कविता-कानन
नदी, पहाड़ और औरत
ईजा को देखती हूँ बातें करते
गाढ़ गधेरों, नदियों से
और कभी कभी पहाड़ों से
तो महसूस हुआ यकीनन
पहाड़ों में औरतें
दो तरह की होती हैं
एक नदी और दूसरी पहाड़-सी
नदी-सी औरत बस बहती है
संवेदनाओं के सुरों में
कभी चंचल, कभी शान्त
कभी मुखर भावों में
अनजानी राहों में हिम-सी
पिघलती हुई छोड़ आती है
अपनी ऊँचाई,अपनी मिट्टी,
अपनी पहचान और अपने
मन के अबाध सौन्दर्य से
खुद को भुल कर सींचने लगती है
आदम और उनकी जड़ों को
कभी जब छलछला कर उतर जाती है
वह जीवन की तलहटी में तब भी
नहीं छोड़ती वह अपनी आत्मा
देह में बसी और खोल देती है अंतस
जीवन भर सबको
नम करते करते जाने कब किस
मोड़ पर एकाएक
समन्दर को सौंप देती है अपना अस्तित्व भी
और खो जाती हैं गंगा, गोमती, मंदाकिनी,
शारदा, भागीरथी जैसे कई नाम
जो मां और मायके की
शीतल हिमनदी-सी बयारों में कभी मिले थे उसे
और दूसरी पहाड़-सी औरत
कठोर होकर समेट लेती है
अपनी कोमलता
छिपा लेती है सारे भाव
वह पुरुष बन जाती है
कभी प्रहरी और कभी संबल बन जाती है
बस रोना भूल खड़ी रहती है बरसों
जीती है कई मंजर पहाड़-से जीवन के
जब तक कोई आकाशीय बिजली, बादल
गरज कर तोड़ न दे उसका मौन
या उसका स्वाभिमान
फिर बिखर जाती है विनाश की चरमता तक
कभी दहाड़ मार कर रो पड़ती है
जो आज तक नहीं कहा वह भी
कह जाती है अनायास
ऐसे में कभी कभी वह
झुक कर गले लगती है
बहती नदी के
नदी और पहाड़ बातें करते हैं और
बाँट लेते हैं आपस में
जीवन के कुछ अपने हिस्से
एक-दूसरे से।
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दूर्णागिरी
पाण्डवखोली के समीप
दूर्णागिरी
द्रोणांचल शिखर
माया-महेश्वर
प्रकृति-पुरुष
दुर्गा कालिका
क्या हो तुम?
कहाँ हो तुम?
सिर्फ हिमालय में
या मेरे संर्वाग में!
हाहाकार करती
एक गहन इतिहास
छुपाए हिमालय की तलहटी में
वर्षो से एक कौतुहल
एक जिज्ञासा मेरी
या अबाध आस्था!
कई बार देखा
या यूँ कहो
हर बार सुबह उठकर देखा ‘रानीखेत’ से
पल-पल पिघलते हिमालय को
कभी हरे,सफेद, धानी
कभी नांरगी बनते फिर
शाम के ढलते सूरज में
सँवरती पहाड़ियों को
वो साक्षी रही तब-जब
मेरी शिकायतों के अंबार थे
किन्तु फिर भी लुभाती थीं
वो दूर से दिखती,
रंग बदलती पहाड़ियाँ
वो दरख्त, वो बांज
देवदार, सुरई,अकेसिया
की गहन लंबी कतारें
रात होते ही वो पहाड़ियाँ
असंख्य दीपमालाओं की
रोशनियों से जगमगाती
तब घनी सर्द हवाओं में
तुलसी के नीचे
तुम्हारे नाम से रखे दिये में
खुद को ज़िन्दा रखने की
ताकत एकाएक आने लगती
हवा में टिमटिमाता दिया
आज भी जलता है।
– नीलम पांडेय नील