विमर्श
डॉ. मुकेश कुमार की रचनाधर्मिता
– रीत चौधरी
किसी भी रचनाकार के साहित्य अनुशीलन से पहले उसके व्यक्तिगत जीवन, स्वभाव, युग विशेष, वातावरण परिवेश आदि पर दृष्टि डालना आवश्यक है। क्योंकि इन्हीं से उसका व्यक्तित्व विकसित होता है। लेखक की कुछ व्यक्तिगत विशेषताएँ भी उसके साहित्य को समझने में सहयोगी होती है। अपने साहित्य के लिए वह इसी युग और समाज से सामग्री ग्रहण करता है, किन्तु अपनी कृतियों में अपने व्यक्तित्व की थोड़ी बहुत छाप जरूर छोड़ जाता है, और जो उसे अमर बना देती है।
पश्चिम के विद्वान और विचारक भारत को दार्शनिकों का देश कहते हैं। प्राचीन काल से ही इसी देश में अनेक ऋषिमुनि सन्त, भक्त, साधक, विद्वान, कवि और साहित्यकार उत्पन्न हुए है। जिनके चरित्र व साहित्य का अध्ययन करके अपने जीवन में धारण किया जाता है। उनके साहित्य, चरित्र का प्रभाव डॉ0 मुकेश कुमार जी के व्यक्तित्व पर झलकता दिखाई देता है।
डॉ0 मुकेश कुमार का जन्म कृषक परिवार में हुआ। आपका विशेष लगाव संत समाज से है, अतः इसी कारण से आपके जीवन, व्यक्तित्व, कृतित्व पर सत्संगति और साधु समाज का सर्वाधिक प्रभाव दिखाई देता है।
जन्म एवं परिवार
डॉ0 मुकेश कुमार जी का जन्म हरियाणा प्रदेश के जिला करनाल के प्योंत गाँव में 26 सितम्बर सन् 1988 ई0 उनके ननिहाल में माता मुरती देवी के गर्भ से हुआ। प्रमाण पत्र में इनकी जन्म तिथि 05 मई सन् 1988 है। उनका पैतृक गाँव हथलाना है। जो कि करनाल जिले में पड़ता है। आपके पिता स्व0 चौधरी कर्ण सिंह जी एक किसान थे। जो अपना जीवन सादगी में व्यतीत करते थे। आपकी वंशावली रोड़ (क्षत्रिय) है इस प्रकार से है-
शिक्षा-
डॉ0 मुकेश कुमार की प्रारम्भिक शिक्षा ननिहाल में गाँव प्योंत के राजकीय माध्यमिक विद्यालय में हुई। यह बालक बाल्यावस्था से अब तक पढ़ने-लिखने में रूचि रखता है और अपनी माता व शिक्षकों का आज्ञाकारी है। उच्च शिक्षा (पीएच0डी0) कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय कुरुक्षेत्र से प्राप्त की। विवाह एवं संतान- डॉ0 मुकेश कुमार जी बड़े सद्गृहस्थी हैं इनका विवाह श्रीमती शीतल रानी कमोदा जिला- कुरुक्षेत्र निवासी स्व0 चौधरी बलबीर सिंह की सुपुत्री के साथ 7 नवम्बर सन् 2012 ई0 में हुआ। इनका गृहस्थ जीवन बहुत ही सुखमय और सफल है। धर्मपत्नी श्रीमती शीतल रानी जी का स्वभाव सरल, सहज एवं सादगी सा है। वह बहुत सादगी में अपना जीवनयापन करती है। पहली सन्तान कन्या हुई थी जो एक सप्ताह के बाद परलोक चल बसी। दूसरी सन्तान पुत्र रूप में प्राप्त हुई जिसका जन्म 4 मई, सन् 2016 ई0 में हुआ। उसका नाम अविश चौधरी है। जो कि नटखट व होनहार है।
कृतित्व-
