संस्मरण
बरहज बाज़ार: एक सम्मोहक स्मृति-यात्रा
ग्रीष्मावकाश/ ईस्वी सन 1953
हमें हाथरस से लखनऊ आये एक साल हो चुका है और अब हम पूरे ग्रीष्मावकाश के लिए बरहज बाज़ार आ गए हैं। आये तो हम पिछले साल भी थे, किन्तु तब कुछ दिन ही यहाँ रह पाए थे। हाथरस से लखनऊ आकर वहाँ काफ़ी समय अम्मा को किराए के मकान आदि की व्यवस्था करने में लग गया था। बरहज का पर्यावरण और माहौल मुझे बहुत अच्छा लगा था। उस बार भी और उस सम्मोहन की मीठी-मीठी याद हृदय में सँजोये मैं आया हूँ महानदी सरयू, जिसे यहाँ घाघरा के नाम से जाना जाता है, के तट पर बसे इस छोटे-से गाँवनुमा कस्बे में। इस बार लगभग दो महीने रहना होगा और उस दौरान मैं इस नदी तट की बस्ती की प्राकृतिक सुषमा का समूचा और अंतरंग अवलोकन कर सकूँगा, उसे अपने चित्रकार मन में सँजो सकूँगा।
नदी-जल के प्रति ललक मुझमें धुर बचपन से ही रही है। गोमती तटवर्ती लखनऊ में जन्म लेने के कारण नदी के संस्कार स्वाभाविक मुझे मिले हैं। और यहाँ यह लखनऊ शहर की सिकुड़ी-सिमटी गोमती के मुक़ाबले एक विशाल पाट वाली महानदी। बाबूजी के बैंक-कम-रेजिडेंस से कुछ क़दमों की दूरी पर ही है घाघरा का विस्तृत पाट। मैं रोज़ ही नदी घाट पर चला जाता हूँ। नदी की लहरों की बतकही सुनने, उनसे बतियाने। बरसों बाद जब मैंने प्रसिद्ध जर्मन उपन्यासकार हरमेन हेस का नोबेल पुरस्कार से समादृत उपन्यास ‘सिद्धार्थ’ पढ़ा, तब नदी के इस वार्तालाप का सही अर्थ मुझे समझ में आया। अभी तो मैं इसे किसी अनजानी अजनबी बोली-बानी के रूप में ही सुन रहा हूँ। उसमें जो स्वर एवं लय-प्रसंग हैं, उन्हें अपने भीतर समो रहा हूँ। लहरें बतियाती हैं, जल बोलता है, इतना तो मैं अच्छी तरह जान गया हूँ इस नदी-संसर्ग से। नदी की प्रातः-सायं बदलती छवियों को भी मेरा चित्रकार सँजो रहा हूँ अपने अंतर्मन में। बरसों बाद जब एक कवि-लेखक के रूप में मैं सक्रिय हुआ, तब ये छवियाँ मेरी रचनाओं में अनायास ही रूपायित होने लगीं।
जैसा मैं पहले ही कह चुका हूँ, बरहज एक छोटा-सा स्थान है। यहाँ के एकमात्र बैंक इलाहाबाद बैंक की जिस पे-ऑफिस ब्रांच के बाबूजी इंचार्ज हैं, उसके आसपास ही मुख्य बाज़ार है। सीमित साधनों वाली दूकानें ऊपर के आवासीय छज्जे से सामने ही दिखाई देती हैं। बिजली नहीं है बरहज में। रोज़ चपरासी आकर ऑफिस और आवास के लिए केरोसीन लैंप और लालटेनें जला जाता है। बाज़ार में भी रोशनी केरोसीन लैम्पों से ही होती है। शाम को छज्जे पर खड़े होकर नीचे दूकानों के प्रकाश को अवलोकने का अनुभव एकदम नए किसिम का है। लगता है जैसे हम किसी स्वप्नलोक में हैं। मेरे किशोर चित्रकार मन में वह चित्र-दृश्य अंकित हो रहा है। अपने अवचेतन मन में सँजो रहा हूँ मैं उस अनूठी छवि को। बैंक का ऑफिस नीचे के बड़े हाल में छोटा-सा ही, बाबूजी के अतिरिक्त एक क्लर्क, एक चपरासी एवं एक चौकीदार, इतने ही मुलाज़िम। सभी एक दूसरे से आत्मीयता से जुड़े हुए। चपरासी का नाम मुझे अभी तक यानी उम्र के इस चौथे पड़ाव पर आकर भी याद है- उसका नाम था सत्तार। वह स्वभाव का हँसमुख व्यक्ति मेरे किशोर मन को बहुत भाया और जल्दी ही मेरा दोस्त बन गया। हाथरस में भी हमारे क्वार्टर में बिजली नहीं थी और अम्मा ने पुराने लखनऊ के कूचा कायस्थान में जो मकान किराये पर लिया है, उसमें भी बिजली नहीं है। अस्तु हमें बैंक के आवास में बिजली का न होना कोई ख़ास बात नहीं लगी, न ही इससे कोई असुविधा महसूस हुई। हाँ, पूरे बरहज कस्बे में बिजली का न होना अवश्य थोड़ा अजीब लगा।
