संस्मरण
दमा दम मस्त कलन्दर
बात बहुत पुरानी है एकदम छुटपन की..अब ये मत पूछिये कि उम्र क्या रही होगी तब ! गणित बचपन से ही कमज़ोर विषय रहा है तो गुणा-भाग करना तनिक मुश्किल ही ठहरा । वैसे मान लीजिये…इतने बड़े भर थे कि…वो शाम आज तक याद रह गयी ।
ये उन दिनों की बात है जब दादाजी डी एस पी हुआ करते थे और हमारी अम्मा तब ‘बाई साब’ थीं । हमारी अम्मा की जिगरी सहेली हुआ करती थीं ग्वालियर के एस डी एम साहब की धर्मपत्नि जी ,तो भई कोई बड़े राज-नेता आ रहे हों या कोई देशी-विदेशी फिल्मी सितारे या फिर आनन्द जादूगर का शो हो कि अपोलो सर्कस…सब दोनों परिवारों के एक जगह जुटने का सामान हुआ करता था ।
हम बालकों के लिये ऐसी महफ़िलें इसलिये खास हुआ करती थीं क्योंकि एक तो ग्वालियर जाने के लिये स्कूल से छुट्टी बिना कहे करा दी जाती थी और दूसरा जीपों और पर्दे लगी एम्बेसडर में बैठने को खूब मिल जाता वर्ना तो घर से स्कूल और स्कूल से घर तक की सैर ,वो भी तीन पहिये के टीन की छत वाले रिक्शे में ही बालक जीवन समाया था ।
ऐसे ही एक दफ़ा छुट्टी करवा दी गई विद्यालय की और घर भर में ग्वालियर जाने की तैयारी होने लगी ! पता चला कि..विख्यात पाकिस्तानी गायिका रूना लैला जी,कबीर बेदी जी,सुनील दत्त साहब और बहुत से फिल्मी सितारे एकत्र होने वाले हैं । वैसे आजकल तो फिल्म प्रमोशन्स या इंडीविजुअल शो हुआ करते हैं ,,तब ये मज़मा क्यूँ लगा था कुछ याद नहीं ।
ग्वालियर जाने के नाम पर दिमाग मानो पोशम्पा खेलने लगा …कोई सर्कस, मैजिक शो या मेला रहता तो फिर ठीक था लेकिन इन बड़े नामों का सर-स्वाद उस उम्र में भला कहाँ ? जहाँ ठीक से कभी कोई फिल्म तक ना देखी हुई हो ।
बहरहाल सवारियाँ सज लीं जाने के लिये । हमें बाबा की सरकारी जीप में मुरैना से जाना था । मेरी सबसे बड़ी ख़ुशी यही थी ! जीप का वो नशा आज भी जस का तस बरकरार है,एक दफ़ा उज्जैन में स्टार्ट कर दी थी,, वो भी ढ़लान पर ! वो तो शुक्र रहा कि ब्रह्मा जी के बहीखाते में उम्र बहुत सारी बाकी थी अपनी,,, तो परमप्रिय ड्रायवर अंकल ‘यति’ ने बचा लिया ! सुपरमैन बन के ढुलकती जीप में कूद के चढ़ गये थे वो ।
ख़ैर नियत समय पर जीप हवा से खेलती कुलाँचें भरती हुई ग्वालियर पहुँची ,हम सपरिवार एस डी एम रामसिंह जी के घर पर । चूँकि कार्यक्रम शाम को था तो दोपहर का भोजन और फिर गपशप, महिलाओं की नयी खरीदारी दिखाना-देखना और आराम सब उनके घर ही हुआ । मुझे उनकी बड़ी बेटी के साथ रहना हमेशा भाता था ,वो मेरी बीना बुआ थीं । हम जब भी वहाँ जाते तो वो उनके घर के पीछे ,छत से दिखते हुये नाले की ओर उंगली कर के कहतीं कि…मोनू रानी लक्ष्मीबाई यहीं से कूदी थीं ! और फिर रानी की वीरता के किस्से शुरू हो जाते । समय उनकी सरलता में लिप्त होकर ना जाने कब फुर्र् से उड़ जाया करता था ।
अति प्रतीक्षित संझा की बेला भी करीब आ गयी, अर्दली की लायी चाय पीकर सब मुँह हाथ धोकर,कपड़े बदलने लगे । हम और छोटी बहिन भी अपनी फ्रॉक पहनकर तैयार ।
शाम को नियत स्थान पर पहुँचने के लिये बाबा की जीप और बड़े बाबा (एस डी एम साहब) की सफ़ेद पर्दे वाली झक्क एम्बेसडर कार तैनात खड़ीं थीं ,हम बीना बुआ ,उनकी और हमारी छोटी बहिन,चाची और मम्मी के संग अपनी जीप में ही गये ,महेन्द्र अंकल (बीना बुआ के भाई) अपनी अलग जीप लेकर गये,उसी में पापा और चाचा भी गये थे ।
