यादें
बहुत कुछ अधूरा-सा है
भावना के साथ मधुमय बंधन, तेज स्पंदन और धारा-सी बहती ये यादें, कहाँ हैं इनका ठिकाना? कहाँ जाए लेकर, कहाँ पर हैं इनको टिकाना?
खैर! यादें, वादे-इरादे सब मिल जाए तो लौटना पड़ता है। पीछे जहाँ यादें खड़ी हों और हमारा इंतजार कर रही हो। इन यादों-सी ही सुन्दर नैटाली जर्मन मूल की बेहद खुबसूरत महिला है। 21 वर्ष की आयु में भारत भ्रमण करने आई इस महिला ने पता नहीं क्या-क्या हासिल किया इस भूमि से और क्या-क्या त्याग गयी इस भूमि में। बेहद विशाल सोच के संस्कारों से सुसज्जित वह जीवन की उलझनों से दूर आहिस्ता-आहिस्ता सुलझती चली गयी। काशी आई और कैलाश शीर्ष को पा लिया। बात बन गयी, मुलाकात एक ऐसे साधक से हुई, जिनका होना सबकुछ पा लेने का एहसास था।
नैटाली और साधक अरुण शर्मा के मध्य, ग्रंथों पर चर्चाएँ होती गईं। प्रश्नों के उत्तर शर्मा जी बड़े सहज भाव से दे देते थे। नैटाली कई-कई घंटे मंत्रमुग्ध होकर सुनती और गूढ़ता से समझने की चेष्टा करती थी। नैटाली अपने जीवन के 10 वर्ष काशी को दे चुकी थी। ये रिश्ता एक सेतु जैसा था, जिसमें कई हेतु छिपे हुए थे।
लेकिन घटने का एहसास नहीं था, कुछ न कुछ जुड़ता ही जा रहा था।
फिर अचानक नैटाली को वापस लौटना पड़ा। जर्मनी जो उसका जन्म स्थल था पर दिल काशी के करीब। विचार, कर्म, उद्देश्य और अंतिम मुक्ति स्थल भी काशी ही बना। जाते-जाते वह बहुत से प्रश्नों के उत्तर ले गयी क्योंकि शायद उसके देश में उसे कभी कोई ये सुविचार उपलब्ध न करा पाता!
विदाई के समय शर्मा जी निर्विकार खड़े थे। चेहरे पर कोई उत्तेजना न थी, जैसे मिलना और बिछड़ना मधुमय होकर घुल गया हो। सब कामनाएँ जैसे ज्ञान और सत्य की वर्षा से धुल गईं हों। शर्मा जी बोले, “जाओ नैटाली, सदैव खुश रहो। जिज्ञासु बने रहो। ये खोज कभी समाप्त न होने पाए। विचारों में जियो, आचार तुम्हें सम्मानित करते रहेगा। न भी किया तो जीवन में तुष्ट रहोगी, बिना किसी कारण भी संतुष्ट रहोगी।”
वो जर्मनी लौट गयी। शर्मा जी वट वृक्ष की भाति काशी में खड़े रह गए। चाहते थे कि नैटाली न जाये पर अधिकार के सिद्धांतों से परे था ये बंधन, सो जाने दिया। लौटने का वादा लेना भी उन्होंने अनुचित समझा। मुक्त थे और मुक्त किया। याद जब चेतना बन जाती है, पथिक को मुड़ना ही पड़ता है। पर वह रुकता नहीं, मार्ग में आगे बढ़ जाता है और यादें पीछे छोड़ जाता है। नैटाली उन्हें रोज याद करती पर कभी उनका कोई भी सन्देश न प्राप्त कर पाई। शायद आज कोई पत्र आये। उसके नाम का वह पत्र चिरंजीवी होगा, अपने भावों और भावनाओं के साथ अमर होगा। ऐसा कोई पत्र कभी नहीं आया पर ये याद सार्थक थी। विचारों से बंधा व्यक्ति सहजता से यादों की ओर मुड़ जाता है। भारत लौटकर काशी जाना बहुत सुखद था। अरुण जी से मिलना प्राथमिकता थी। अरुण जी वहाँ नहीं थे। लगता है कि वह भी नैटाली की तरह परिवर्तन प्रेमी थे। शायद वे कहीं और जा चुके थे। जो परिवर्तन काशी में हुआ वह आभासी परिवर्तन नहीं था, क्षण में होने वाला धमाल नहीं, न ही कमाल, बल्कि 10 वर्षों की साधना थी!!
नैटाली गंगा के तीर में बैठे-बैठे अपने उस पीर को याद करती रही, जिसने उसे स्थिर नवचेतन से भर दिया था। आँसू बहने लगे। खोज हमें उद्देश्यों के निकट ले जाती है। शिष्टता और मर्यादा से भरा हुआ बंधुत्व हमें यादो में उत्कृष्टता देती है। चाहे कितनी भी दूरी हो!
मजबूरी हो या दूसरे जितने भी ज़रूरी कार्य हो पर हमें उनकी याद सबसे पहले आती है; जिन्होंने हमारे विचारों को पुष्ट किया हो, आधार दिया हो। जीवन को कभी-कभी यादें भी तुष्ट कर जातीं है। देखो कोई पुकार रहा है। शायद कोई व्यक्ति या विचार। जल्दी से पूरा करो अधूरा कार्य। हाँ, याद आया, बहुत कुछ अधूरा-सा है। याद आया………करना होगा पूरा।
– दोलन राय