं। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करें। उन्होंने वकालत के बाद अंग्रेज़ी में एम.ए करने के लिए कॉलेज में प्रवेश लिया था। उनके ही एक सीनियर वकील मित्र थे जिनके घर पर सबसे पहले मैंने युवा बैरागी जी के दर्शन किए थे। सुखपाल सिंह जी हमसे सीनियर थे किन्तु हम सब साहित्य में रूचि रखने के कारण एक-दूसरे के अच्छे मित्र थे। ये उन दिनों की बात है जब लड़के व लड़की की मित्रता को आसानी से स्वीकार नहीं जाता था। बचपन का काफ़ी हिस्सा दिल्ली में बीता था, माता-पिता शिक्षित थे सो मुझे बहुत कठोर नियंत्रण में नहीं रखा गया था। माँ-पापा दोनों के लिखने के व अन्य कलाओं में रूचि होने से मुझे बहुत फायदा हुआ है।
हाँ,तो जब सुखपाल सिंह जी ने यह सूचना दी कि बालकवि बैरागी जी मुज़फ्फरनगर में पधारे हैं तो हमें तो उनसे मिलने व सुनने जाना स्वाभाविक था पारिवारिक वातावरण था। मुश्किल से पचासेक लोग होंगे। वकील साहब ने बैरागी जी के सम्मान में एक छोटी सी पार्टी का आयोजन ही कर दिया था | तब तक मैंने उन्हें प्रत्यक्ष रूप से नहीं सुना था लेकिन मित्र सुखपाल सिंह जी कुछ ”हैं करोड़ों सूर्य ‘,’अंधे सफ़र में ‘—इस समय कुछ याद भी नहीं आ रहा है किन्तु बैरागी जी की कई रचनाएं सुनाया करते थे। अब ये भी याद नहीं आ रहा है कि उस समय बैरागी जी की कौनसी रचना सुनी थी? एक धुंध भरी स्मृति भर है ,वकील साहब का लॉन, उसमें उपस्थित शहर के गणमान्य कला-प्रेमी लोग और हम जैसे दो-चार ऐसे विद्यार्थी जो विशेष रूप से बैरागी जी को मिलने गए थे। उस समय काफ़ी बात भी हुई बैरागी जी से और अपने स्वभावानुसार उन्होंने मुझे ये भी कहा कि मैं अंग्रेज़ी में एम.ए क्यों कर रही हूँ? याद नहीं क्या उत्तर दिया होगा मैंने, बस भीतरी खुशी से नहा गए थे हम लोग उनसे मिलकर। छोटे से कद के बैरागी जी में कोई ऐसा आकर्षण था जो बरबस ही उन्हें दूसरों से भिन्न करता था।
जीवन स्वाभाविक गति से चलता रहा। माँ व उनकी मित्रों के साथ मुज़फ्फरनगर जैसे शहर में कई कवि-सम्मेलन तथा मुशायरों का आनंद लिया। यह खूब याद है जिनमें नीरज जी तथा भारत-भूषण जी का नाम इस समय याद आ रहा है। ख़ैर —बात आई-गई हो गई। विवाह के बाद गुजरात में आकर बस गए। सब कुछ जैसे एक सपना —-और कुछ नहीं ,केवल नून-तेल लकड़ी के सिवा। बरसों बीत गए शायद बीस-पच्चीस बरस या इससे भी अधिक ! इस बीच मैंने 17 वर्ष के लंबे अरसे बाद गुजरात विद्यापीठ से हिंदी में एम.ए और पी.एच डी किया। थोड़ी बहुत शिरकत आकाशवाणी व दूरदर्शन में भी शुरू हो गई। उस समय दूरदर्शन की कोई अपनी इमारत नहीं थी। साराभाई के ‘इसरो’ से थोड़ा-बहुत काम शुरू किया गया था, जिसमें मुझे भी न्योता मिलने लगा था। फिर तो शनै :शनै : दूरदर्शन के स्थानीय कार्यक्रम चलने के साथ हिंदी का भी थोड़ा बहुत काम शुरू हुआ और एक छोटी सी इमारत ने बड़ी इमारत का रूप धारण किया।
