लेख
नारी कामिनी नहीं- डॉ. सफ़लता ‘सरोज’
आज हर चीज को नारेबाजी का रूप देना एक फैशन सा बन गया है। यही हाल है नारी शोषण के विरूद्ध उठने वाली आवाजों का भी है। आंदोलन चलाना या आवाज उठाना ग़लत नहीं है। इन आंदोलनों की वैचारिक भूमि कितनी ठोस है? ये विचारणीय है, इसमें कितनी ईमानदार व सच्चाई है। मुझे तो गलत लगता है ये आंदोलन, ये नारेबाजी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कुछ और हासिल करनें का माध्यम बनती जा रही है। कहीं महत्त्वाकांक्षा की अति तो कहीं कूटनीति की स्वार्थपरता ही दिखाई देती है। नारी शोषण को वर्ग संघर्ष से जोड़ना इसी कुत्सित मनोवृत्ति या कूटनीति का ही तो उदाहरण है। दर्द किसी जाति, वर्ग विशेष का नहीं, दर्द सबका एक समान होता है। फिर उसे अलग अलग फ्रेमों में फिट करनें की साजिश। निजस्वार्थ नहीं तो और क्या है? मुझे तो ये आन्दोलन, हड़तालों, नारेबाजी कोई भी आन्तरिक भावनाओं के प्रतीक नहीं दिखते। मैं देखती हूँ कला की आराधना के समय, नौकरी करते समय घर के अन्दर या बाहर कहीं भी नारी अपने नारित्व को पूर्ण सुरक्षित एवं संदेहों से विलग नहीं पाती। यहां तक अनाथालय, विधवा आश्रम, महिला आश्रमों में भी संरक्षण के नाम पर उनका क्रय होता देखा गया है। कॉलगर्ल्स की संख्या भी घटने के बजाय निरन्तर बढ़ती जा रही है। ऐसे में छापामारी, नारेबाजी क्या आपको भी महज दिखावा मात्र नहीं लगती।
दहेज और शादी की मान्यताओं को लेकर जो लड़कियों का शोषण किया जा रहा है। क्या समाज उसे अनदेखा कर सकता है। लेकिन इस सबके बावजूद भी मैं उन स्वयं को कहीं न कहीं दोषी मानती हूँ क्योंकि वह स्वयं अपनें दुरूपयोग के लिए एक हद तक जिम्मेदार है। नारी का जिस भोग्य रूप के खिलाफ नारी मुक्ति आंदोलन चला, सब नहीं बहुतेरी नारियां, पर क्या स्वयं उसी भोग्या रूप को सबसे ज्यादा अहमियत नहीं देतीं? सुननें मे हमारी बहनों को ये बात शायद अप्रिय लगे। आज की नारी जितना फैशन के प्रति जागरूक हुई है उतनी अन्य किसी क्षेत्र में नहीं। मुझे तो लगता है स्वतंत्रता पूर्व की नारी आज से ज्यादा जागरूक थी। आज की शिक्षित नारी सतही उपलब्धि से ही संतुष्ट दिखती है। ये जागरूकता नहीं, मानसिक अस्वस्थता को ही द्योतक कहा जायेगा। अपने को आधुनिक या मॉडर्न कहलाने वाली नारियों को मैं बताना चाहूँगी कि आधुनिकता का अर्थ बेहूदा कपड़े पहनने, डिस्कोथेेक में पाप संगीत और चमचमाती रोशनियों के बीच हाउ एक्साइटिंग नाच नाचने। फ्री सेक्स अपने ब्वाय फ्रेण्ड के साथ फंटास्टिक टाइम बितानें। नव वधुओं का ससुराल में जाते ही पति को छोड़ सबको आंखे दिखाने लगना, पति के घर पर अधिकार जता, पति को परिवार से काटने और अन्य सदस्यों को अपमानित करने वाली स्त्रियां भले ही अपनें को आधुनिक या स्वतंत्र विचारों वाला कहें पर न तो ये आधुनिकता है न स्वतंत्रता। अपने दायित्वों को भूल केवल अधिकार पहचानने वाली यह कौनसी आधुनिकता है? आधुनिकता का अर्थ ब्वायकट के साथ मांग में ढेर सारा सिंदुर भरना, अधिकारों के नाम पर स्वार्थी होना नहीं बल्कि वैज्ञानिक प्रगतिशील दृष्टिकोण अपना कर अन्ध परम्परा व रूढि़यों को काट आगे बढ़ना ही स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता का अर्थ पुरूषों के लिए सस्ती ढंग से प्राप्य होना नहीं बल्कि उसे यह अहसास दिलाना है कि वह भोग्या और सिर्फ कामिनी ही नहीं। यदि आधुनिक नारी यह त्याग, यह साधना नहीं कर सकती तो मुक्ति या स्वतंत्रता की बात करना व्यर्थ है।