बरहज में एक शुगर मिल है, जिसके शीरे की गन्ध यहाँ की हवा की खासियत है। शुरू में तो वह गन्ध हमें खली, किन्तु शीघ्र ही उसकी आदत पड़ गई। शुगर मिल के अतिरिक्त बरहज देसी गुड़ की भी बड़ी मंडी है। पढ़ाई की सुविधा भी एक जूनियर हाई स्कूल तक सीमित है। मेरी और मुझसे लगभग तीन साल छोटे भाई अतुल की पढ़ाई यहाँ सम्भव नहीं थी, इसीलिए अम्मा को बाबूजी से अलग लखनऊ में हम बच्चों के साथ रहना पड़ा। मैंने लखनऊ के गवर्नमेंट जुबिली इण्टर कॉलेज से फर्स्ट ईयर पास किया है और अतुल ने नाइन्थ। इस बार हम ज़्यादा समय के लिए आये हैं और मुझे वक़्त काटने के लिए अपने चित्रकला के शौक के अतिरिक्त पुस्तकें पढ़ने की इच्छा भी रहती है। सौभाग्य से एक छोटा-सा पुस्तकालय बरहज में है। बाबूजी एक दिन जाकर मुझे पुस्तकालयाध्यक्ष से मिला लाये और इस प्रकार मेरी पुस्तक-वाचन की इच्छा पूरी होती रही। लगभग दो महीने के बरहज आवास के दौरान मैंने मुंशी प्रेमचन्द के कई कहानी संग्रह और उपन्यास तथा बाबू वृन्दावनलाल वर्मा के लगभग सभी उपन्यास पढ़ डाले।
बरहज उत्तर प्रदेश के धुर पूर्वांचल में स्थित है। बिहार की सीमा से लगभग लगता हुआ। यहाँ की बोली-बानी लखनऊ की हिंदी और अवधी से बिलकुल अलग पुरबिया अथवा भोजपुरी है। शुरू में उसे समझने में कुछ कठिनाई हुई, किन्तु शीघ्र ही सत्तार की संगत में वह काफी कुछ समझ में आने लगी। उम्र के अंतिम पड़ाव में आकर भी उस बोली के एक-आध रोचक वाक्यांश मेरी स्मृति में शेष रह गए हैं। एक दिन की बात है- हमारे यहाँ दूध देने एक औरत आती थी। एक दिन सत्तार को मैंने उससे कहते सुना, “हम अच्छी तरह जानिल बा कि तुम दूध माँ पानी मिलवली।”
एक वर्ष बाद जब लखनऊ विश्वविद्यालय में बी.ए. में हिंदी के भाषा विज्ञान के पेपर में निर्धारित हिंदी की विभिन्न बोलियों के नमूने पढ़ने को मिले तो उसमें भोजपुरी के उद्धरण को समझने में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई।
महात्मा गाँधी के अनुयायी स्वतन्त्रता सेनानी बाबा राघवदास बरहज की आत्मा हैं, उसकी विशिष्ट पहचान हैं। प्लेग की प्राकृतिक आपदा से अपने भरे-पूरे संभ्रान्त-समृद्ध परिवार के विनष्ट हो जाने के बाद ईस्वी सन 1913 में सत्रह वर्ष की अल्पायु में वे पुणे (महाराष्ट्र) की अपनी जन्मभूमि त्यागकर प्रयाग, काशी आदि तीर्थों में विचरण करते हुए उत्तरप्रदेश के गाजीपुर आ पहुँचे, जहाँ उनकी भेंट मौनीबाबा नामक एक संत से हुई। मौनीबाबा ने राघवेन्द्र (बाबा का पूर्व नाम) को हिन्दी सिखाई। गाजीपुर में कुछ समय बिताने के बाद वे बरहज पहुँचे और यहाँ के एक प्रसिद्ध संत योगीराज अनन्त महाप्रभु से दीक्षा लेकर उनके शिष्य बन गए। 