कथा-कुसुम
जीवन की शतरंज
“हेल्लो! क्या आप शिखा जी के घर से बोल रही हैं?”
“जी, मैं शिखा की माँ बोल रही हूँ।”
“नमस्ते, मेरा नाम रवि वर्मा है। मैं शहर का नामी बिल्डर हूँ। मुझे शिखा जी से मिलना है। क्या मैं आपके घर आ सकता हूँ?”
“जी” सुधा के मुँह से बस इतना ही निकल पाया था। फोन बंद हो चुका था।
रवि वर्मा……ये नाम सुनते ही सुधा जड़ हो चुकी थी। समय उसे अतीत की गहराइयों में ले गया। रवि के साथ सुधा ने प्रेम विवाह किया था। परिवार से लड़-झगड़ कर सारे रिश्ते तोड़, वो रवि के साथ आ गयी थी। पहले सब सही चल रहा था। शादी को एक साल बीत चुका था। रवि का व्यवहार बदलने लगा था, देर से घर आना, बात-बात पर चिल्लाना, सुधा को ताने देना, झगड़ा करना आम होने लगा था।
सुधा ने जब बात करना जानना चाहा तो रवि ने साफ कह दिया- “मैं तलाक़ चाहता हूँ। मेरा अपनी नई सेक्रेटरी के साथ अफेयर है। मैं उससे विवाह करना चाहता हूँ।”
सुधा ये सुनकर सुन्न हो गयी थी। बहुत रोई, झगड़ी पर रवि न माना। उसने सुधा पर हाथ उठा दिया। सुधा अपमान का घूंट पीकर कब तक सहती। उसका ‘आत्मसम्मान’ खण्ड-खण्ड हो रहा था। उसने भी तलाक़ का फैसला कर लिया। जल्दी दोनों का तलाक़ हो गया।
सुधा के परिवार से पहले ही रिश्ते टूट चुके थे। वहाँ जा नहीं सकती थी। एक सहेली की मदद से नौकरी मिली और सुधा दूसरे शहर चली गयी। उस शहर में सुधा का जीवन बीत रहा था। एक दिन उसे कूड़े के ढेर में फेंकी हुई एक बच्ची मिली, सारी ओपचारिकताएँ पूरी कर सुधा ने उसे गोद ले लिया। 25 साल बीत चुके थे। आज उसकी बेटी शिखा बड़ी पुलिस अफसर है। उसकी पोस्टिंग यहाँ हुई तो सुधा को रवि के शहर लौटना पड़ा।
दरवाज़े की घण्टी बजी। सुधा अचानक अतीत के पन्नो से बाहर आयी। उठकर दरवाज़ा खोला। सामने रवि खड़ा था। 25 साल बाद आमना-सामना हुआ। रवि भी खामोश था, सुधा भी!
“सुधा तुमने शादी कर ली, शिखा तुम्हारी बेटी है? रवि ने मौन तोड़ा।
“नहीं मैंने शादी नहीं की, शिखा को गोद लिया है। एक शादी का अनुभव ही बड़ा कड़वा था।” सुधा ने ताना मारा।
रवि- “देखो जो हो गया सो खत्म हुआ। कपिल मेरा बेटा है। बड़ा बिल्डर है। शहर में पुल निर्माण में जो हादसा हुआ है, उस मामले में उस पर पुलिस जाँच की घोषणा हुई है। केस इंचार्ज शिखा है।………..ये रुपयों से भरा बैग है। शिखा से कहना कपिल पर आँच न आये। पैसे और मिल जायेंगे।”
सुधा- निकल जाओ मेरे घर से। तुम कल भी एक गिरे हुए इंसान थे, आज भी वैसे ही हो। तुम्हारे ही गन्दे संस्कारों के कारण तुम्हारा बेटा भ्रष्ट हुआ।…..मेरी बेटी बहुत ईमानदार है। हमें एक पैसा नहीं चाहिए। वो पूरी ईमानदारी से जाँच करेगी। दोषी को सज़ा दिलाएगी।”
“सुधा प्लीज” रवि उसके पैरों में गिर गया।
सुधा- “ये ज़िन्दगी की शतरंज है रवि। कल जिन हाथों से तुमने मुझे घर से निकाला था, मारा था। आज वही हाथ मेरे आगे जोड़ रहे हो। आसमान पे उड़ने वाले आज घुटने टेक रहे हो। तुम तो खुद को बादशाह कहते थे!”