डॉ0 मुकेश कुमार जी का व्यक्तित्व बहुमुखी है इसलिए कृतित्व भी बहुआयामी है। आपने साहित्य की अनेक विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई है। जैसे – आलोचनात्मक साहित्य, सम्पादित साहित्य, सृजनात्मक, साहित्य आदि।
डॉ0 मुकेश कुमार की रचनाधर्मिता
1. हिन्दी कविता राष्ट्रीय चेतना एवं संस्कृति
इस पुस्तक या प्रकाशन वर्ष सन् 2018 ई0 है। यह पुस्तक साहित्य संचय प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक के दो वर्ष बाद अब 2020 में दूसरा संस्करण भी प्रकाशित हो गया है। इसमें आप की सृजन प्रक्रिया सम्पूर्ण हिन्दी कविता : राष्ट्रीय चेतना एवं संस्कृति विद्यमान है। आदिकालीन हिन्दी साहित्य के कवि चन्दबरदायी से लेकर अब तक के रचनाकारों पर विभिन्न शोध आलेखों का विवरण इस पुस्तक में मिलता है। डॉ0 मुकेश कुमार भूमिका में लिखते हैं- ‘‘प्रत्येक राष्ट्र की निजी संस्कृति होती है जो उसको एक सूत्र में पिरोये रखती है- रीति-रिवाज, साहित्य, शिक्षा, कला, रहन-सहन, जीवन-दर्शन एवं मान्यताओं सभी का समाहार संस्कृति के अन्तर्गत हो जाता है। संस्कृति मानव के जीवन वृक्ष का सुगन्धित पुष्प है।”१
इस पुस्तक में राष्ट्रीयता एवं भारतीय संस्कृति के दर्शन होते हैं। हिन्दी साहित्य में जिन कवियों ने अपनी रचनाधर्मिता में राष्ट्रीय एवं संस्कृति पर लेखनी चलाई हैं उन काव्य कृतियों को पढ़कर वास्तव में राष्ट्र के प्रति प्रेम जागृत होता है। भारत भूमि का यशोगान होता है, ‘‘भारत भूमि पवित्र भूमि है। भारत देश मेरा तीर्थ है, भारत मेरा सर्वस्व है, भारत की पुण्यभूमि का अतीत गौरवमय है, यही वह भारतवर्ष है, जहाँ मानव प्रकृति एवं उसके अन्तर्गत के रहस्यों की जिज्ञासाओं के अंकुर पनपे थे।’’2
इस पुस्तक में डॉ0 मुकेश कुमार जी ने संपादकीय में भारत के विभिन्न सौंदर्य, पर्यटक, तीर्थ, नदियाँ, सात पवित्र पर्वत आदि का सुंदर ढंग से वर्णन किया है जो इस पंक्ति में विद्यमान है-
सब तीर्थों का एक तीर्थ यह,
हृदय पवित्र बना ले हम,
आओ यहाँ अज्ञात शत्रु बन,
सबको मित्र बना ले हम।’’3
2. अज्ञेय की प्रयोगधर्मिता-
इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 2019 ई0 है। यह विनय प्रकाशन, कानपुर से प्रकाशित है। इस आलोचनात्मक कृति में सच्चिदानंदद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ की काव्य-सर्जना में हुए विभिन्न प्रयोगों का मूल्यांकन किया है। अज्ञेय जी प्रयोगवाद के आधार स्तम्भ माने जाते हैं। उन्होंने हिन्दी साहित्य में नये-नये प्रयोगों को आयाम दिये। अर्थात् पुरानी मान्यताएँ तोड़कर नयी मान्यताएँ गढ़ना सामान्य रूप से प्रयोग शब्द का तात्पर्य है- नई वस्तु के अन्वेषण की प्रक्रिया। नयी कविता को जन्म देना। ‘‘तो प्रयोग अपने आप में इष्ट नहीं, वह साधन है, और दोहरा साधन है, क्योंकि एक तो वह उसे सत्य को जानने का साधन है, जिसमें कवि प्रेषित करता है दूसरे उस प्रेषण की क्रिया को उसके साधनों को जानने का भी साधन है अर्थात् प्रयोग द्वारा कवि अपने सत्य को अधिक अच्छी तरह से जान सकता है और अधिक अच्छी तरह अभिव्यक्त कर सकता है। वस्तु और शिल्प दोनों क्षेत्रों में प्रयोग फलप्रद होता है।’’