कविता-कानन
पाँच कविताएँ
फँसाया जा सकता है
हिंस्र से हिंस्र को
जाल में
हाँ,
तितलियाँ ख़ुद ही बैठती-उड़ती रहती हैँ
जंगल की हथेली पर बने
सुकोमल रेखाओं के
झुरमुट में भी
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मैं भरे पेट से
लिखता हूँ
भूख पर कविता
भूखा व्यक्ति
होता है
ईश्वर के अस्तित्व पर
प्रश्नवाचक निबन्ध।
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मेरे शरीर के बोझ तले दब रही
आत्मा
शब्दों का सहारा लेकर खडी होती है किसी तरह कविता में,
पर तुम उसे
वाचालता कहकर छिटक देते हो
शास्त्र मुझे समझाते हैं कि आत्मा नहीं जन्मती, मरती भी नहीं
लेकिन मैं जानता हूँ
वो मुझमें कई बार जन्मी है
मैंने उसे मुझमें मरते देखा है
कई बार
मैं रोया हूँ उसकी मृत्यु पर
मैं नाचा हूँ उसके जन्म पर
वो बदलती होगी देहों को वस्त्रों की तरह लेकिन कर रही मुझे निर्वस्त्र
हर क्षण
बदलने के लिए।
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धर्म की भट्टी में
क्रोध को पिघलाकर
स्वार्थ की समिधाओं से
प्रज्ज्विलत अग्नि
अब प्रतिष्ठित है
शिष्ट-धार्मिकों के घर में
अवसरवादी
अच्छी तरह जानता है
कि कब-कब उसमें
उकसाहट का घृत डालना है
वह जो ऊँचे आसन पर बैठा है ना!
वह जानता है हर धर्म का पौरोहित्य
वह वेत्ता है अभिचार का भी।
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खेत में गढ़ा हुआ सोना
चाहे जिसे भी मिला हो
लेकिन
खेत में लहराता सोना
उसे हरगिज़ नहीं मिला
जिसने बोया
अपना होना।
– डॉ. नितेश व्यास