1921 ई. में गाँधीजी से मिलने के बाद बाबा राघवदास स्वतंत्र भारत का सपना साकार करने के लिए स्वतंत्रता संग्राम में कूद गए तथा साथ ही साथ जनसेवा भी करते रहे। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इस कर्मयोगी को कई बार जेल की हवा भी खानी पड़ी। 1931 ई. में गाँधीजी के नमक सत्याग्रह को उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के इस पिछड़े क्षेत्र में पूर्णतया सफल बनाने का श्रेय राघवबाबा को ही जाता है। अपने सामाजिक कार्यों के कारण बाबा जनता के अन्यतम प्रियपात्र बन गये। उनकी लोकप्रियता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 1948 के एम.एल.ए. के चुनाव में उन्होंने प्रख्यात शिक्षाविद, समाज सुधारक एवं स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आचार्य नरेन्द्र देव को पराजित किया। बाबा राघवदास ने बरहज और उसके आसपास के क्षेत्र में कई समाजसेवी संस्थाओं की स्थापना की और बहुत सारे समाजसेवी कार्यों की अगुआई भी की।
आज अरसे बाद जब मैं सोचता हूँ कि ऐसे महान तपस्वी सन्त की कर्मस्थली में कुछ समय रहने का मुझे सौभाग्य मिला था और जब मैं उनके त्यागमय जीवन की तुलना आज के तथाकथित समाजसेवियों के स्वार्थमय जीवन से करता हूँ तो मुझे गर्व की अनभूति तो होती ही है, साथ ही ग्लानि भी होती है कि मैं उनके दर्शन नहीं कर सका। कालांतर में मैं एक विद्यार्थी के रूप में लखनऊ स्थित गांधी अध्ययन केंद्र से जुड़ा और मैंने बनारस के निकट स्थित सेवापुरी के गाँधी आश्रम में एक सप्ताह के शिविर में भी भाग लिया। तब मुझे अपनी किशोरावस्था में ही बाबा राघवदास के सम्पर्क में आ पाने के इस सुयोग से वंचित रह जाने का बहुत मलाल रहा।
बरहज आज भी मेरी स्मृतियों में उपस्थित है। मेरे आदर्शवादी आस्तिक संस्कार का वह अभिन्न हिस्सा है। सरयू का वह तटीय विस्तार मेरे मन के किसी कोने में जाग्रत होकर मुझे अक्सर टेरता रहता है। हाँ, एक व्यक्तिगत पारिवारिक दुर्घटना भी इन स्मृतियों में समाहित है। हुआ यूँ कि एक दिन मुझसे पाँच साल छोटी बहन रमा और उससे दो साल छोटा भाई अशोक घर की सेवाकर्मी महिला के साथ घाघरा के तट पर गए हुए थे। पता नहीं कैसे अशोक खेलते हुए नदी में डूबने लगा। रमा भी आगे बढ़कर उसे पकड़ने की कोशिश में डूबने लगी। भगवान की कृपा से नौकरानी के चिल्लाने की आवाज़ सुनकर वहाँ पहुँचे एक व्यक्ति ने उन्हें बचा लिया। इस घटना ने मेरे और बाबूजी के साथ वृंदावन में लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व घटी डूबने से बचने की याद को ताज़ा कर दिया।
बरहज की ये स्मृतियाँ आज से साठ वर्षों से भी ऊपर की हैं, अस्तु, इनमें एक किशोर मन का जो अतीन्द्रिय रोमांस होता है, वह तो है ही, साथ ही पीछे मुड़कर अतीत से रू-ब-रू होने की, उसे पुनः जीने की एक वृद्ध की जो एक ललक एवं जिज्ञासा होती है, वह भी शामिल है। इन्हें जीना मेरे लिए अत्यंत सुखद रहा है। आज सबकुछ बदल चुका है। आज का बरहज भी मेरी यादों के बरहज से नितांत अपरिचित हो चुका होगा। किन्तु मेरे लिए तो वह अब भी एक शांत पूजास्थली ही है। उस सात्विक आस्तिक-स्थली को मेरा सहृदय नमन है।
– कुमार रवीन्द्र