4 इसी प्रकार से इस पुस्तक के प्रथम अध्याय में ‘अज्ञेय के प्रयोगधर्मी काव्य सृजन का आधार’ पर विचार किया गया। लेखक ने बहुत ही सुंदर ढंग से इस अध्याय को लिखा है। दूसरे अध्याय ‘अज्ञेय के प्रयोगधर्मी काव्य सृजन की विकास यात्रा’ है। जिसमें लेखक ने उनकी काव्य सृजन की प्रथम कृति ‘भग्नदूत’ (1933) से लेकर ‘महावृक्ष के बीच’ तक पर विस्तृत प्रकाश डाला है। जिसमें प्रकृति चित्रण, उषा के अनुराग, मेघों की गर्जना, वैयक्तिक प्रेम और पीड़ा को अभिव्यक्त किया है। अज्ञेय की लेखनी प्रकृति से चलती-चलती लघु मानव का संचार करती है। ‘असाध्य’ वीणा इन एक लम्बी कविता है। इसमें न तो परमसत्ता की प्राप्ति की आकांक्षा है, न किसी अनद्ध नाद के श्रवण का आयोजन है।
अज्ञेय ऐसे विस्तृत कवि है जो तारसप्तक की नींव रखकर उसमें 28 कवियों को स्थान देते हैं।
तीसरे अध्याय में अज्ञेय की प्रयोगधर्मिता पर विचार किया है। जिसमें अज्ञेय का काव्य दर्शन, संवेदना की तराश, भाषिक रूपान्तरण आदि। अज्ञेय जी लिखते हैं-
अर्थ हमारा,
जितना है, सागर में नहीं,
हमारी मछली में है।’’
अध्याय चार में ‘अज्ञेय के प्रयोगधर्मी काव्य की सृजन प्रक्रिया’ पर विचार किया गया जिसमें अज्ञेय और प्रयोगवाद, अज्ञेय और नयी कविता, नयी कविता का सृजनात्मक परिप्रेक्ष्य, नयी कविता में ईश्वर और प्रेम, नयी कविता में आस्थावाद, नयी कविता में भोगवाद, क्षणवाद, प्रयोग और सप्तक काव्य आदि का विश्लेषण बहुत ही सुंदर ढंग से किया है। जिससे हिन्दी कविता में नया मोड़ आ गया।
अध्याय पाँच में अज्ञेय के प्रयोगधर्मी काव्य में विचार-तत्त्व पर प्रकाश डाला गया जिसमें अज्ञेय की काव्य प्रवृत्तियाँ है- प्रणयानुभूति, मानवतावादी दृष्टिकोण, व्यक्तिबोध और अस्तित्व बोध आदि बिन्दुओं पर टिप्पणी की है। अज्ञेय भी यह सुंदर पंक्ति कितनी प्रेरणादायक है-
‘‘यह दीप अकेला स्नेह भरा,
है गर्व भर मदमाता पर,
इसको भी पंक्ति को दे दो।’’5
अध्याय छः में ‘अज्ञेय के प्रयोगधर्मी काव्य में प्रेम और सौंदर्य’ को दर्शाया है- जिसमें अज्ञेय के काव्य में वात्सल्य, जनमानस के प्रति प्रेम, प्रकृति प्रेम, दार्शनिकता, बाह्य सौंदर्य का विकास, नाद व्यंजना, कलात्मक सौंदर्य आदि बिन्दुओं पर प्रकाश डाला है। अध्याय सात में ‘अज्ञेय के काव्य में भाषा और शिल्प के नये प्रयोग’ का वर्णन किया है जिसमें शब्द का सृजनात्मक प्रयोग, सार्थक प्रतीकों की तलाश, परम्परागत प्रतीकों की नवीन दृष्टि, निजी प्रतीक, आधुनिक प्रतीक, बिम्ब और मिथक का सार्थक प्रयोग, अप्रस्तुत योजना आदि बिन्दुओं पर विस्तृत नया दृष्टिकोण डाला है।