मैं बताना चाहूँगी आधुनिकता का अर्थ है- अपनी पहचान। अपने बारे में एक स्पष्ट अभिमत और उसी अनुसार स्वयं का व्यक्तित्व विकास। उस क्षमता सामर्थ्य, कर्मठता, निर्भीकता और आत्मविश्वास को पैदा करना, जिससे हर पुरूष नारित्व का सम्मान कर सके। उसकी शक्ति को पहचाने। उससे प्रेरणा प्राप्त कर सके। उसके लिए चाहिए कि अपनी कमजोरियों पर विजय, चरित्र शक्ति और संकल्पशक्ति। बौद्धिक विकास और वैज्ञानिक तक सम्मत दृष्टिकोण जिससे संकुचित सीमाओं का विस्तार हो, कमियों ओर हीनताओं का उद्दात रूपान्तरण हो और हो विचार प्रेषण की शक्ति न कि प्रदर्शनकारी वृत्ति जो कि पुरूषों को उद्दाम वासनात्मक प्रवृत्ति को उद्दिप्त करने में काफी हद तक उत्तरदायी है। नारी यदि वास्तव में स्वतंत्र या मुक्त होगी तो वासना से मुक्ति पाने के बाद ही। जब तक वह स्वयं कामिनी बनी रहेगी तब तक मुक्ति आन्दोलनों का कोई अर्थ ही नहीं।
मैं देखती हूँ कि हमारे साहित्यकारों नें भी ‘जगल में मंगल’ कम ही उगाए। पारिवारिक साहित्यक पत्र-पत्रिकाओं में भी सनसनी पूर्ण चीज़ें अधिक बिकती है। न्यूड पोर्नोग्राफी , ब्लू फिल्मों की भी हमारे समाज में काफी पूछ है। हमारी दृष्टि कला से अधिक कला के व्यवसाय पर, नग्नता के सौन्दर्य से अधिक नग्नता के भोग पर है। सच्चाई ये है। हमारी मूल भारतीय मानसिकता और दृष्टि बाहरी प्रभावों और संस्कृतियों से इतनी ज्यादा ढक गई हैं कि उनका मूल रूप खोज पाना भी मुश्किल सा हो गया है। भारत ही नहीं बल्कि समूचे विश्व की स्थितियां इतनी तेजी से बदल रही है और एक दूसरे से प्रभावित हो रही है कि किसी एक देश की अपनी अलग संस्कृति बचाए रखना असंभव सा हो गया है। जहां हमारी संस्कृति और सभ्यता को विदेशी लोग आत्मसात् करते दिखते है। वहीं स्वयं भारतीय पाश्चात्य के रंग में इस कदर रंग चुके हैं कि अपनी संस्कृति सभ्यता को सिर्फ भूले ही नहीं बल्कि नये सिरे से नकारते दिखते हैं। उन्हें गर्व नहीं बल्कि दुःख और क्षोभ है। पाश्चात्यता के रंग में रंगे अपनें को माड कहलाने वाले लेाग ये भूल गये हैं कि ये उन्नति नहीं सिर्फ पतन ही है। लेकिन अफसोस इस लहर या बहाव को न नकारा जा सकता है, न बुद्धिजीवी सोच से बदला जा सकता है। पर मैं इतना अवश्य कहना चाहूँगी कि हमारी भारतीय संस्कृति पहले भी श्रेष्ठ थी और आज भी श्रेष्ठ है और कल भी रहेगी। वैसे पारिवारिक टूटन उसका इकाईयों में बंट जाना और मानसिक रूप से व्यक्ति का नग्न होते जाना इत्यादि परिस्थितियां भी इस वातावरण को जन्म देने में सहायक बनी हैं। बदहाल स्थिति शोचनीय है। ये किस सीमा तक पहुंचेगी कहना कठिन है।
वैसे स्त्रियों के प्रति बढ़ते अपराध विकृत समाज व्यवस्था के कारण ही है। मैं तो केवल इतना ही कहना चाहूँगी कि ये परिवर्तन केवल स्त्रियां ही ला सकती हैं। वे चाहे तो समाज का नक्शा बदल सकती हैं, बस उन्हें चरित्रवान और अबला से सबला बनना होगा। लाचार और बेचारी नहीं बल्कि दुर्गा का अवतार बन दिखाना होगा। पुरूष की शक्ति उसकी प्रेरणा बननें के लिए स्वयं को उससे बहुत ऊँचे उठना होगा। लेकिन इसका मतलब कतई नहीं कि हम पुरूष के सहयोग के बिना ही कुछ कर सकती हैं। हमारी लड़ाई पुरूष जाति से नहीं है। आपको शायद याद होगा पुर्नजागरण काल में नारी जागृति व नारी स्वतंत्रता की आवाज पुरूषों ने ही उठाई थी। नारी स्थिति में सुधार लाने के आन्दोलन भी उन्होंने ही चलाए। सच तो यह हेै कि हमारी मूल भावना सहयोग की होनी चाहिए प्रतिद्वंदिता की नहीं। यह प्रतिद्वंदिता ही है, जो आज बीच में आकर नारी को पुरूष के सहयोग और संरक्षण से वंचित कर रहा है और समाज में भोग मूल्यों की प्रधानता के कारण ही राखी बंधवानें वाले हाथ भी पैशाचिक प्रहरी हाथों में परिवर्तित होते जा रहे है। नारी के शक्ति बनने का अर्थ इन प्रहारी हाथों से निबटना ही है। सहयोगी हाथों को झटकना नहीं। स्त्री पुरूषों के बीच सहज व्यवहार और एक दूसरे का सहयोग ही आधुनिक समाज की हर समस्याओं का हल है। स्वयं को मात्र शरीर से ऊपर उठाना है। वातावरण को उत्तेजित व विकृत बनाने वाले सभी माध्यम सिनेमा, साहित्य आदि का बहिष्कार कर एक सशक्त आन्दोलन चलाना है। और लड़के-लड़कियों के पालन पोषण में भेदभाव को मिटाकर एक स्वस्थ्य समाज का निर्माण करना है। यही समाज का बुनियादी परिवर्तन होगा।
– डॉ. सफलता सरोज