“आज वो बादशाह तुम्हारे पैरों में गिरा है।” रवि ने कहा।
“रवि, जीवन की इस शतरंज में जीत सत्य की होगी। तुम अपने पैसे लो और निकल जाओ। ये ‘रानी’ सिर्फ सच का साथ देगी। तुम्हारे बेटे को सज़ा ज़रूर होगी।”
सुधा का बरसों पुराना खंडित आत्मसम्मान आज बोल उठा था। एक हारा हुआ बादशाह सिर झुका कर जा रहा था।
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अलिखित प्रथा
प्रथाएं वो ही नहीं होती जो या तो कहीं शास्त्र लिखित होती हैं या जनश्रुतियों में प्रचलित हों। समय के साथ बहुत-सी नई प्रथाएं भी जन्म लेती हैं। नवीन परिवेश नए मूल्यों का मार्ग खोलता है। वर्तमान संदर्भों में ऐसा ही नया मूल्य प्रचलित हुआ है- ‘सेरोगेट मदर’।
निम्न, ग़रीब, हाशिये पर खड़ा तबका इस नई उपजी प्रथा का बोझ ढो रहा है। उसकी सम्वेदनाएँ, उसके अभावों का मोल चुकाकर समाज का सम्पन्न वर्ग भावनाएं, ममत्व खरीद रहा है। दोषी कौन है?
अभावग्रस्त, जो अपने अभाव का मोल लगा रहा है? या सम्पन्न वर्ग जो अभावों का मोल चुका रहा है?
एक नई अलिखित प्रथा तो जन्म ले ही चुकी है।
माला जल्दी-जल्दी बर्तन धो रही थी। शर्मा जी के घर का काम करके उसे अभी दो घर और करने थे। कमरे से मुन्ने के रोने की आवाज़ आयी। शर्मा जी की बहू शायद बाथरूम में थी! माला ने जाकर मुन्ने को चुप कराया। बड़ा प्यारा बच्चा था।…अचानक माला को अपने बेटे की याद आ गयी। एक बार ही तो देखा था उसे! एक दम गोरा, गोल-मटोल था। गोद में लेना भी नसीब नहीं हुआ था!
6 साल पहले माला के पति की एक्सीडेंट में मौत हो गयी थी। ससुराल वालों ने घर से निकाल दिया। पढ़ी-लिखी थी नहीं, अपने अधिकार नहीं जानती थी। ससुराल से कोई अधिकार नहीं ले पाई। दो बेटियों के साथ मायके आ गयी। मायके में भाभियों ने जीना मुश्किल कर दिया। कुछ घरों में बर्तन-सफाई का काम करने लगी। एक दिन बड़े भाई ने साफ फरमान सुना दिया- “अपने रहने का इतंजाम कर लो! हम यहाँ ओर नहीं रख सकते।”
माँ-पिताजी की भी उसके साथ मौन स्वीकृति थी। चुपचाप एक झुग्गी बस्ती में आ गयी।
बच्चियों को किसी तरह सरकारी स्कूल में डाल दिया। घरों के काम से दो वक़्त की रोटी चलने लगी। माला चाहती कि किसी तरह एक छत मिल जाये तो बच्चियां सुरक्षित हो जाएँ। झुग्गी-बस्ती में उसे सदा बच्चियों की सुरक्षा की चिंता लगी रहती।
एक दिन नगर निगम अस्पताल दवाई लेने गयी। वहाँ की एक वर्कर ने बाद में मिलने बुलाया। काम खत्म कर, माला उससे मिलने गयी। वर्कर ने कहा एक काम है..करोगी तो बहुत पैसे मिलेंगे।तुम छोटा-सा घर ले पाओगी।
“काम क्या है?” माला ने पूछा!
