विमर्श
नारी सम्मान व अधिकार: मोनिका अग्रवाल
आज इक्कीसवीं सदी में प्रविष्ट होकर भी स्त्री को अनेक प्रकार से उत्पीड़न का शिकार होना पड़ रहा है। आज भी उसकी सामाजिक स्थिति दोयम दर्जे की है।
प्राचीन काल से लेकर आज के ‘ग्लोबल विलेज’ काल तक पितृसत्तात्मक व्यवस्था ही स्त्री का सामाजिक क़द निर्धारित करती आई है। इसी पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने स्त्री को दो श्रेणियों में विभाजित किया है-
प्रथम- देवी स्वरूपा स्त्री, जो पुरुष द्वारा निर्धारित नैतिक मापदंडों पर खरी उतरती है। पुरुष की आज्ञा का शीश झुकाकर पालन करती है। पतिव्रता, सती-साध्वी स्त्री।
द्वितीय- इस श्रेणी में उन स्त्रियों को रखा गया, जो पुरुष द्वारा निर्धारित आचरण की सीमाओं को लांघती हैं और इसी कारण उन्हें कुलटा, कर्कशा, वेश्या, बदचलन, व्याभिचारिणी आदि अभद्र संज्ञाओं से विभूषित किया जाता है।
विवाह एवं फेरों के अवसर पर कन्यादान की रस्म निभाई जाती है। क्या कन्या या लड़की कोई जानवर है, जिसे दान में दे दिया जाता है अथवा दान देने का उपक्रम किया जाता है? क्या यह नारी जाति का अपमान नहीं है?
धर्म के ठेकेदारों ने पुरुष प्रधान समाज की रचना कर महिलाओं को दोयम दर्जा प्रदान किया। उनकी सारी खुशियाँ, इच्छाएँ, भावनाएँ पुरुषों को संतुष्ट करने तक सीमित कर दी गयी।
महिलाओं के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना करना आज भी संभव नहीं हो पा रहा है। आज भी समाज में नारी को भोग्या समझने की मानसिकता से मुक्ति नहीं मिल पाई है। निम्न आय वर्ग एवं मध्यम आय वर्ग में ही परम्पराओं के नाम पर महिलाओं के शोषण जारी है। समाज के ठेकेदारों का उच्च आय वर्ग पर ज़ोर नहीं चलता, अतः वहाँ नारी पूर्ण रूपेण सक्षम हो चुकी है।
ज़रा सोचिये, पुरुष यदि अमानुषिक कार्य करे तो भी सम्मानीय व्यक्ति जैसे सामाजिक नेता, पंडित, पुरोहित इत्यदि बना रहता है, परन्तु यदि स्त्री का कोई कार्य संदेह के घेरे में आ जाये तो उसको निकम्मी, पतिता जैसे अलंकारों से विभूषित कर अपमानित किया जाता है।
आज भी ऐसे लालची माता-पिता विद्यमान हैं, जो अपनी बेटी का जानवरों की भांति किसी बूढ़े, अपंग अथवा अयोग्य वर से विवाह कर देते हैं, अथवा बेच देते हैं।
पुरुष के विधुर होने पर उसको दोबारा विवाह रचाने में कोई आपत्ति नहीं होती, परन्तु नारी के विधवा होने पर आज भी पिछड़े इलाकों में लट्ठ के बल पर ब्रह्मचर्य का पालन कराया जाता है।
शादी के पश्चात् सिर्फ नारी को ही अपना सरनेम बदलने को मजबूर किया जाता है।
सिर्फ महिला को ही श्रृंगार करने की मजबूरी क्यों? श्रृंगार के नाम पर कान छिदवाना, नाक बिंधवाना नारी के लिए ही आवश्यक क्यों? कुंडल, टॉप्स, पायल, चूड़ियाँ, बिछुए सुहाग की निशानी हैं अथवा पुरुष की गुलामी का प्रतीक?
