विमर्श
पर्यावरण-संकट और संचेतना
– डॉ. कविता विकास
आज पूरा विश्व पर्यावरण के अकथ संकट से गुज़र रहा है। प्रकृति जिन पाँच तत्वों- जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश के सम्मिश्रण से बनी है, उनमें से कुछ भी मानव के हस्तक्षेप से नहीं बचा है। प्रकृति का स्वभाविक तरीक़ा है अपने आप को सम्भालने और सहेजने का। प्रकृति के इस तरीक़े को अगर हम समझ लें तो वह कभी हमें निराश नहीं करेगी। तेज़ी से बढ़ती आबादी, कार्बन का उत्सर्जन और कटते पेड़ों के कारण पर्यावरण की घोर उपेक्षा हुई है। विकास के लिए स्थान की ज़रूरत अवश्य है। आवास, सड़क, स्कूल–कॉलेज, कल–कालखाने आदि विकास के पैमाने हैं। इनके लिए विगत दिनों में 70-80 प्रतिशत पेड़ काटे गए, परंतु इतनी ही संख्या में पौधे लगाए नहीं गए, जो पेड़ बनकर छाया दे सकें, बारिश ला सकें और प्रदूषण दूर कर सकें। फलस्वरूप मौसम चक्र में परिवर्तन और वायु–प्रदूषण के साथ हिमखंड का तेज़ी से पिघलना, ग्लोबल वॉर्मिंग, अनावृष्टि आदि अन्य समस्याएँ उत्पन्न हो गयीं हैं। नदियों के प्रवाह को काटना, बाँधना, उनमें गंदगी फैलाना, पहाड़ों को भी काट कर रहने लायक जगह बनाना आदि क्रियाकलापों ने प्रकृति के साम्राज्य में अनावश्यक दख़ल डाला है। भूस्खलन और बाढ़ की तबाही ने भी पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है।
उदारवादी वैश्विक अर्थव्यवस्था की बाज़ारवादी संस्कृति ने परकल्याण की जगह हाथों में पैसे की खनक को ज़्यादा महत्व दिया है। धरती पर 33% वन और 33% जल आच्छादित क्षेत्र होने चाहिए। वन कार्बन डाई ऑक्साइड और प्रदूषण के अवशोषण का काम करता है तो जलाच्छादित स्रोत तापमान को बढ़ने से रोकते हैं। नदी-तालाब, झील-झरने आदि भू-गर्भीय जलस्तर को भी बनाए रखते हैं। आवास, सड़क निर्माण और अन्य विकास प्रक्रिया में इन छोटे-छोटे तालाबों को भर दिया जा रहा है। वर्षा की कमी से इनके स्वाभाविक जल-संचयन में भी कमी आ रही है। बढ़ते ताप और प्रदूषण के कारण ओजोन परत में पहले ही छेद की पुष्टि हो चुकी है। पेड़ों के जड़ मिट्टी को बाँधने का काम करती हैं, जो वृक्षों के कट जाने के कारण आसानी से बह जाती है। इससे उपजाऊ मिट्टी का क्षय भी होता है। इसी तरह नदियों में रेत–उत्खनन के कारण उनकी प्रवाह दिशा परिवर्तित हो रही है, जो अक्सर बाढ़ का रूप लेकर कई गाँवों को लील जाती हैं।
नदियों में प्रवाह की मात्रा और प्रवाह दर पर हमारी अन्य गतिविधियाँ और प्रकृति विरोधी क्रियाकलापों का भी असर पड़ता है। पॉलीथीन के उपयोग से नदियों के प्रवाह में रुकावट से सहायक नदियों में पानी का जमाव हो जाता है, जो बाढ़ को जन्म देता है। मुंबई की मीठी नदी की बाढ़ और चेन्नई शहर की बाढ़ के पीछे यही कारण था। कटते पेड़ों के कारण धरती का तापमान भी बढ़ता जा रहा है, जिससे ग्लेशियर तेज़ी से पिघल रहे हैं। माना जाता है कि प्रतिवर्ष ग्लेशियर नौ मीटर की दर से पिघल रहे हैं। अगले विश्वयुद्ध का कारण जल ही माना गया है।
