व्यंग्य
प्रभु की दिव्य दृष्टि
आज प्रभु बेवजह प्रसन्न हो गये। मुझे लगा दाल में ज़रूर कुछ काला है। बिना फेसबुक के प्रभु के ढेर सारे फॉलोअर्स हैं, जो दिन-रात उनकी अर्चना करते हैं। प्रभु उनको ही लाइक नहीं भेजते तो मुझे क्या ‘वाओ’ भेजते। कल मन बड़ा कसैला था, बार-बार दोहराए जा रहा था ‘तुम सम कौन कुटिल खल कामी।’ लगता है प्रभु को किसी ने अलर्ट भेज दिया होगा और वे मजबूरन प्रसन्न हो गए। वे बोले, “वत्स मैं तुम्हें तीसरी आँख देना चाहता हूँ।”
बिना काला चश्मा पहने खुली आँखों से कुछ भी देखना ख़तरनाक है। मैं बिजली के तारों पर बैठे कबूतर और आकाश में तैरती चिड़िया को भी देखने लगूँ तो लोगों को लगता है कि मैं किसी को ताड़ रहा हूँ। काला चश्मा पहनकर मैं कहीं भी देखूँ, किसी को पता नहीं चलता कि मेरी निगाहे-करम कहाँ फ़िदा हैं। मैंने बाज़ार में कहीं तीन आँखों वाला काला चश्मा देखा नहीं था इसलिए प्रभु को विनम्रता से मना कर दिया। दिव्य आँख लेकर जूते खाने में बुद्धिमानी नहीं है।
प्रभु यह दिव्य नयन सी.एम. सर को दे दीजिये। इतने किसान आत्महत्या कर रहे हैं और वे कहते हैं, “मैं ख़ुद किसान हूँ। मेरी पाँचों उँगलियाँ घी में हैं, ये देखो।” पिछले दिनों राजधानी में चार बच्चे मर गये। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में डॉक्टर ने कहा- “बच्चों के पेट में अनाज का एक कण भी नहीं मिला, वे निश्चित ही भूख से मर गये।” सी.एम. सर ने तत्काल प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और कहा- “गोदामों में इतना अनाज भरा है कि पड़ा-पड़ा सड़ रहा है, सरकार मुफ़्त में अनाज बाँट रही है, तब भला भूख से कोई कैसे मर सकता है।” नाथ, आप ही बताइए सड़ा अन्न कौन खा सकता है। प्रभु बोले यह दृष्टि दोष नहीं, सत्ता दोष है। महाराजा को वंशानुवंश राज करना हो तो धृतराष्ट्र बनना पड़ता है। यह दिव्य दृष्टि सी.एम. के काम की नहीं।
“तो प्रभु यह दिव्य दृष्टि न्यायपालिका को दे दीजिए। जंगल राज में जितने ज़्यादा क़ानून हैं, न्याय उतना ही कम है। न्यायमूर्तियों को समझ ही नहीं आ रहा कि ताक़त उनकी क़लम में है या राजनेता के एक फ़ोन में। हर कोई मुँह उठाए न्यायपालिका की तरफ देख रहा है और आकाश में गिद्ध ही गिद्ध मंडरा रहे हैं। नाथ आप ही बताइए सरकारी गिद्धों को झपटने से कौन रोक सकता है?” प्रभु बोले यह दृष्टि दोष नहीं, यह गांधारी की नियति है। महारानी बने रहना हो तो चंगी आँखों पर पट्टी बाँधनी होती है। यह दिव्य दृष्टि न्यायपालिका के काम की नहीं।
“तो प्रभु यह दिव्य दृष्टि रिज़र्व बैंक के गवर्नर को दे दीजिए। दिन-रात करंसी नोटों पर दस्तख़त करते-करते उनकी ज्योति मंद पड़ गयी है। महँगाई तेज़ी से बढ़ी है, वे इसे जीडीपी का बढ़ना बता रहे हैं। विदेशी मुद्रा कोष लबालब भर गया है तो महाअमीर उसे हड़प कर विदेश भाग रहे हैं। प्रभु उदारीकरण की नीति ने परिवारों को उधारीकरण का मोहताज बना दिया है। सरकार को ख़र्च करना आता है और रिज़र्व बैंक को नोट छापना। वे अंधे होकर गड्ढे में गिर रहे हैं और ख़ुश हो रहे हैं।” पैसे-कोड़ी के मामले में प्रभु को क्या लेना-देना, वे मौन रह गये।
