कविताएँ
देगा कौन… !
तुम्हारी उनींदी आँखों से
मैंने मुमूर्ष सपनों को
फिर सँवरते देखा है,
और देखा है,
अपने ही अंदर,
अंतर्द्वंद्वों संग
उन्हें लिपटकर ख़ामोश होते हुए.
तुम अंगड़ाईयों-सी
पूरी रात में मेरी,
कभी कुछ यों शरीक हुई;
और तेरे मदहोश ख़याल
मेरे वजूद पर
चस्प रहे कुछ इस तरह
कि मैं स्याह रात का
अपनी रूह में
हर रात
इकलौता गवाह बना रहा.
अपनी भटकती रातों का भी
तुम्हारे प्रेम-बाज़ार में
एक खुली
मैं अब नीलामी चाहता हूँ,
यों कि तुम्हारे एहसासों का
हर ख़ाका अब आज
यहाँ जो बिकाऊ है.
चाहिए होगा
तुम्हें भी,
भुलावे में किये
अपनी मदमाती मुहब्बत की
कुछ तो बेशर्त क़ीमत.
जो सको ले जाओ,
सबों-सी तुम अपना हक़,
कि चाहिए हर किसी को
कुछ-न-कुछ
इस निष्ठुर प्रेमोन्माद में,
यहाँ कुछ भी देता कौन है…!
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बताओ न !
कहाँ कोई पूछता है,
कैसे
प्रेम की गिरहों से
तुम्हें तराशकर निकाला मैंने,
और किस तरह
तेरे समन्दर के गर्भ-गृह से
तुम्हारे उग्र उफान को
किया था क़ैद,
अपनी सशक्त अंजुरि में!
कहो न,
पूछता कौन है अब
हमारी मौजूँ रातों की कहानी
कि जिनके स्याह रंगों में
हमने प्यार की अपनी
घनी और मदहोश,
कभी रवानी लिखी थी!
हम हज़ार राहों में
कभी जहाँ मिलकर चले,
और प्रेम-वेदना को
अपनी आबो-हवा में लपेटकर
उसकी सलामती में
नाहक ही नमाजी बने,
वक़्त की तंग यादों ने भी,
बताओ न,
वहाँ कहाँ कोई,
अपनी उखड़ी साँसें ही संजोयी!
पर यह जानते हुए भी
मिट ही जाएगा इक दिन
इस निष्ठुर बारिश में
प्रेम-पीर का पूरा वजूद,
मैं फिर भी
बेपरवाह चींटियों की तरह
इक उम्र तक
सपनों की बाम्बियाँ गढ़ता रहा.
– अमिय प्रसून मल्लिक