कविता-कानन
नारी मन
कितना सुन्दर होता है
परम्पराओं को गुनती
नारी का यह मन
जिसमें बसा रखा है उसने
सभी ऋतुओं का थोड़ा-थोड़ा रंग
हर तीज-त्योहार की लाली ले
नव श्रृंगार धरे यह
हर पल हर दिन
कभी पीत वर्ण की माल पहन
या पहन पीले परिधान
जैसी ऋतु हो आने वाली
ढाल ले स्वयं को
बस मान कर, अपना अभिमान
कभी भावों से टूटे
तो झरती-सी लगे पतझर-सी
तो कभी ओढ़ कर सावन को
झरे यह बारिश-सी
तपती धूप हो या हो घना अंधियारा
कभी छाँव बन जाये
तो कभी
हाथ थाम पथिक का
गन्तव्य तक यह पहुंचाए
ओढ़ ले सब कष्ट कन्टक
समेट कर स्वयं में
जब-जब यह
अपनी हठ पर अड़ जाये
हो कितना भी ठंडा व्यवहार
यह अपनी ऊष्मा दे उसे
जीवन से भर जाये
चारों रितुओं को समेट स्वयं में
यह नारी मन
हर दिन, हर पल देखो
कैसे बिखरा-बिखरा जाये
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भीड़
व्यक्ति की
आसुरी प्रवृत्तियों का
आईना है भीड़
जो कतराते रहे उम्रभर
अधकचरे विचारों के
कपड़े उतारने से
वही बेफिक्र हो
उतारते हैं
अधूरी ख्वाहिशों के जैसे कपड़े
इसी भीड़ के अन्धकार तले
जब शून्य होने लगे विवेक विचार
तब थाम ले
आवेग का तूफान
बन हथियार
किसी एक का कलुषित मन
कुछ ऐसी ही
हिंसक प्रवृत्तियों का
आईना है भीड़
जाने कितनों के
भावों पर सवार हो
अपने-अपने मक़सदों को
पूर्ण करती
यह स्वार्थिन भीड़
– प्रगति गुप्ता