कविता-कानन
तुम और बारिश
जब तुम थे
बारिशें थीं
मैं भीगा था
जी भरके..
क्योंकि
मुझे अच्छा लगा
भीगकर
तुम्हारे बाद
मुझे कोई बारिश
भिगो नहीं पायी
तब जाना मैंने
भीगने के लिए
बारिश ही
काफी़ नहीं है
तुम्हारा होना भी
ज़रूरी है!
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तुम यहीं कहीं
तुम यहीं कहीं हो न
जहाँ है
बादलों का जमघट
ढेर सारी शीतलता
जहाँ बुझती है
धरती की आग
हरे होते हैं
केर- फोग- खेजडी़
गिरती बूँदों को
पकड़ने का
असफल प्रयास करते
कुछ बालक
खिलखिला उठते हैं
सुना है
तुम भी आजकल
ऐसे ही खिलखिला देते हो
बेवज़ह
देखते रहते हो
आसमान में आँखें फाडे़
लोग तुम्हें देखकर
हँसते होंगे
मगर तुम तो खोए रहते हो!
इसलिए पूछ बैठा हूँ –
तुम यहीं कहीं हो न ?
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बूँद -बूँद शब्द
वर्ष की
पहली बारिश के बाद
वे बतिया रहे थे मुझसे
कि आज बरसे हैं मेघ
उनके खेत-आँगन में
उन्होंने नहीं बताया मुझे
कि वे भी हरे हुए हैं
अपने खेतों की तरह
मगर उनका बताना
कहाँ ज़रूरी था
मैंने पढ़ लिया था
जब वे भीग रहे थे
बूँद-बूँद
मुकम्मल किताबें
भीगने के बाद
हरी ही तो होती हैं
शब्द-शब्द में
समा जाती हैं
बूँदें
या बूँद-बूँद में
घुले होते हैं शब्द!
जो पढ़े जाते हैं
जागते हुए सारी रात
और उन्हीं शब्दों से
लिखे जाते हैं
महाकाव्य!
– चन्द्रभान विश्नोई