आश्चर्य तब हुआ जब एक दिन आकाशवाणी से मेरे पास फोन आया, बैरागी जी आए हैं, आपसे मिलना चाहते हैं। मेरे मन की स्मृति तो इतनी धुंधली हो चुकी थी कि मुझे जीवन के पृष्ठ पलटने में कई मिनट लग गए। जब याद आया तो मैं एक अविश्वसनीय स्थिति में पहुँच गई थी। अब तक बैरागी जी का नाम बुलंदियों पर पहुँच चुका था। उन्होंने मुझे याद किया ! आश्चर्य से भरी मैं अपने नए घर से, जो आकाशवाणी से बहुत दूर था और जहाँ से जाने के लिए कोई विशेष सुविधा नहीं थी; न जाने कैसे -कैसे बैरागी जी से मिलने आकाशवाणी जा पहुंची। आश्चर्य यह भी था कि उन्हें सब कुछ ऐसे याद था जैसे कल की ही बात हो। उसी दिन शाम को आश्रमरोड के किसी हॉल में उनका कविता-पाठ था जिसमें मैं बहुत मुश्किल से शामिल हो सकी क्योंकि वाहन की कोई व्यवस्था न थी और मेरे पति उस समय बंबई ‘ऑफशोर प्रोजेक्ट’ पर थे व बच्चे भी इतने बड़े नहीं थे कि गाड़ी चला सकें। हम तो खैर गाड़ी का स्टीयरिंग भी नहीं पकड़ सकते थे। उस दिन बैरागी जी का कविता-पाठ सुनकर रौंगटे खड़े हो गए। |हम सब परिचित हैं कि उनका कविता-पाठ श्रोता को कितना संवेदनशील कर जाता था। उधर बैरागी जी का मंच पर अभिनययुक्त कविता-पाठ और इधर श्रोताओं की आँखों से झरते आँसू!
उस दिन से फिर से बैरागी जी से एक संवेदनशील संबंध जुड़ गया। अब मेरे घर के पास ही दूरदर्शन केंद्र खुल गया था। वहाँ कई बार कार्यक्रमों में बुला लिया जाता ,बेशक कार्यक्रम गिने-चुने ही होते थे। अब बैरागी जी से कभी-कभार फ़ोन पर बात हो जाती। वे बंबई जाते तो अवश्य मुझे फ़ोन करते। कई बार अहमदाबाद भी कवि-सम्मेलन में पधारे और उनसे मुलाकात होती रहीं। एक बार फिर अचानक उनका फोन आया ;
“प्रणव !क्या कर रही हो? आज मैं खाली हूँ। तुम पर है आज कैसे समय का सदुपयोग करती हो।”
समझ में नहीं आया क्या करूँ? अब तक दूरदर्शन में बहुत पहचान हो चुकी थी और हसीना बहन कादरी उस समय हिंदी का काम सँभाल रही थीं।अब तक कई सुविधाएं हो चुकी थीं। तुरंत ड्राइवर को भेजकर बैरागी जी को घर बुलवाया, इतनी देर में हसीना बहन से बात की और बैरागी जी का दूरदर्शन में कार्यक्रम निश्चित करवा दिया। जब तक बैरागी जी आए मैं खाने का प्रबंध कर चुकी थी। बैरागी जी घर के एक-एक सदस्य ,यहाँ तक कि नौकर के नाम तक से इतनी जल्दी परिचित हो गए , लगा ही नहीं कि वे पहली बार घर में आए हैं। ख़ैर, खाना आदि खाकर हम दूरदर्शन के लिए निकले जहाँ न जाने क्यों बैरागी जी दूरदर्शन के रजिस्टर पर हस्ताक्षर करने में इतने नाराज़ हो गए कि गेट पर खड़े गार्ड से उनका झगड़ा होते होते बचा। उस बेचारे को कहाँ पता था कि उनका राजनीति से भी कुछ लेना देना है।
जैसे ही दूरदर्शन के अंदर यह भनक पहुंची, कई लोग गेट पर भागे हुए आए और उन्हें सम्मानपूर्वक अंदर ले जाया गया। इससे पहले मैंने बैरागी जी का यह रूप नहीं देखा था ,काफ़ी नाराज़ हो गए थे वे !
