कथा-कुसुम
पहला प्यार
सिमटी-सकुची ही कहा जा सकता है उसकी मनोदशा। यही नहीं ज़रा सहमी भी जी रही थी नयी दुल्हन। पति की दिवंगत पत्नी की फूलमाला सजी तस्वीर देखकर एक पल को तो वह भी ठिठक कर रह गयी थी। फिर कमरे में और भी कुछ युगल तस्वीरें देखकर अंदर ही अंदर डर रही थी कि इतनी मीठी और सरस फुहार ने जिसके यौवन के उपवन को सींचा हो, वो क्या खाक मुझ जैसी सामान्य स्त्री को प्रेयसी का मान देगा! हाँ, भले ही जीवन के किसी मोड़ पर उसने मुझ साधारण का हाथ थाम लिया।
उसका ‘वो’ बागों-बागीचों का शौकीन था। ज़िन्दगी की आशनाइयों का दीवाना भी। लेकिन क़ज़ा ने तो उसके ज़िन्दगी के नशे में ज़हर भर दिया था यूँ यकबयक। फिर भी कहाँ ठहरा था वो। मायूसियों ने तो उसे हँसना ही सिखाया था। आँखों के सामने नन्हीं-सी जान, आँगन के किसलय को मुस्काते देखता कि निहाल हो जाता। बल्कि इसी मुस्कान की मुलायम निगहबानी के लिए उसने साथी की ज़रूरत महसूस की थी। वरना वो तो वक़्त के दिए इस घाव को सिलकर चल ही रहा था तनिक ख़ुशमिज़ाजी के संग। पर जब कभी मन की गहराइयों में उदासियाँ सरगोशी करतीं तो वो अपने बागीचे के मख़मली हरियाली को सहलाकर खिलखिला लेता। मानो कह रहा हो, “ऐ वक्त! तुम्हारी दी तकलीफ़ की आकस्मिकता के लिए तो मैं तैयार न था। मगर रखूँगा तुझे अपनी जूती की नोक पर ही।”
और फिर वक़्त के एक झोंके ने आज फिर पहलू में बहार को लाकर रख दिया है उसके। आज वो बहार की ऊँगली थामे बाग़ में अपने सूने मन के साथियों संग तनिक मन बहला रहा था। कनखियों से देखा तो बहार जाने बाग़ में आकर भी खोयी हुई क्यों थी? संवेदन के सरोवर में नहायी उसकी आँखों को बहार के चेहरे पर लिखे उसके दिल को पढ़ने में कोई भूल न हुई। और एकाएक बहार उसकी बाँहों में खोयी थी। वो भिगो भी रही थी और उससे कहीं ज़्यादा भीगकर सराबोर हो गयी थी।
असल में फूलों, कलियों और कोंपलों को देखते-देखते उसने बहार की किलकारी से चौंक; फूलों पर रीझने की बजाय उसके रूख़सार को अँजुरी में भरकर चूम लिया था, यह कहते हुए कि, “सबसे ख़ूबसूरत फूल तो आप हैं मेरी ज़िन्दगी में, पतझड़ के बाद आयी हुई बसंत-बहार।
बहार ख़ुश ही नहीं थी, बेइन्तिहा ख़ुश थी मानो वो पहला प्यार हो उसका।
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अपना घर
विद्यालय से आकर कमरे में आराम कर रही थी। शाम घिरने को थी, सोचा लाइटें घर में जला दूँ तमाम। उठकर मुड़ने को थी कि लगा कोई है, बाहर दालान पर। झट दरवाज़ा खोल झाँका तो बाई थी, जो कुछ बिछा रही थी। जब तक कुछ पूछ पाती वो झटपट उस पर लेट चुकी थी।
पूछने पर बताया, “क्या बताएँ दुल्हिन! रातभर पानी पड़ता रहा। दो कमरे के घर में कमरे तो दोनों बहुओं के हैं। बरामदा टपकता बहुत है तो रातभर बैठे ही बिताना पड़ा। लाख मरिए बेटे-बहुओं के लिए, कौन पूछता है दुल्हिन, जानती ही हो। बूढा तो और स्वार्थी है। क्या करते!”
आगे बताया, “अब मुआ पेट कहाँ मानता है सो आना ही पड़ा काम करने। और खीर पूरी खिलायी नेहा बेबी की मम्मी ने, तो पचा नहीं। रात वाला भी खाना पेट ही रखा था न। तो मन घूमते-घूमते क्या बताएँ, तीन बार उल्टी हो गयी है। ज़रा मन चकरा रहा तो आपके यहाँ जगह भी है और काम भी न बढाओगी। सोचा यहीं आराम कर लूँ, ज़रा दम धरने दो। सोने दो ज़रा, फिर चली जाऊँगी।”
न चाहते हुए भी मैंने तंग किया उनको और उठाकर ओ. आर. एस. घोलकर पिलायी और पेरिनार्म की गोली दी। ये दोनों लेकर उन्हें राहत मिली और वो सो गयीं। रात के आठ बज चुके थे, वो अब भी सो रहीं थीं। यूँ तो घंटे भर में उठाने का वादा लिया था उन्होंने पर मुझे लगा चैन से सोने देती हूँ। थोड़ी गर्म खिचड़ी बनाकर हौले जगाई कि ज़रा-सा चखिए न! मन अच्छा लगेगा।
अकबका कर उठीं वो, जल्दी-जल्दी खाया और एकदम से बदन झाड़ उठ खड़ी हुईं। साथ ही दुआओं की झड़ी भी, “दुल्हिन आप थे, जो दवा-पानी और गर्म खाना मिल गया। सोने की जगह भी, बड़ा आराम मिल गया।” इतना सुन सहज भाव मैंने कहा, “आइए यहीं सोइए रोज़। हाँ! डरिएगा नहीं, काम मैं नहीं बढाने जा रही। ख़ूब सोइएगा। रोज़ गर्म खाइएगा।”
वो सब समेट क़दम बढाती हुई बोली, “समझो दुल्हिन! बेटा के माय हैं, दुल्हा है, सर-समाज है। कैसे कहते हैं रहने? अच्छा कहेगा कोई? घर तो घर ही है न! जा रहे दुल्हिन, अप्पन घर…………।”
और मैं किंकर्त्तव्यविमुढ़ उन बावरी को अप्पन घर जाते देख रही थी। और करती भी क्या!
– स्मिता श्री