“…..तुम्हें सेरोगेट माँ बनना है।”
“ये क्या होता है?” माला ने पहली बार ये नाम सुना था।
“तुम्हें किसी और के बच्चे को अपनी कोख में रखना है। शहर के बहुत बड़े रईस हैं, उनकी पत्नी माँ नहीं बन सकती। उन्हें बच्चा पैदा करके देना है।”
माला अचंभित थी! “ऐसा भी होता है क्या? नहीं वो ऐसा नहीं करेगी। लोग क्या कहेंगे?”
वर्कर ने समझाया बस एक साल लगेगा कुछ टेस्ट होंगे, तुम्हारे रहने, खाने का पूरा ध्यान रखा जायेगा। पैसे मिलेंगे, तुम्हारी परेशानी दूर हो जायेगी और किन लोगों की चिंता कर रही हो! वो जिन्होंने तुम्हें, तुम्हारी बेटियों को सड़क पर छोड़ दिया! कभी तुम लोगों का हाल न पूछा!
माला घर आकर सोचने लगी। बच्चियाँ खेल रहीं थी। उनका भविष्य कैसा होगा? ये चिंता सदा माला को लगी रहती थी। वो सोचने लगी- “अस्पताल वाली वर्कर ठीक तो कह रही थी! मैं लोगों की परवाह क्यों करूँ? पैसे मिलेंगे बेटियों का भविष्य सुधरेगा।” माला ने फैसला किया वो ये काम करेगी। बच्चियों के भविष्य के लिए वो ये जरूर करेगी।
माला को एक सेंटर ले जाया गया। कई टेस्ट हुए। 2 महीने बाद माला के गर्भ में सन्तान थी। उसे रहने को एक फ्लैट दिया गया। खाने-पीने की पूरी सुविधा। बच्चियाँ वहीं से स्कूल जाती थीं। 9 महीने बाद माला ने सुंदर लड़के को जन्म दिया। बस एक नज़र ही देख पायी थी बच्चे को।
5 दिन बाद अस्पताल से छुट्टी मिल गयी। पैसा भी उसके पास पहुँच गया। माला ने उस पैसे से एक कमरे का घर ले लिया। कुछ पैसा बैंक में बच्चियों के लिए रख दिया।
अब वो कई घरों में काम करती थी। बच्चियाँ अच्छे से पढ़ रहीं थीं। 5 साल बीत गए थे। माला को कभी-कभी बच्चे की याद आती, उसे देखने का मन करता पर किस हक़ से जाती? और कौन मिलने देता?
पुरानी बातें सोचते-सोचते माला शर्मा जी के घर से निकली।
एक दिन माला की बड़ी बेटी को स्कूल में इनाम मिला। माला बहुत खुश थी। उस दिन माला दोनों बेटियों को लेकर मॉल गयी। पहली बार मॉल गयी थी। कपड़े साधारण थे पर मन में ख़ुशी थी। माला ने बच्चियों को आइसक्रीम लेकर दी। खुद वहाँ बैठ गयी। तभी उसकी नज़र एक महिला और उसके बच्चे पर पड़ी। अचानक चौंक गयी….अरे ये तो वही महिला है, जिसके लिए उसने बच्चा पैदा किया था।……उसके साथ 5 साल का खूब सुंदर बच्चा था। एकदम राजकुमार शैतान, इधर-उधर भाग रहा था। माला के मन में ममता का सागर उमड़ने लगा। उठकर बच्चे के पास गई ओर बड़े प्यार से उसके सर पर हाथ रखा। बच्चे ने तुरंत उसका हाथ झटक दिया और ज़ोर से गुस्से में बोला- You dirty women, get lost!
माला की बेटियाँ भी वहाँ आ गईं थीं। वो बोली- मम्मी ये आपको गन्दी औरत कह रहा है।
माला पत्थर की तरह सुन्न खड़ी थी!
– डॉ. संगीता गांधी