संस्मरण
पीड़ा
कितना समय बीतने लगता है अचानक यूं ही जैसे एक तेज़ हवा सर्र से गुज़र जाती है,जैसे आकाशीय अंधड़ वृक्षों को तोड़ता-फोड़ता न जाने किस दिशा से आकर किस दिशा में मुड़ तुड़ जाता है या फिर बलखाती नदिया ही अपनी दिशा बदल देती अथवा समुद्र की उफ़नती लहरें कुछ ऐसी ऊपर-नीचे हो रही हैं जो सरगोशियां करना चाहती हैं पर बिना कुछ कहे चुपचाप दिल में एक हौल सी पैदा करके फिर से स्वयं को समुद्र के हवाले कर देती हैं।
जिंदगी शायद बहुत आसान है और शायद नहीं भी, अब निर्भर करता है आपके समय पर। वह कौन सा और कितना समय देता है आपको! धूल में उड़ा देता है या आसमान पर तारा बनाकर चिपका देता है।
बरसों बीती स्मृति मन के कपाट खटखटाने से लेकर दिमाग़ की शिराओं में रक्त का तेज़ संचार करती सी डॉक्टर की उस सूई सी महसूस होती है जिसे देखकर बिना बात ही रोंगटे खड़े होने लगते हैं। चाहे दर्द च्यूंटी काटने जितना ही होता है पर शोर मचना तो लाज़मी है।
पीड़ाओं की चादर ओढ़कर जीता है आदमी, न जाने कितने-कितने ज़हर पीता है आदमी! इसमें भी उसकी विवशता है किंतु शिकायत? किससे? भाग्य से? नियति से?व्यवस्था से? नहीं किसी बात की कोई भरपाई नहीं हो सकती! सहन करने के अतिरिक्त कोई और चारा भी तो नहीं।
मन उदासी से भर उठता है, कुछ ऐसे जैसे डस्टबिन में कचरा ओवरफ्लो हो जाता है। तीसियों वर्षों की महसूसी पीड़ा उछल-उछलकर डस्टबिन में से निकलने का प्रयास करने लगती है। स्मृतियों की गुँथी हुई रस्सी खोलने का प्रयास किसी जादूगरी से कम नहीं लगता किन्तु वो जादूगर है और हम ठहरे आम मनुष्य जो रस्सी को खोल तो नहीं पाते,उसमें अपनी गर्दन फँसाए आँखें आकाश की ओर लगाए एक नामालूम सी कोशिश में जुटे भर रहते हैं।
लगभग 1982 /83 की स्मृतियाँ मेरे गले में फंदा बनकर दम घोंटने पर उतारू हो जाती हैं जब पी.एचडी कर रही थी, पति के साथ बंबई गई थी और बड़ी ख़ुशी ख़ुशी श्री राजेंद्र सिंह बेदी जी से मिलने गई थी | इंड्स्ट्री के ही एक परिवार में ठहरी थी और मुझे पता चल गया था कि बेदी जी के एक सुपुत्र की अकाल मृत्यु हो चुकी थी | उनकी कुछ फ़िल्में बीच में पड़ीं थीं और वे शारीरिक व मानसिक रूप से काफ़ी कष्ट में थे। चलने में अशक्त थे। जिनके यहां ठहरी थी उन्होंने बेदी जी की सरलता, सहजता के बारे में न जाने कितनी बातें बताईं थीं | थोड़ी सी तो मैं भी परिचित थी उनसे क्योंकि जब मैंने हिंदी एम.ए का शोध-प्रबंध किया था, वह उनके ऊपर ही था। मैंने उनसे पत्र-व्यवहार किया था, जितनी जल्दी व अपनत्व से भरा उनका उत्तर प्राप्त हुआ था वह मुझे उद्वेलित करने के लिए पर्याप्त था। यह उन दिनों की बात है जब राजेंद्र सिंह बेदी जी बहुत चर्चा में थे और उनकी फिल्म ‘एक चादर मैली सी ‘ काफ़ी चर्चित हुई थी किंतु जब मैं बंबई पहुंची तब इस बात को ख़ासा समय बीत चुका था और सितारे बदल चुके थे ,उनके जीवन में एक हड़कंप मच चुका था।
ज़िंदगी अपना खेल दिखाने से कहाँ बाज़ आती है? वह तो बस अपने रंग दिखाती रहती है। बेदी जी के बारे में अपने मेज़बान से चर्चा होने व अधिक जानने के बाद तो मेरा मन उनसे मिलने को और भी कुलबुलाने लगा। उन्होंने मुझे अपने पत्र में बहन कहकर संबोधित किया था और कभी बंबई आने पर मिलने का अनुरोध भी किया था। लेकिन उनकी इस स्थिति में उनसे मिलना मेरे लिए किसी पीड़ा से कम न था, यह मैंने बाद में महसूस किया था।
