दलित कविताओं में आत्मचेतना के विविध स्वर
वर्तमान समय में अस्मिताओं के संघर्ष में दलित विमर्श एक ज्वलंत मुद्दे के रूप में सामने आता है। दलित शब्द का व्युत्पत्तिपरक अर्थ है, जिसका दलन या दमन हुआ है अर्थात जिन लोगों पर समाज के कठोर नियम लागू कर उनका शोषण किया जा सके। इस तरह दलित शब्द् एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता हुआ इस बात को प्रमाणित करता है कि दलित शब्द एक वर्ग विशेष का ही ध्योतक नहीं है बल्कि संसार में जितने भी शोषित हैं जिन पर अत्याचार और शोषण हुआ हो वे सभी दलित की ही श्रेणी में आएंगे, चाहे स्त्री हो, सवर्ण हो, अश्पृश्य हो, अमीर हो या गरीब। दलित विमर्श अपने आंदोलनकारी रूप द्वारा साहित्य, समाज और राजनीति पर अपना प्रभाव जमाये हुए इसके परिदृश्य को और अधिक व्यापक एवं प्रसारित करता हुआ समानता और बंधुत्व की भावना को बढ़ाने की कोशिश है। साहित्य में इसकी मुखर अभिव्यक्ति अनेक दलित लेखकों के आत्म कथाओं, कहानियों और कविताओं के माध्यम से देखने को मिलती है। हर विचार के पीछे उसका एक अपना वैचारिक आधार होता है और दलित साहित्य का वैचारिक आधार अंबेडकरवादी दर्शन, ज्योेतिबा फुले तथा महात्मा बुद्ध के ‘अहिंसा परमाधर्म’ जैसे भाव को एकाकार करता हुआ सद्भावना, एकता की भावना को सुदृढ़ करने का ही प्रयास है। डॉ. अंबेडकर दलितों के उत्थान को राष्ट्र के उत्थान से जोड़ते हुए साहित्यकारों को संबोधित करते हुए कहते हैं- “उदात्त जीवन मूल्यों एवं सांस्कृतिक मूल्यों को अपने साहित्य में स्थान देना चाहिए। साहित्यकार का उद्देश्य संकुचित न होकर विस्तृत एवं व्यापक हो। वे अपनी कलम को अपने तक ही सीमित न रखें, बल्कि उनका प्रखर प्रकाश देहाती जीवन के अज्ञान का अंधकार दूर करने में हो। दलित उपेक्षितों का बड़ा वर्ग इस देश में है। इस बात को सदा याद रखें। उनका सुख-दुख एवं उनकी समस्याएं समझ लेने की कोशिश करें। साहित्य के द्वारा उनका जीवन उन्नत करने के लिए प्रयत्नरत रहें। यही सच्ची मानवता है।’’1
दलित साहित्य के फलक को विस्तृत करने में आत्मकथाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, क्योंकि आत्मकथाओं में उनके भोगे हुए यथार्थ का संचित अनुभव होता है। आत्मकथाओं और कहानियों का जिक्र हमेशा दलित साहित्य के अंतर्गत आता है, पर देखा जाए तो दलित चेतना को विकसित करने में कविताओं ने भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, पर लगभग सभी दलित लेखकों ने कविता के माध्यम से ही अपनी तकलीफ, उपेक्षित होने की पीड़ा को आत्मसात कर वाणी दी। दलित कविता में सबसे पहला नाम हीरा डोम का आता है, जिनकी कविता ‘अछूत की शिकायत’ 1914 में सरस्वती में छपी थी जो दलित चेतना से ओत-प्रोत विषमतामूलक समाज की झांकी को शब्दबद्ध करने का प्रयास किया था। नामदेव ढसाल की कविताओं में भी दलित चेतना के स्वर ज्वलंत रूप में दिखाई पड़ते हैं, जिनकी अभिव्यक्ति उनकी ‘अब-अब’ कविता में स्पष्ट ही दिखलाई पड़ती है-