कार्यक्रम स्थल पर पहुँचकर देखा तो अपार भीड़ लगी..मेरी घबराहट हमेशा ही भीड़ देखकर शुरू हो जाती है ,,पर हम लोग सुरक्षित घेरे में रहकर वी आई पी पंक्ति में जा बैठे । स्टेज के ठीक सामने की दूसरी पंक्ति ।
बड़ा भव्य सा स्टेज और रंगबिरंगी लाइट्स कितनी सुंदर शाम थी वो ,,कि आज तक वो शाम.. बंद पलकों में हिचकोले लेती है ।
कार्यक्रम आरंभ हुआ, ढ़ेरों गीत,ग़ज़लें और अपने ठीक आगे की पंक्ति में करीब बैठे सुनील दत्त जी और कबीर बेदी …। दादी और बड़ी दादी दोनों की नज़रें उन पर गयी और उनने सबको बोलना शुरू किया कि …ये रहे सुनीलदत्त और कबीर बेदी । सबकी निगाहें अब वहीं पर जाकर टिक गईं ।
मेरी बाल- दुनिया में इन नामों की तब बस इतनी सी जगह थी कि..सुनील दत्त साहब का नाम दादी-बाबा,पापा के डिस्कसन में बलराज साहनी,दिलीप साहब,संजीव कुमार साहब,जॉय मुखर्जी,राजकपूर आदि के संग बस निकलते चलते सुन रखा था । सुनील साहब की उस पल की विनम्रता और बहुत ही सहजता से उनका हम सबसे हाथ मिलाना आज तक याद रह गया मुझे ,दत्त साहब फिल्म इंडस्ट्री के उन चंद नामों में से एक हैं जिनका मैं आज भी दिल से सम्मान कर पाती हूँ । उस समय उनके लाल सेब जैसे गाल थे…सच में दूध चिट्टे से रंग पर मानो गाल की जगह सेब या टमाटर चिपका दिये हों कुदरत ने । उनसे जीवन में दो बार बहुत करीब से मिली हूँ और दोनों बार गुलाबी गालों में ही मुस्कुराते ,स्टारडम से बहुत दूर ,आम से जमीनी से दिखे वो ।
कबीर भी लंबे चौड़े खूबसूरत गबरू थे उस समय।
समय अपनी चाल से खिसक रहा था.. हाथ मिला मिलू कर सब तृप्त होकर कार्यक्रम का मज़ा लेने लगे तभी कुछ देर बाद स्टेज पर धमाका एंट्री हुई रूना लैला जी की । मेरे ज़ेहन में वो तालियों की गड़गड़ाहट, वो सीटियों पर सीटियाँ,वो रूना-रूना की वो जन- घोष आज तक गूँजती है ।
आज सोचती हूँ तो लगता है कि…सरहदें व्यक्तित्व को , हुनर को ,कला को …भला कहाँ बाँध पाती हैं ,ये सब तो बहती हवा के संग हर खाली जगह को भी भर देते हैं ।
झिलमिल ख़ुशरंग साड़ी में बेहद ख़ूबसूरत दिख रहीं थी रूना जी ,उस पर उनके काले लहराते लंबे केश गज़ब की कयामत बरपा रहे थे ।….हाँ सच में वो चेहरा ,उस पर चमक से भरी आँखें ,वो ज़हीन व्यक्तित्व और शालीन अदायें ,बेपरवाह मोतिरों सी बिखरती हँसी और ज़िन्दगी से भरी रूना जी…उस छोटी सी बावली लड़की के मन में गहरी छाप छोड़ गयीं ।
इतनी गहरी कि…वो लड़की आज भी सबसे बेपरवाह होकर ‘दमा दम मस्त कलन्दर’ की तान जब-तब लगा ही बैठती है,, बिना ये सोचे कि…कोई क्या कहेगा कि…कितना बुरा गा रही है ये !
वो लड़की महज़ किचिन,बाथरूम और बुलौये वाली सिंगर है ,लेकिन ‘रूना ‘की छवि याद करके वो …’दमा दम मस्त कलन्दर’ बहुत दिल से,पूरी मस्ती से, बहुत तान से आज भी गाती है ।
सरहदें कलाकार और उसके कलाप्रेमी को आज तक विभाजित नहीं कर सकीं । संगीत के वो सुर-तान,बोल… बचपन में वो गयीं थी रूना जी । उस लड़की ने वो संगीत की मोहब्बत का दरख़्त अब तक बड़ी एहतियात और साज-संभाल से रखा है । उसकी ज़िद है कि…आख़री दम तक भी वो ‘दमा दम मस्त कलन्दर’ की तान लगाती रहेगी ।
सरहदें ऐसी पाक रूहानी मोहब्बतों को कभी नहीं बाँट सकतीं ,ऐसे गहरे दरख़्तों की जड़ें मजबूत होती हैं ।
– प्रीति राघव प्रीत