मैंने कहा, प्रभु यह दिव्य दृष्टि पुलिस को दे दें। वैसे भी आपके तैंतीस करोड़ देवता निठल्ले हो गये हैं। उनके कार्यक्षेत्र में आश्रमों, आश्रय स्थलों से लगाकर सड़क पर क्या-क्या होता है, उससे पुलिस का रोजनामचा भरा पड़ा है। एक-एक देवता, भारत के एक-एक परिवार की ज़िम्मेदारी ले लें तो यह धरा पुनः स्वर्ग हो जाए। लोग देवताओं को बुला-बुला कर थक गये हैं, पर वे राजभवनों में गच्च हैं। आपने रामराज्य की तर्ज पर जो प्रजातंत्र बनवाया था, वह बे-खटके काम कर रहा है। प्रजातंत्र की पुलिस चौराहे-चौराहे खड़ी है और राजनेताओं को सलामी दे रही है। उनकी आँखों के सामने वह सब हो रहा है, जो उनकी पीठ पीछे भी नहीं होना चाहिए था। प्रभु बोले रिज़र्व बैंक के गवर्नर या पुलिस की आँखें एकदम ठीक हैं। उन्होंने जो सरकारी चश्मा चढ़ा रखा है, उसमें मोतियाबिंद है। वे कुछ भी कैसा भी देख लें, उन्हें वही नज़र आता है जो सरकार चाहती है। दिव्य दृष्टि पाकर भी वे अंधे होने का नाटक करते रहेंगे। उन्हें निष्ठा को निभाना है। पशु भी मालिक के प्रति निष्ठावान होता है, तो ये तो आदमी हैं।
प्रभु की साफ़गोई मुझे प्रभावित नहीं कर पायी। बिना लीपा-पोती के सब सच-सच उगल दो तो उसमें क्या मंथन और क्या प्रतिष्ठा! मैंने कहा प्रभु यह दिव्य दृष्टि किसी बड़े अस्पताल को दे दीजिए। जिन महान आत्माओं को अंग चाहिए उन्हें तुरंत रोपित हो जाएँगे। जिन अधम आत्माओं को परलोक वासी हो जाना चाहिए था, उन्हें प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। डॉक्टर टेक्नॉलॉजी की जड़ तक पहुँच सकेंगे और मृत व्यक्ति के भी दिल धड़काते हुए फोटो बता सकेंगे। प्रभु विचारते रहे कुछ बोले नहीं। प्रभु कुछ बोलते तो डॉक्टर उनकी दिव्य दृष्टि निकाल कर दिव्य बिल के साथ किसी योग्य बड़े को रोपित कर देते।
प्रभु के आशीर्वादी स्वरूप से मैं बोर हो चुका था। इच्छा हुई कहूँ, नाथ आप ख़ुद से ही पूछें कि क्या इन उद्देश्यों के लिए आपने सृष्टि की रचना की थी। मैं कह नहीं पाया, डिप्लोमैटिक बन गया। दिमाग़ को समझा दिया कि प्रभु अन्तर्यामी हैं, बिना बताए भी सब जान जाएँगे। प्रभु कहने लगे- यदा यदा हि धर्मस्य……। मैंने बीच में टोकते हुए कहा- प्रभु आप को अवतार लेने की ज़रूरत नहीं है। धर्म की इतनी प्रतिष्ठा तो रामराज्य में भी नहीं रही होगी। वैसे भी अपनी दिव्यता के प्रकाश में आप कुछ देख नहीं पा रहे हैं। आप इस दिव्य दृष्टि को नाले में फेंक दें।
‘नालायक’, प्रभु ने कहा और वे अंतर्ध्यान हो गये। मैं समझ गया- ‘सच सामने आए तो अंतर्ध्यान हो जाना ही प्रभुता है।’
– धर्मपाल महेन्द्र जैन