“सूरज की ओर पीठ किए, वे शताब्दियों तक यात्रा करते रहे।
अब-अब अंधियारे की ओर यह यात्रा हमें बंद करनी चाहिए।
अब-अब, हमें उस बोझ को उनकी पीठ से हटाना होगा इस वैभवशाली शहर को बनाने में हमारा खून बहा है।
इसके बदले में हमें केवल पत्थर खाने को मिले हैं।
अब-अब सूरजमुखी के फूल की तरह हमें अपना चेहरा सूरज की ओर कर लेना चाहिए।’’2
इस कविता में नामदेव ढ़साल ने सदियों से शोषण का संताप झेल रहे दलितों को उससे बाहर निकल कर स्वयं अपना मार्ग प्रशस्त करने पर बल दिया है। आत्मसजग, आत्म चेतना की भावना को जागृत कर शोषण रूपी अंधकार से बाहर निकलकर सूरजमुखी के फूलों की तरह सूर्य की ओर मुख अर्थात अंधेरे से प्रकाश की ओर कदम बढ़ाते हुए एकजुट होकर अपने अधिकार बोध, स्वतंत्रता, समानता की भावना को विकसित करें।
आर्थिक विपन्नता और सामाजिक विषमता का अत्यंत ही दारूण चित्र हम डॉ. धर्मवीर की कविता में देखते हैं-
“शोषण की अमरबेल, दमन की महागाथा यातना के पिरामिड उत्पीड़न की गंगोत्री
ऋणों के पहाड़ ब्याज के सागर, निरक्षरों के मस्तिष्क,
महाजनों की बही रूक्कों पर अंगूठों की छाप ऊटपटांग जोड़ घटा, गुणा भाग देना सब एक।’’3
इस तरह डॉ. धर्मवीर ने सामाजिक विषमताओं की आड़ में आर्थिक विपन्नता की विद्रूपताओं का मार्मिक अंकन कर दलितों के संघर्षमय जीवन को वाणी दी है। दलित कवि लालचंद राही ने अपनी ‘वृक्ष’ शीर्षक कविता में दलितों के क्षत-विक्षत स्थिति को अभिव्यक्ति देते हुए उनकी पुन: प्रस्फुटित होती स्थिति को दर्शाया है-
” अब वृक्ष की कटी-छंटी टहनियां पुन: प्रस्तुटित होने लगी हैं द्रुत गति से बीसवीं सदी के उत्तररार्द्ध में।’’4
ओमप्रकाश बाल्मीकि ‘सदियों का संताप’ शीर्षक कविता संग्रह के ‘चोट’ कविता में दलितों की दयनीय और कारुणिक स्थिति का चित्रण करते हुए कहते हैं-
“पथरीली चट्टान पर हथौड़े की चोट
चिंगारी को जन्म देती है जो गाहे-बगाहे आग बन जाती है आग में तपकर
लोहा नर्म पड़ जाता है ढ़ल जाता है मनचाहे आकार में हथौड़े की चोट में।
एक तुम हो, जिस पर किसी चोट का असर नहीं होता।’’5
‘शंबूक का कटा सिर’ शीर्षक कविता में ओमप्रकाश बाल्मीकि जी ने शंबूक और एकलव्य जैसे पात्र को उठाया है, जिसके त्याग, बलिदान और मृत्यु को उपेक्षणीय बना इतिहास के पन्नों से ओझल कर दिया, इन सबकी आवाज को कवि वाणी देते हुए कहते हैं-
“यहां गली-गली में राम हैं, शंबूक हैं, द्रोण हैं, एकलव्य हैं फिर भी सब खामोश हैं, कहीं कुछ है जो बंद कमरों से उठते क्रंदन को बाहर नहीं आने देता, कर देता है रक्त से सनी उंगलियों को महिमा मंडित। शंबूक। तुम्हारा रक्त जमीन के अंदर समा गया है, जो किसी भी दिन फूटकर बह जाएगा ज्वालामुखी बनकर।’’6
इस तरह कवि ने दलितों के सहनशीलता की तुलना ज्वालामुखी से करते हुए उनके क्रांतिकारी स्वर को मुखरित किया है।
भारत जैसे बहुभाषायी और विविधतापूर्ण देश में जातिगत भेदभाव को दूर कर समानता और मानवता की भावना को रेखायित कर सी. बी. भारती ‘आदमी’ शीर्षक कविता में कहते हैं-
