कविता-कानन
पचास साल वाली बेचैनी
नहीं समझ सकता है कोई
पचास की दहलीज़ पर बैठी महिलाओं का दर्द
सिवाय उन महिलाओं के
जो स्वयं पहुँच चुकी है इसी मोड़ पर
कुछ पुरुष ही समझ पाते हैं उनकी इस व्यथा
और पीड़ा को
बनना, संवरना चाहती हैं वे
पर झिझकता है मन
सकुचाने लगती हैं अपनी किशोर बेटी, बेटे,
पड़ोसियोंऔर नाते- रिश्तेदारों से
इधर ढीली पड़ती त्वचा, सफेदी अंगीकार करते केश,
सूखते होंठ और आँखों के नीचे के काले घेरे से जूझता ह्रदय
उधर कुलांच मारती पुरानी उमंगों के
फिर से सिर उठाने से विचलित मन
इस उम्र में दिल करता है फिर से
किशोरी बन जाने का
पर कभी रोकती है परिपक्वता
तो कभी घर में आई नई बहू की निगाहें
पति चाहता है, बनी-ठनी रहे बीवी पहले सी
पर ओढ़ लेती है वो माँ और सास की काया
नई रोमांटिक फिल्म के रिलीज़ होते ही
रह जाती है कसमसाकर
अक्सर कचोटता है अकेलापन उसे
कभी दुखी कर देती है पति की उपेक्षा
तो कभी रुआंसा हो जाती है
बहू- बेटे की बेरुखी से
खाने पीने की इच्छाएं चढ़ जाती हैं
तमाम बीमारियों को भेंट
ऊपर से ओस्टियोपोरोसिस से कमजोर हड्डियाँ
और आर्थराइटिस से टूटते घुटने
कर देते हैं मजबूर
कम्बख्त ये मेनोपॉज का हॉट फ्लश,बेचैनी, चिड़चिड़ापन
और मूड स्विंग भी तो जीने नहीं देते चैन से
चुप रहो तो मुश्किल,
ज्यादा बोलो तो सहो टोकाटाकी
ऐसे में यही चाहती हैं पचास साला महिलाएँ कि
या तो बुढ़ापा जल्द आ जाए, ताकि बढ़े बेफिक्री
– शिखर चंद जैन