लघुकथा
बदलते रंग
कार एक्सीडेंट में सुनील की मौत ने माँ रमा और पत्नी रक्षा का जीवन एक पल मे ही रंगहीन, श्वासहीन बना दिया। लगा जैसे आसमान से कोई उल्कापिंड गिरा और सबकुछ लील गया। विधवा माँ ने बेटे की अंतिम विदाई तक ख़ुद को व बहू को संभाले रखा। माहौल को रिश्तेदार, पड़ोसी, मित्रगण कतिपय बातों एवं संकेतों से अधिक दु:खद, बेचारगी भरा बना रहे थे। बेचारी, बदकिस्मत, कर्महीन, न जाने क्या-क्या!
रमा सब देख-सुन रही थी और अपनी पूरी कोशिश कर रही थी कि रक्षा को इस आँच से दूर रखे। रक्षा घायल हिरनी-सी नये परिवर्तन को समझने की नाकाम कोशिश कर रही थी। हैरानी सिर्फ माँ को देखकर हो रही थी, जो उसे परिंदों की तरह परों में सुरक्षा देने के लिए चाक-चौबंद रहती। बारहवें की बैठक में रक्षा का भाई रीतिनुसार सोग की सफेद साड़ी लाया। जैसे ही वह भरी सभा में आगे बढ़ा, रमा जी ने खड़े होकर दृढ आवाज़ में, सधे शब्दों में ज़ोर से कहा, “रक्षा सोग की सफेद साड़ी नहीं पहनेगी। हम दोनों ने जो खोया है, वह सफेद या कोई अन्य रंग पहनने से वापिस नहीं आएगा।” सुगबुगाहट बढ़ी पर रमा ने रक्षा का हाथ पकड़कर कहा, “मैं भुक्तभोगी हूँ। रंग की आड़ में विसंगतियाँ, लोलुपता एवं छद्म सहानुभूतियाँ देखी हैं पर आज समाज की रीतियों के नाम पर इतिहास नहीं दोहराने दूँगी।
रक्षा कपड़ों का रंग ही नहीं, वैधव्य जीवन के किसी भी अंधविश्वासों को नहीं मानेगी। तभी रक्षा ने अपनी सासू माँ की ओर भरपूर स्नेह से देखा और कहा, “माँ आपकी आज्ञा सर आँखों पर परंतु आज मेरी भी एक इच्छा भी मान लें। आज से नहीं अभी से हम दोनों का जीवनरंग एक समान होगा। चलिए अंदर कमरे में।” कहते हुए अचम्भित लोगों को मनरूप बातें बनाने के लिए छोड़ गयीं। थोड़ी देर बाद दोनों हल्के रंग की फूलों वाली साड़ी मे पण्डाल में आयीं और शेष कार्य पूरे किए।
– डॉ. नीना छिब्बर