उनके निवास पर पहुँचने के बाद हमें सीधे उनके कमरे में ही बुला लिया गया था। उनकी खूबसूरत युवा पुत्रवधू ने बहुत स्नेह से हमारा सत्कार किया जो कुछ वर्ष पूर्व ही अपने पति को खो चुकी थी। बेदी जी को पलंग पर लेटे देखकर मेरा मन बहुत उदास हो गया किन्तु इस अवस्था में भी जो सहज स्नेह उनके मुख पर था, उससे मेरा मन द्रवित हो उठा। उनकी पुत्रवधू सेवक की सहायता से जूस और नाश्ते आदि का प्रबंध कुछ इस प्रकार कर रही थी मानो हम न जाने उस परिवार के कितने पूर्व परिचित व महत्वपूर्ण अतिथि थे। बेदी जी बहुत धीमी-धीमी आवाज़ में अपने साहित्य की, अपनी फिल्मों की बातें करते रहे फिर अचानक पलंग से खड़े हो गए। हम देख रहे थे उन्हें पैर उठाने में कितनी तकलीफ़ हो रही थी ! मैंने आगे बढ़कर उन्हें सहारा देने का प्रयास किया | एक धन्यवाद की दृष्टि उन्होंने मेरी और फेंकी और सहज रूप से मुस्कुराते हुए अपने पैरों को लगभग घसीटते हुए वे उस दीवार के पास पहुँचे जहाँ दो गोदरेज की अलमारियाँ दीवार से सटी हुई खड़ी थीं। उन्होंने एक अलमारी खोली और कांपते हुए हाथों से एक मोटी फ़ाइल निकाली।अलमारी बंद करके उन्होंने उसी प्रकार पैरों को लगभग घसीटते हुए मेरा हाथ पकड़े हुए पलंग पर आकर स्वयं को लगभग पलंग पर गिरा सा दिया था, फिर संभलते हुए धीरे-धीरे सीधे होकर बैठने की चेष्टा कर रहे थे। अब मैं भी उनके पलंग के पास पड़े हुए सोफ़े पर अपने पति के पास बैठ चुकी थी। बेदी जी बहुत थके हुए लग रहे थे, मैंने उठकर मेज़ पर से पानी का गिलास उनकी ओर बढ़ाया। जिसे कांपते हाथों से उन्होंने बहुत धीरे-धीरे पीना शुरू किया। मैं गिलास को तब तक पकड़े रही जब तक उन्होंने पानी पी नहीं लिया।
हाथ के इशारे से उन्होंने मुझे अपने पास बैठने के लिए कहा फिर कांपते हाथों से फ़ाइल खोलकर टूटे हुए शब्दों में बताया कि वह उनकी नई फिल्म की पांडुलिपि थी | उन्हें परिवार के लिए कुछ तो करना ही होगा। कहते कहते उनकी साँस उखड़ने लगी थी। मेरी आँखें आँसुओं से भर चुकी थीं। बेदी जी के शरीर से भी अधिक थकान व अस्वस्थता,बेचैनी उनके मन के भीतर से कुछ ऐसे झाँक रही थी कि हमारा असहज होना स्वाभाविक था। थोड़ी देर में वे काफी थक चुके थे और उन्होंने धीमे-धीमे अपनी आँखों को मूँद लिया था, शायद कोई स्वप्न उनकी मूँदी पलकों में ठिठक गया था। कुछ देर हम वहीं बैठे रहे, कुछ समझ नहीं पा रहे थे क्या करें कि उनकी पुत्रवधू ने धीमे से कमरे में प्रवेश किया, उसकी आँखों में से एक बेबसी झाँक रही थी। उसने हमारी ओर अपने हाथ नमस्कार की मुद्रा में जोड़ दिए और धीमे स्वर में बताया कि अभी पापा जी को आराम की ज़रुरत थी।
पीड़ा का जैसे कोई नगर बेदी जी की मुंदी आँखों में करवटें ले रहा था, भरी हुई आँखों से मैंने उनकी पुत्रवधू की ओर हाथ जोड़कर धन्यवाद किया और अपने पति के साथ ज़ीने से नीचे उतरने लगी।
राजेंद्र सिंह बेदी वाली घटना बंबई की
– डॉ. प्रणव भारती