इसी प्रकार से ‘अज्ञेय की प्रयोगधर्मिता’ नामक पुस्तक को डॉ0 मुकेश कुमार ने सात अध्यायों में विभक्त किया है जो समाज में नयी पीढ़ी के लिए हिन्दी साहित्य में ‘अज्ञेय’ को समझने के लिए एक गहन चिन्तन पैदा करेगी।
3. ‘चमत्कार’ एकांकी संग्रह : संवेदना और शिल्प-
इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 2019 ई0 है। यह पुस्तक विद्या प्रकाशन, कानपुर से प्रकाशित है। ‘चमत्कार’ एक एकांकी-संग्रह है। इस एकांकी-संग्रह के लेखक बाबूराम जी है। यह डॉ0 मुकेश कुमार की आलोचनात्मक पुस्तक है। इस पुस्तक को पाँच अध्यायों में विभक्त किया है। लेखक ने इस पुस्तक में भारतीय संस्कृति, संवेदना आदि पर लेखनी चलाई है। इस पुस्तक के प्रथम अध्याय में ‘एकांकी’ विधा का उद्भव और विकास पर प्रकाश डाला गया। अध्याय दो में बाबूराम का जीवनवृत्त लिखा है। अध्याय तीन में ‘चमत्कार’ एकांकी-संग्रह की एकांकियों का सामान्य परिचय दिया है। जिसमें ‘चमत्कार’, उजड़ती दुनिया, नारी व्यथा, अंगुलिमाल, गुरु की पहचान, विश्वामित्र का यज्ञ, रूक्मिणी-परिणय, भ्रष्टाचार का दानव आदि का विश्लेषण किया है। लेखक ने बहुत ही सुंदर ढंग से इस पुस्तक में वर्णन किया है- ”ब्रह्म में लीन होकर जिनको परम आनन्द की प्राप्ति होती थी व जो इन्द्रियों व इच्छाओं के स्वामी थे। सरस्वती जिनके कण्ठ में विराजमान थी। यथा नाम से भी कोटि स्थान ऊपर उनके कार्य है। आज के नैतिक विहीन समाज में उन्होंने अपने ज्ञानोपदेश, शिक्षा व संस्कारों से समाज को परिमार्जित किया है वह है सन्त ब्रह्मानन्द सरस्वती।’’6
अध्याय चार में ‘चमत्कार एकांकी-संग्रह की संवेदनात्मक विशेषताओं’ का चित्रण किया है। जिसमें सामाजिक परोपकार की भावना, गोवंश संवर्धन की भावना, देश प्रेम की भावना, विश्व कल्याण की भावना, धार्मिक भावना, भ्रष्टाचार का चित्रण, चरित्र निर्माण पर बल, प्रकृति-चित्रण, पर्यावरण संरक्षण, जल की उपयोगिता का चित्रण, गुरु-शिष्य परम्परा का चित्रण, पशु-पक्षियों के प्रति संवेदना, वृक्षों की महत्ता का चित्रण आदि बिन्दुओं का चित्रण किया है। अध्याय पाँच में शिल्प विधान पर प्रकाश डाला है।
यह पुस्तक सर्वाधिक श्रेष्ठ एवं अनुपम कृति है
4. लोकभाषाओं में रामकाव्य-
इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 2019 ई0 में साहित्य संचय प्रकाशन, दिल्ली से हुआ है। यह डॉ0 मुकेश कुमार की संपादित पुस्तक है। इसमें विभिन्न विद्वानों के शोध आलेख समाहित है। इसमें लिखा भी हैं। वैदिक युग से लेकर आज तक सांस्कृतिक, पौराणिक, बिम्बों, मिथकों एवं विचार-खंडों की जो धारा प्रवाहित होती रही है, उसके वैविध्य के मूल्य में एक अखण्ड चेतना सदैव विद्यमान रही है। रामकथा विभिन्न भाषाओं एवं लोकभाषाओं में उपजी है, जिसमें भोजपुरी, हरियाणवी, पंजाबी, कन्नड़, मलयालयम, पहाड़ी, अवधी आदि। रामकाव्य भारतीय जनमानस की कंठहार रही है। इसका प्रमाण वैदिक, बौद्ध एवं जैन परम्परा में मिलता है इसी तरह से रामकाव्य भारतीय चिन्तन का वह मेरूदंड है जिसमें कला, साहित्य, दर्शन और मनोविज्ञान की अवधारणाएँ मिलती है ओर प्रेरणा देती है।’’7
5. खड़ी बोली हिन्दी के उन्नायक महाकवि हरिऔध
इस पुस्तक का प्रकाशन वर्ष 2020 है। यह पुस्तक सानिया पब्लिकेशन, दिल्ली से प्रकाशित है। यह पुस्तक हरिऔध के अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ के समग्र साहित्य पर आधारित आलोचनात्मक है। इसमें डॉ0 मुकेश कुमार ने हरिऔध का जीवनवृत्त और उनका रचना संसार का विश्लेषण किया है। हरिऔध के राम, कृष्ण, यशोदा, सीता आदि पात्रों का बहुत ही सुंदर ढंग से वर्णन किया है। ‘‘महाकवि हरिऔध जी देशभक्त कवि थे। उन्होंने अपने साहित्य सृजन में ऐसे चरित्रों का निर्माण किया जो लोक सेवक, राष्ट्रभक्त, लोक कल्याण, जाति प्रेम, भाषा प्रेमी, जन्मभूमि प्रेमी, देश प्रेमी आदि समाज में राष्ट्रीयता की शंखध्वनि का स्वर गूंज उठे। यही उनकी राष्ट्रीयता का आधारभूत सत्य है। वे कहते हैं-
‘‘प्यारा है जितना स्वदेश
उतना है प्राण प्यारा नहीं।
प्यारी है उतनी न कीर्ति,
जितनी उद्धार की कामना।।’’8
यह पुस्तक हिन्दी साहित्य में मील के पत्थर का काम करेगी।
सारांश रूप में कहा जाता है कि डॉ0 मुकेश कुमार का व्यक्तित्व बहुआयामी है। इनकी साहित्य साधना हिन्दी कविता राष्ट्रीय चेतना एवं संस्कृति से प्रारम्भ होती है। वह राष्ट्र के प्रति प्रेम एवं भारतीय संस्कृति के प्रति प्रेम की भावना जागृत करती है। अज्ञेय, हरिऔध, रामकथा, चमत्कार एकांकी आदि पर आपकी लेखनी चली। जिसमें राष्ट्रीयता, मानव प्रेम, विश्व बन्धुत्व, मानव मूल्य भाषा, बिम्ब विधान, साहित्य में नये-नये प्रयोग आदि को समाज के सामने प्रस्तुत करके हिन्दी साहित्य में पुण्य का कार्य किया है।
संदर्भ-
1. डॉ0 मुकेश कुमार, हिन्दी कविता : राष्ट्रीय चेतना एवं संस्कृति, भूमिका, पृ0 4
2. वही, पृ0 4
3. वही, पृ0 3
4. डॉ0 मुकेश कुमार, अज्ञेय की प्रयोगधर्मिता, पृ0 18
5. वही, पृ0 51
6. डॉ0 मुकेश कुमार, ‘चमत्कार एकांकी संग्रह : संवेदना और शिल्प, पृ0 44
7. डॉ0 मुकेश कुमार, लोकभाषाओं में रामकाव्य, संपादकीय, पृ0 5
8. डॉ0 मुकेश कुमार, खड़ी बोली हिन्दी के उन्नायक महाकवि हरिऔध, पृ0 11
– रीत चौधरी