लगभग दो-तीन वर्ष पश्चात बैरागी जी का फिर से अहमदाबाद दूरदर्शन पर आगमन हुआ। इस बार वे सपत्नीक आए थे। राजस्थानी गोटे जड़ित लाल-सुनहरी लहँगे में उनकी पत्नी बोरला पहने सिर ढके श्रोताओं में बैठी थीं। बहुत खूबसूरत महिला जो मंद मंद मुस्कुरा रही थीं, सबके आकर्षण का केंद्र बनी हुई थीं। जब मैं श्रोताओं में जाकर बैठी ,बैरागी जी ने स्टेज से माइक पर कहा ;
“ये प्रणव श्रोताओं में क्या कर रही है?”
मुझे उस दिन वहाँ कवि के रूप में निमंत्रण तो था नहीं सो अजीब सी स्थिति हो गई मेरी ! फिर भी मुझे एक बार उन्होंने मंच तक तो बुलवा ही लिया।फिर मुझसे कहा ;
“देख ,भाभी जी को लाया हूँ इस बार। जाकर उनके पास बैठ –और तुम्हें क्यों नहीं बुलाया दूरदर्शन वालों ने?”
मैंने धीरे से बताया कि बाहर के कवि ही आमंत्रित हैं इस बार, केवल डॉ. किशोर काबरा जी के। वे कुछ भुनभुनाने लगे, जो मैं सुने बिना उनकी पत्नी के पास तेज़ी से आ गई।
उस दिन काफ़ी देर मैं बैरागी जी व उनकी पत्नी के साथ रही। बहुत कोमल सी थीं भाभी जी। उन्होंने मुझे बताया कि जब वे बैरागी जी के साथ ऐसे ही कपड़ों में मॉरिशस गईं थीं तब वहाँ कुछ लोग उनके गोटे -मोती जड़े कपड़े और गहने छू -छूकर देख रहे थे। यह बताकर वो बहुत प्यारा सा शर्माई थीं।
फिर कई वर्षों बाद मुझे पता चला कि बैरागी जी की धर्मपत्नी नहीं रहीं। मुझे काफ़ी देर में पता चला था। कुछ संकोच सा भी हो रहा था फोन करने में किन्तु हिचकते हुए मैंने बैरागी जी को फ़ोन किया। उनकी जोश-ख़रोश वाली आवाज़ बहुत दबी हुई सी लगी। बताया ,अकेला ही रहता हूँ। खाना?नौकर है। उनके बोलने का तेज बिलकुल फीका था। एक-दो बार फिर बात हुई।
अब कई वर्षों से नहीं हो पाई। दो -एक बार सोचा भी फिर यही सोचकर बात नहीं कर पाई कि क्या पूछूँगी? अब पता चला उनके निधन का ! मन पीछे न जाने कितने वर्ष पार कर गया और लगा उन्हें याद करके श्रद्धाजलि का एक दीपक जला दूँ।
नमन है बैरागी जी को जिन्होंने कभी अपनी वास्तविकता किसी से भी नहीं छिपाई और मंच पर से पूरे जोशो-खरोश से अपनी बात श्रोताओं के मन के भीतर कुछ ऐसे पहुँचाई कि वे जीवन भर के लिए स्मृतियों के दायरे में सिमटी रहें।
हिंदी-मंच व सिनेमा के सुप्रतिष्ठित कवि बैरागी जी जहाँ भी होंगे अपनी संवेदनाओं से वातावरण को प्रभावित कर एक ऐसा वातावरण ज़रूर तैयार करेंगे जिसमें आँसुओं और मुस्कान के पुष्प पल्ल्वित होते रहेंगे।आमीन !
सभी काव्य-प्रेमियों की ओर से बैरागी जी को शत-शत नमन व भावभीनी श्रद्धाँजलि! बालकवि बैरागी आज भौतिक देह से हमारे बीच नहीं हैं किन्तु उनके गीत न जाने कितने समय तक वातावरण को सुरभित करते रहेंगे |
– डॉ. प्रणव भारती