आज भी नारी का आभूषण प्रेम क्या गुलामी मानसिकता की निशानी नहीं है? शादीशुदा नारी की पहचान सिंदूर एवं बिछुए जैसे प्रतीक चिह्न होते हैं, परन्तु पुरुष के शादीशुदा होने की पहचान क्या है? जो यह बता सके कि वह भी एक खूंटे से बन्ध चुका है, अर्थात विवाहित है।
सिर्फ महिला ही विवाह के पश्चात् ‘कुमारी’ से ‘श्रीमती’ हो जाती है पुरुष ‘श्री’ ही रहता है।
हमारे समाज में महिलाओं को सहनशीलता का गहना पहनाया जाता है और पुरुष को स्वावलम्बी और मनमाना रवैया अपनाने की छूट दी जाती है। बचपन से ही विभाजन का यह बीज जब बड़ा होकर वृक्ष का रूप ले लेता है, तो स्त्रियों के अपमान की विकृत मानसिकता को जन्म देता है।
अब प्रश्न यह उठता है कि इन मामलों की बढ़ती संख्या पर रोक कैसे लगायी जाए? क्या केंद्र सरकार या राज्य सरकार मिलकर इसे रोक सकती है या पूरे समाज को और सरकार को मिलकर इस समस्या से लड़ना पड़ेगाl इसके इलाज की प्रक्रिया जन्म से ही आरम्भ की जानी चाहियेl
कड़े दंड का प्रावधान कर देने मात्र से विकृत मानसिकता नहीं बदलने वालीl बलात्कार, स्त्रियों के साथ छेड़छेड़ जिस संस्कृति की उपज है, उससे छुटकारा पाना आवश्यक है l इससे छुटकारा पाये बगैर स्त्रियों पर बढ़ते अत्याचारों रोकने के तात्कालीन समाधान सफल नहीं हो सकतेl अगर कड़ी से कड़ी सजा का प्रावधान कर भी दिया जाये तो बलात्कार, छेड़छाड़ जैसी घटनाओं की पुनर्रावृति रोकने के दीर्धकालीन उपाय करने होंगेl महिलाओं को लेकर समाज में तरह-तरह की विसंगतियां हैंl उन्हें मनोरंजन हेतु फिल्मों में, टेलीविजिन पर बहुत फ़ूहड़ ढंग से पेश करते है; और बाजार ने स्त्री को प्रदर्शन की वस्तु बना दिया हैl इन विडंबनाओं के रहते स्त्री को उसका सम्मान नहीं मिल सकता। आज लैंगिक संवेदनशीलता बढ़ने की आवश्यकता है। स्त्री घर से निकलेगी अपनी इच्छानुसार कपड़े धारण करेगी, अपने साथ हो रहे गलत व्यवहार के विरोध में आवाज़ उठायेगीl जो इस सब का विरोध करते हैं या लड़कियों के प्रति होने वाले गलत व्यवहार को सही मानते हैं, ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कर होना चाहिए और इन्हें घर बैठने की आवश्यक्ता हैl
हमारे समाज में वैदिक काल से संस्कृति व संस्कारो की रक्षा की जाती रही हैl हमारे वेद, पुराण, साहित्य, पौराणिक कथाएं हमें संस्कृति को समझाने का प्रयास करती हैं और नीतिबद्ध तरीकों से चलते हुआ सुकर्म करते हुए जीने की कला सिखाती हैl अपने से बड़ों और नारी का सम्मान सिखाती है। हर व्यक्ति अपने धर्म का पालन करे। यही समाज निर्माण का मूलमंत्र है। समाज के सुचारू रूप से संचालन हेतु परिवार अस्तित्व में आये और हमारे ऋषियों के उपदेशों का आदर्श मानकर समाज उसी के अनुरूप चलने लगाl समाज में बड़ों और स्त्रियों को आदर की दृष्टि से देखा जाता था, लेकिन आज के आधुनिक जीवन में पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव में न बड़ों का सम्मान रह गया है और न नारी का सम्मान बचा है। हम अपनी सनातन संस्कृति से दूर होते जा रहें है। परिणाम स्वरुप स्त्रियों के प्रति लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन होने लगा है। उनके प्रति सम्मान समाप्त होता जा रहा है।
स्त्रियों के सम्मान व सुरक्षा को सुनिश्चित करने हेतु हमें अपनी संस्कृति और संस्कारों से जुड़ा रहना अत्यंत आवश्यक है। स्त्रियों के प्रति बढ़ने वाले अपराधों को रोकने में हम तभी सफल हो सकेंगे, जब दिग्भ्रमित युवकों को अपनी संस्कृति और परम्परा से अवगत करा पाएँl सरकार के प्रयास तभी सफल हो पायेंगे जब हमारे समाज में स्त्रियों के सम्मान के प्रति एक सकारात्मक वातावरण तैयार होl
आज वक्त आ गया है, नारियों के साथ युगों-युगों से किये जा रहे अन्यायों के विरूद्ध खडे़ होने का और एक सामूहिक आंदोलन अलग-अलग तरीके से चलाना बेहद ज़रूरी हो गया है। इस सबकी अभिव्यक्ति के लिए पत्रकारिता, एक सबसे अच्छा और व्यापक मंच है।
जिससे भारतीय नारी को पुरुष के बराबर सम्मान देकर, अधिकार उठाकर स्त्री मुक्ति आंदोलन को एक क्रांति का रूप देकर गति प्रदान की जाए और नारी को धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक रूप से पुरुष के समान दर्जा प्रदान किया जाए। साथ ही जो नारी के उत्पीड़न-शोषण को रोकने, सामाजिक परम्पराओं में गुँथी जाति ,धर्म, लिंग आधारित विषमता को दूर करने में सहायक हो।
– मोनिका अग्रवाल