पर्यावरण की भयावह स्थिति और असंतुलित दशा को देखते हुए मानना होगा कि पर्यावरण संरक्षण को जन आंदोलन का रूप देना होगा तभी समस्या का हल होगा। हरियाली लाने का एकमात्र साधन वृक्षारोपण है। एक पेड़ बर्बाद होता है तो बदले में दस लगाना होगा। घरेलू, सामाजिक या राष्ट्रीय उत्सवों पर पेड़ लगाना एक मुख्य रिवाज बना देना चाहिए। नदियों को अतिक्रमण मुक्त करने के लिए बृहद स्तर पर सफ़ाई योजनाएँ लागू हों। शव-विसर्जन, कारख़ानों के विषैले जल का निकास, मैले का बहाव आदि रोकना तो सर्व साधारण के पास है, इसमें सरकार की नीतियों का इंतज़ार होना भी नहीं चाहिए। भू-गर्भीय जलस्तर को बनाये रखने के लिए नदियों और तालाबों में जल-संग्रहित करने के उपाय करने होंगे। वर्षा जल संरक्षण के लिए उपयुक्त स्थान का चुनाव करके; वर्षा के जल को रोककर रखना भू-गर्भीय जलस्तर को बनाये रखेगा। प्लास्टिक की जगह काग़ज़ के थैले का उपयोग होना शुरू तो हो गया है पर कई शहर अभी भी इसे पूरी तरह अपना नहीं सके हैं। बे-समय बारिश और समय पर बारिश न होना जलवायु चक्र में छेड़छाड़ के कारण ही हुआ है, जिसके कारण फ़सलों को काफ़ी नुक़सान होता है।
बदलते परिवेश एवं जागरूकता के बीच पूरे विश्व कोर्पोरेट भी अपनी नयी राजनीति के साथ जलवायु परिवर्तन के कारणों पर काम करने में लग गए हैं। सक्रियता और कार्य-क्षमता के लिए सकारात्मक इच्छा और प्रतिबद्धता चाहिए। यूएनएफसीसीसी को जलवायु संरक्षण से जुड़े उपायों को सख़्ती के साथ लागू करना चाहिए। सरकार की अनेक योजनाएँ प्रभावशाली हैं, जैसे- आइस मेमोरी प्रोजेक्ट में आइस के टुकड़े पर्यावरण के अतीत और भविष्य को समझाने में मददगार होंगे कि दस साल के अंदर कार्बन डाई ऑक्साइड या अन्य गैसों की स्थिति में क्या परिवर्तन आया? नदी भूमि पर अवैध क़ब्ज़े के लालच के कुप्रभाव प्राय: विवादों को जन्म दे रहे हैं। बढ़ते निर्माण के कारण गंगा जैसी नदी का पाट भी पहले से कम हो गया है। पहले जहाँ यह पाट कई किलोमीटर तक हुआ करता था, अब यह कई जगहों पर एक किलोमीटर ही रह गया है।
संचार माध्यमों द्वारा पर्यावरण जागरूकता के संदेश, वृत्त-चित्र, विज्ञापन आदि प्रसारित किए जाते रहे हैं। लोगों की जागरूकता निःसंदेह बढ़ी है। फिर भी, प्रति व्यक्ति योगदान कम ही देखा जाता है। पर्यावरण जागरूकता एक मिशन के तहत घर-घर में जानी चाहिए। पाठ्य-क्रम का हिस्सा तो यह है ही पर सक्रिय रूप में बच्चों की भागीदारी भी होनी चाहिए। उनसे पेड़ लगवाए जाएँ तथा अपने इलाक़े के पेड़ों की रक्षा भी करवाई जाए। प्रकृति की ओर लौटने का सबसे अच्छा तरीक़ा प्रकृति से जुड़ जाना है। जल, ज़मीन और जंगल जीवन से जुड़े तत्त्व हैं, जिनकी रक्षा करना हम सबका दायित्व है।
– डॉ. कविता विकास