“आओ हम सब उठा लें कुदाली फावड़े और कलम और दफना दे गहरे इस जातिवादी, वर्णवादी-व्यवस्था को जिससे फिर से जन्म ले सके आदमी
केवल आदमी, मुकम्मल आदमी।’’7
जयप्रकाश कर्दम की कविताओं में सामाजिक शोषण के विरुद्ध आक्रमक स्वर दीख जाते हैं, जो इस प्रकार हैं-
“मेरे ऊपर होने लगे जुल्म और ज्यादतियों का ज़ोर गवाह है इतिहास को रौंदता रहा है, हमेशा से अहिंसा को हिंसा का अट्टहास लेकिन अब फड़कने लगी हैं मेरी भुजाऍं और कुलबुलाने लगे हैं फावड़ा, कुल्हाड़ी और हथौड़ा पकड़े मेरे हाथ, काट फेंकने को उन हाथों को जिन्होंंने बरसाये हैं अनगिनत कोड़े मेरी नंगी पीठ पर।’’8
दलित साहित्य अंबेडकरवादी जीवन दर्शन से प्रभावित है। इसी प्रतिबद्धता को आधार बनाकर कंवल भारती अपनी कविता में अंबेडकरीय जीवन दर्शन और मुक्ति संघर्ष को व्यक्त करते हुए कहते हैं-
“जो मुक्ति संग्राम लड़ा था तुमने
जारी रहेगा उस समय तक जब तक कि हमारे मुर्झाये पौधों के हिस्से का सूरज उग नहीं आता है।’’9
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि दलित लेखकों ने अपनी कविताओं में अत्यंत मारक ढंग से समाज के अनछुए पहलुओं को चित्रित कर अपने निजी दुखों को शब्दबद्ध किया है। दलित चिंतक कंवल भारती दलित कविता की चेतना को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं- “दलित कविता उस तरह की कविता नहीं है, जैसे आमतौर पर कोई प्रेम या विरह में पागल होकर गुनगुनाने लगता है। यह वह भी नहीं है, जो पेड़-पौधों, फूलों, नदियों, झरनों और पर्वतमालाओं की चित्रकारी में लिखी जाती है। वह किसी का शोकगीत और प्रशस्तिगान भी नहीं है। दरअसल यह वह कविता है, जिसे शोषित, पीड़ित दलित अपने दर्द को अभिव्यक्त करने के लिए लिखता है। यह वह कविता है, जिसमें दलित कवि अपने जीवन संघर्ष को शब्दों में उतारता है। यह दमन, अत्याचार, अपमान और शोषण के खिलाफ युद्धगान है। यह स्वतंत्रता, समानता और मातृभावना की स्थापना और लोकतंत्र की प्रतिष्ठा करती है। इसलिए इसमें समतामूलक और समाजवादी समाज की परिकल्पना है।’’10
दलित चिंतकों ने आर्थिक विपन्नता और सामाजिक विषमता का जो चित्र कविता में खींचा है, वह अन्यत्र दुर्लभ है।
संदर्भ सूची-
1. आलोचना पत्रिका, संपादक- अरुण कमल, अंक-51, आलेख-दलित कविता और डॉ. अंबेडकर विचार- दर्शन- ओमप्रकाश बाल्मीसकि, पृ.-121, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्लीं।
2 . वही, पृ.-120
3 . बाल्मीथकि, ओमप्रकाश, दलित साहित्य. का सौंदर्यशास्त्रक, राधाकृष्णा प्रकाशन, नई दिल्ली्, पहला संस्क रण-2001, दूसरी आवृत्ति- 2008, पृ.-77
4 . वही, पृ.-83-84
5 . www.kavitakosh.org
6. वही
7 . आलोचना पत्रिका, संपादक –अरुण कमल, अंक-51, आलेख-दलित कविता और डॉ. अंबेडकर विचार- दर्शन- ओमप्रकाश बाल्मीाकि, पृ.-121, राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्लीक।
8 . वही, पृ.-123
9. वही, पृ.-121
10. वही, पृ.-124
– श्वेता रस्तोगी