संस्मरण
पहलवान दी हट्टी और गर्मियों की दुपहरी
कभी कभी मन होता है ज़ोरदार ठहाका लगाया जाय ,कैसे खींसें निपोरते थे तब, जब ‘बुढ़िया के बाल लेलो ‘,’बारह मन की धोबन देख लो ”आगरे का ताजमहल देख लो ‘—-ऐसी ही कुछ आवाज़ें जहाँ कानों में पहुँचतीं हम बच्चे घर से निकल भागते।
पहले सबके घर सटे हुए होते थे। एक बच्चे ने आवाज़ लगाई कि एक -एक करके सारे निकल भागे। एक बार झांका बाहर की ओर और हो गए आँखों ही आँखों में इशारे! नज़र बचाई माँ की,और निकल भागे। पर इस सबके लिए पैसे तो माँ से ही लेने होते थे, सो बाहर चले भी गए तो वापिस घर में पैसे लेने तो आना ही पड़ता और माँ की आँखों की ओर देखे बिना उनके हाथ से पैसे लेकर भाग जाना बड़ी कलाकारी होती थी। पता ही होता था, माँ भुनभुन कर रही हैं और हम सभी बच्चों ने एक स्ट्रेटेजी बना ली थी कि ऎसी भाव -विह्वल आवाज़ें सुनकर पहले बाहर निकलो फिर अंदर आओ और मासूम से बनकर माँ के सामने जितनी ज़रुरत हो, उतने पैसे के लिए हाथ फैलाओ और बिना माँ की ओर देखे काळा कौए से उड़ जाओ।
पापा दिल्ली में रहते थे और मैं और माँ मुज़फ्फरनगर में ! वैसे तो पापा शनिवार की रत को अक्सर आ ही जाते और सोमवार की सुबह=सुबह निकल जाते पर पाँच -सात दिनों की लंबी छुट्टियों में हम उनके पास चले जाते और गर्मी की छुट्टियाँ तो दिल्ली में ही निकलतीं | खूब मज़े करते। वहाँ खूब दोस्त बन गए थे जो गर्मी की छुट्टियों का इंतज़ार करते रहते। इसका भी एक बहुत महत्वपूर्ण कारण था | ऐसा थोड़े ही था कि दिल्ली में मेरे दोस्तों के लिए एक मैं ही बड़ी फन्नेखाँ दोस्त थी जो वो मुझे मिस करते।अरे, पूरे ब्लॉक में ऊपर-नीचे मिलाकर लगभग साठ तो फ्लैटनुमा घर हुआ करते थे। जो दो मंज़िला होते, नीचे किसी और का निवास होता तो ऊपर किसी और का आशियाना! हाँ,उन्हें फ़्लैट नहीं कहा जाता था, क्वॉर्टर कहते थे।
खूब याद है पापा को ब्लॉक नं 18 में 108 नं का नीचे का क्वार्टर मिला हुआ था जिसमें एक ड्रॉइंग-रूम व दो बैडरूम्स ,साथ ही एक किचन, लॉबी व लॉबी से मिली हुई जाफ़री थी। वह वैसे एक खुला सा स्पेस था जिसे लकड़ी की हरे रंग की मोटी जाली के बड़े से दरवाज़े से बंद किया गया था जो पीछे की ओर खुलता ,उसके पीछे बाथरूम व लैट्रीन बने हुए थे जिन्हें पीछे गली में से ही जमादार साफ़ कर जाता। कुल मिलाकर वह एक ऐसा क्वार्टर था जिसमें हमें खूब सुविधा थी। यू शेप के ब्लॉक्स होते थे और उनके सामने ख़ासा बड़ा पार्क जिसमें चारों ओर छोटी-छोटी शायद कुछ मेंहदी टाइप की बाड़ सी लगी रहतीं और दोनों ओर के बड़े गेटों के साइड में बड़े-बड़े पेड़ लगे रहते। पार्क के बीच में झूले, फिसलन, सी-सॉ सब होते और वहाँ भी बुढ़िया के बाल और बारह मन की धोबन दर्शन देने आ जाते।
ख़ैर! मेरे दिल्ली पहुँचने का इंतज़ार मेरे दोस्त कोई यूँ ही नहीं करते थे। उसके पीछे भी एक महत्वपूर्ण मकसद होता था। मुझे पता है शायद वे सब मुझे पीछे से याद भी न करते हों, पर उस समय न तो इतनी अकल थी और न ही इतनी फ़ुरसत कि बेकार की बातों में सिर खपाया जाए! वो जो असली बात है वो बता दूँ पहले ,नहीं तो यूं ही गोल-गोल घूमती रह जाऊँगी।
हाँ जी ,तो उस समय न तो फ्रिज होते थे और न ही टेलीविज़न, न कूलर और न ही ए.सी! सो हम लोगों के पहुँचने से पहले ही पापा घर के एकमात्र सेवक से क्वॉर्टर के पीछे के भाग की जाफ़री में ख़स ख़स की टट्टी के पर्दे लगवा देते और हमारे वहाँ पहुँचने पर वह हर रोज़ उन्हें सुबह-दोपहर खूब सारे पानी से भिगोता रहता जिससे लगभग पूरा घर ही बाहर के मौसम के मुकाबले काफ़ी ठंडा हो जाता। कई बार गाँव से मेरे चाचा की लड़की सरला भी हमारे साथ छुट्टियाँ बिताने दिल्ली आ जाती।
