कविता-कानन
पानी
लड़की ढूँढ रही थी पानी
तलाश करते-करते
पपड़ा चुके थे होंठ
सूखता गला
रेगिस्तान से रेतीले अंधड़ों से जूझते हुए
गटकने लगा स्वयं को
पर फिर भी तैयार न था पराजय को
इधर धरती थी पटी हुई
कंक्रीट के पक्के विकास से
और लेनी पड़ी थी उदास माटी को विदाई
वो चाहते हुए भी नहीं सोख पाई
बीती बारिश को
होती आज तो अवश्य ही अपनी छाती से लगा
बुझा देती हर नन्हे पौधे की प्यास
पौधे जो एक दिन वृक्ष बन
अपनी शाखाओं से आसमान तक पहुँच
दे सकते थे बादलों को बरसने का निमंत्रण
वे बेचारे भ्रूण हत्या का शिकार हुए
गाँव में हर तरफ सूखा मुँह लिए
लज्जित खड़े थे पोखर, नदी, तालाब, तलैयाँ
लड़की जान चुकी थी कि
आज भी घर में नहीं पकेगा खाना
भोजन की उम्मीद में उसे भागना होगा
शहर की ओर
सुना है, सब मुमकिन है शहर में!
यहाँ आधुनिकीकरण की होड़ ने
भले ही रेत दिया है धरती का गला
पर पानी क़ैद है बोतलों में
खूब बिकता है औने-पौने दामों में
उसे ख़रीदना होगा
जीवन का मूल आधार
गँवार लड़की कहाँ जानती है
अपने मौलिक अधिकार!
दौड़ रही है लड़की
जैसे दौड़ा करती थी उसकी माँ
और उसके पहले नानी
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ऋण
ऋण है हम पर
पंछियों, हवाओं और
तेज, तूफ़ानी बारिश का
जिन्होंने बीज-बीज छितराकर,
बहाकर
घने जंगल बसाए
और हमने उन्हें उखाड़
पत्थरों के कई शहर बना लिए
इधर हम विकसित लोग
अब तरसते हैं हवा-पानी को
उधर हताश पंछी भटक रहे
घोंसले की तलाश में
जंगली जंतुओं के शहर तक चले आने में
तुम्हें हैरत क्यों है भला?
प्रश्न यह है कि
अतिक्रमण, किसने किया है किस पर?
आह! देखती हूँ जब भी गगनचुम्बी इमारतें
मेरे भीतर एक जंगल अचानक
लहलहाकर गिर पड़ता है
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अंतिम कवि
उस पल जब होगा आगमन प्रलय का
और विलीन हो जाएगी ये दुनिया
तब भी शेष रह जाएगा
कहीं कोई कवि
ढूंढता हुआ
अपनी तमाम प्रेम कविताओं में
जीवन की ग़ुलाबी रंगत
बदहवास हो तलाशेगा
उजाड़ हुई बगिया में
मोगरे की खोई सुगंध
निष्प्राण वृक्षों के क्षत-विक्षत घोंसलों में
बेसुध पड़े पक्षियों का कलरव
टहनियों में अटकी
रंग-बिरंगी तितलियों की लुप्त चंचलता
वह उस दिन विकल हो
निर्जन, सुनसान सड़कों पर
हाथ में थामे जलती मशाल
नंगे पैर चीखता हुआ दौड़ेगा
ढूंढेगा उसी समाज को
जिसके विरुद्ध लिखता रहा उम्र भर
अपनी ही आँखों के समक्ष देखेगा
संभावनाओं का खंडित अम्बर
भयाक्रांत चेहरे से उठाएगा
उस रोज का अख़बार
जिसका प्रत्येक पृष्ठ
अंततः रीता ही पाएगा
श्रांत ह्रदय से टुकुर-टुकुर निहारेगा
सूरज की डूबती छटा
और फिर वहीं कहीं
अभिलाषा की माटी में रोप देगा
जीवन की नई परिभाषा
कर लेगा मृत्यु-वरण
उसी चिर-परिचित आह के साथ
लेकिन जो जीवित रहा तब भी
तो अबकी बार
चाँद की ओर पीठ करके बैठेगा
– प्रीति अज्ञात