व्यंग्य
जय फेसबुकिया यारों की
मेरे कुछ फेसबुकिया और ट्विटर पर चहकने वाले मित्र ग़ज़ब के प्रतिभाशाली हैं। हर पोस्ट में अपनी टाँग घुसाने में माहिर और दूसरों की टाँग खींचने में सिद्धहस्त। रंग बदलने में गिरगिट जैसे पारंगत और अपना रंग दिखाने में लोमड़ी सरीखे चालाक। ओलिम्पिक के दौरान इनकी सक्रियता देखते ही बनती थी। कभी कभी तो लगता था कि इन्हें भी रिओ भेज देते तो ये बोल्ट को भी बोल्ड कर आ जाते या फिर फ़ेल्प्स को तरणताल में ही डूबने को मजबूर कर देते।
रिओ मे जब दस-ग्यारह दिनों तक भारत के खाते में एक भी पदक नहीं आया तो इन शूरवीरों ने ऐसी हाय-तौबा मचाई कि हर देशवासी के पास शर्माने के अलावा कोई काम ही नहीं बचा। इस दौरान इन्होंने आर्यभट्ट से लेकर आलिया भट्ट और चंद्रवरदाई से लेकर रजनीकांत तक को बड़ी शिद्दत से याद कर डाला। इन्हें लगता है कि यह इनका ही कमाल था जिसने भारतीय खिलाड़ियों को पदक जीतने पर विवश कर दिया। यदि इन्होंने “आर्यभट्ट द्वारा शून्य की खोज भारतीय खिलाड़ियों के लिए ही की थी” जैसी उलाहना-परक पोस्ट या चंद्रवरदाई के लहजे मे “मत चूक चौहान” जैसा भुजा-फड़काऊ मंत्र न दिया होता तो भारतीय खिलाड़ी शून्य की महिमा बखानते ही वापस आते।
जब खिलाड़ियों ने पदक नहीं जीते तो शोभा डे की पोस्ट को, जिसमें उन्होंने खिलाड़ियों पर रिओ में मौज-मस्ती करने का तंज कसा था, इन्होंने ज़बर्दस्त लाइक किया और जैसे ही साक्षी का पदक खाते में आया, ये सभी उन पर बोरिया-बिस्तर बाँधकर पिल पड़े। रंग बदलने का इससे बेहतर उपक्रम क्या किसी ने कभी देखा था। हद तो तब हो गई जब बेटियों पर हर तरह की पाबंदियों के समर्थकों को साक्षी में जग जीतने वाली जटनी दिखने लगी। कमाल है भाई….भारत की बेटी बनने से ज्यादा समुदाय की बेटी बनाना इन सज्जन को अधिक सुविधाजनक लगा। दिखा दिया न अपना घटिया रंग।
किसी को बेटी, बेटों पर भारी लगी तो किसी को बेटी है तो कल है, जैसे जुमलों में सच्चाई नज़र आने लगी। कोई यह याद दिलाना भी नहीं भूला कि कितनी पदक विजेताओं को अब तक हमने कोख में ही मार दिया है। व्यंग्य में कही बात भी दूर तक पहुँच गई और मुझ सरीखे कितने ही लोगों को झकझोर गई। बेटी बचाओ के सरकारी नारे को भी कुछ शब्द-सूरमाओं ने ऐसी सार्थकता दी कि उनकी प्रतिभा का सभी लोहा मान गए । बेटी…. बचाओ… और सचमुच बेटी ने बचा लिया।
सिंधु के फ़ाइनल में पहुँचते ही ये पोस्ट-वीर कुछ ज्यादा ही उत्साह मे आ गए। कोई उससे सोने की माँग कर रहा था तो कोई कह रहा था कि वह देश की बहू थोड़े है, जो उससे सोना माँग रहे हो। देश प्रेम पर भी सामाजिक बुराई भारी पड़ जाती है और किसी को पता भी नहीं चलता..यही तो इनकी सफलता है। किसी ने बाद में बताया कि सिंधु ने गोल्ड मेडल इसलिए नहीं जीता कि उस पर सरकार ने एक्साइज ड्यूटी बढ़ा दी है..है न कमाल। खेल एक तरफ़ खेल-कौशल दूसरी तरफ़ लेकिन इनका तर्क शास्त्र सब पर भारी।
कुछ लोगों को तो ध्यान ही नहीं रहता कि वह तारीफ़ कर रहे हैं या खिल्ली उड़ा रहे हैं। यह इस पोस्ट से ही स्पष्ट है जिसमें अपने ज्ञान पर आत्म-मुग्ध एक सज्जन ने लिखा था- “सिंधु अवश्य ही गोल्ड जीतेगी क्योंकि भारतीय महिलाओं को गोल्ड अति प्रिय होता है।” यह तो सभी की कामना थी कि सिंधु गोल्ड जीतकर दुनिया में शिखर पर पहुँचे, पर इन सज्जन का नज़रिया तो सबसे भिन्न था।
भूल कर दरिया में डालने की आदत से भी बहुत लोग संक्रमित मिले। जब तक भारत ने पदक नहीं जीते थे तब तक दीपा कर्माकर की शान मे क़सीदे पढ़ने वालों की कमी नहीं थी पर जैसे ही दीक्षा व सिंधु ने पदक जीते, वह बिचारी गधे के सिर पर सींग सरीखी ग़ायब हो गई। लतिका बाबर को तो किसी ने पूछा भी नहीं, जो उड़नपरी के बाद फ़ाइनल में पहुँचने वाली पहली एथलीट थी। यह अनजाने में हुआ या उसके ईवेंट में इन पोस्टवीरों को कोई ग्लेमर नज़र नहीं आया, पता नहीं।
इन सब हल्के-फुल्के, हँसी-मज़ाक़ वाली ज्ञानवर्धक बातों के बीच किसी ने बहुत ही गंभीर बात कहकर आत्मा को तिलमिला दिया। जिस देश के एक सौ पच्चीस करोड़ लोग एक बेटी की इज़्ज़त नहीं बचा पाते, उसकी दो बेटियों ने एक सौ पच्चीस करोड़ लोगों की इज़्ज़त बचा ली। धन्य हो मेरे फेसबुकिया यारो..तुम्हारी जय हो!!
– अरुण अर्णव खरे