हाँ,फ्रिज न होने से वहाँ बर्फ़ देने घर-घर बर्फ़ वाला टाट के टुकड़ों में बर्फ़ की सिल्लियाँ लपेटकर साईकिल-ठेले में आता था जिससे बर्फ़ लेकर हम बड़े से थर्मसनुमा बर्तन में रख लेते और फिर वो हमारे ठंडे दूध और ठंडे पेय जैसे रुहआफज़ा आदि में डालने के काम आता। दोपहर भर चटाइयाँ डालकर हमें ज़ाफ़री में सोने का हुक्म था। ब्लॉक के बच्चे दोपहर भर पार्क में ऊधम मचाते और हम कुढ़ते हुए ज़ाफ़री की ठंडक में पड़े अपने पापा का अत्याचार सहते रहते। उन्हें पता भर लग जाए कि दोपहर में बाहर निकली थी तो कोने में खड़े होने की सज़ा सुनाई जाती थी। इतने अनुशासन प्रिय माता-पिता की संतान होना भी कोई कम टॉर्चर तो न था। जब बहुत टीं,टा होने लगी तब पापा ने परमिशन दे दी कि उन बच्चों को भी एक-दो घंटे के लिए ज़ाफ़री की ठंडक में बुला लिया जाय जिससे लूडो,साँपसीढ़ी आदि खेली जा सके। अब तो पौ बारह थे। माँ तो लंच के बाद बैड रूम में सो जातीं और मैं और चाचा जी की बेटी पार्क में खेलते बच्चों को अपने पास बुला लेते।
दोपहर को ‘पहलवान दी हट्टी’ से पापा ने दूध वाले को बांध रखा था ,ठंडे-ठंडे दूध की बोतलें घर में पहुँचाने के लिए जो पीछे ज़ाफ़री खुलवाकर हमें ठंडे दूध की बोतलें थमा जाता। जब तक मैं, सरला और माँ थे तब तक तो ठीक! पर जब ब्लॉक के और चार बच्चे ज़ाफ़री में आने लगे तब तीन दूध की बोतलों की जगह चार और एक्स्ट्रा आने लगीं और माह के अंत में पापा के हाथ में पहलवान दी हट्टी से बिल आया तो पापा ने माँ की परेड ली।
“इतना बिल?”
माँ को कुछ पता होता तो बतातीं न! वे बेचारी तो इनोसेंट थीं, उन्हें पता ही नहीं चला था कि हम पूरे महीने भर चार दूध की बोतलें एक्स्ट्रा लेते रहे थे। हम तो ठंडे दूध की बोतलें चढ़ाकर अपने खेल में मस्त हो जाते और घर का एकमात्र सेवक राममनोहर जिसे रामू कहकर पुकारा जाता था, वह खाली दूध की बोतलें इकट्ठी करके जब बाज़ार सौदा-सुलफ़ करने जाता ,उन बोतलों को झोले में डालकर वापिस कर आता। हिसाब तो महीने में सेलरी आने पर ही किया जाता था।
वैसे पिछली बार भी कुछ गड़बड़ कर चुकी थी मैं लेकिन उस बार एक तो सरला नहीं थी, दूसरे दो ही सहेलियाँ खेलने आईं थीं ,तीसरा- बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा – हम केवल छह दिनों के लिए ही दिल्ली जा पाए थे, उसमें भी एक दिन आने और एक दिन जाने में निकल गया था सो ये जो शुरू हुआ था सिलसिला यह तो अगली बार की लंबी छुट्टियों में ही शुरू हुआ था।
उस ज़माने के हिसाब से ठीक-ठाक सेलरी मिलती थी पापा को और माँ भी कॉलेज में पढ़ाती थीं पर इतना थोड़े ही होता था कि खर्चा बढ़ा लिया जाए!
पापा का मूड कई दिनों तक काफ़ी खराब रहा पर अब क्या किया जाए? सब दोस्तों को हर रोज़ ठंडे दूध की बोतलों की आदत पड़ गई थी लेकिन अब यह संभव न था कि महीना भर दोस्तों की पहलवान दी हट्टी के दूध से खातिरदारी की जाय। इसका हश्र ये हुआ कि जब हम अगली बार से पापा के पास गए, तब हमारे लिए भी ठंडा दूध आना बंद हो गया और कुछ ही समय में दोपहर में दोस्तों का आना भी। बड़ा गुस्सा आता था पापा पर ,पर हमें यह अकल थोड़े ही थी कि ठंडे दूध के लिए पहलवान जी को ख़ासी रकम देनी पड़ती है!
– डॉ. प्रणव भारती