विमर्श
जयशंकर प्रसाद का उपन्यास साहित्य: एक विवेचन
– डाॅ. पवनेश ठकुराठी
(30 जनवरी, प्रसाद जयंती पर विशेष)
कवि, कथाकार एवं नाटककार जयशंकर प्रसाद ने कंकाल, तितली, इरावती (अपूर्ण) नामक कुल 3 उपन्यास लिखे। उनके इन उपन्यासों में भारतीय इतिहास, सभ्यता, संस्कृति एवं सौंदर्य तत्व का बड़ा ही मनोहारी चित्रण हुआ है। वे अपने उपन्यासों के माध्यम से प्राचीन महाकाव्यों, पुराणों के सिद्धातों, धार्मिक मान्यताओं, परंपराओं आदि का विश्लेषण करते नज़र आते हैं। रामायण के आदर्शात्मक विवेकवाद और महाभारत के यथार्थपूर्ण विवेकवाद की संतुलित धारा उनके उपन्यासों में बहती दिखाई देती है। कंकाल, तितली और इरावती में विवेकवादी धारा के परिणाम यथार्थवादी रूप में वर्णित, कथित और दर्शित किए गए हैं और अंतत: मानव ईश्वर से भिन्न नहीं है, इसकी प्रतिष्ठा करने की कोशिश भी की गयी है, लेकिन उपन्यास में इस कोशिश के बावजूद कई प्रश्न और प्रश्नों के उत्तर प्रसाद से पहले के सामाजिक स्थिति और उसके अभिव्यक्ति विधानों में पूछे गये प्रश्नों के उत्तरों से भिन्न हैं और यही भिन्नता प्रसाद के कंकाल और तितली को महत्वपूर्ण उपन्यास बनाती है।1
1. कंकाल (1929 ई.):
कंकाल उपन्यास की कहानी श्रीचंद्र और किशोरी की कहानी है, जो हरिद्वार के गंगा तट पर महात्मा के पास संतान प्राप्ति की कामना लेकर आये हुए दंपति श्रीचंद्र और किशोरी के महात्मा के साथ वार्तालाप से शुरू होकर अंतत: यमुना के रुदन के साथ समाप्त हो जाती है। चार खण्डों में विभाजित इस उपन्यास की कहानी के आगे बढ़ने के साथ-साथ देव निरंजन, मंगलदेव, रामा, वीरेन्द्र, गुलेनार, अरुण, वेदस्वरूप, इंद्र, ब्रह्मचारी, विजयचंद्र, रजनी, यमुना, रामदास, गोस्वामी, गाला, बदन, सोमदेव, मिरजा, शबनम, मिस्टर बाथम, जाॅन, कृष्णशरण, लतिका, सरला, मोहन, घंटी आदि कई चरित्र भी सामने आते जाते हैं और कथा को अपनी मंजिल तक पहुँचाते हैं।
इस उपन्यास में विजय का ‘कंकाल’ कई सवाल खड़े करता है। धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक विडम्बनाओं का चित्रण उपन्यास का उल्लेखनीय पक्ष है-
1. “छोटे-छोटे ब्रह्मचारी दण्ड, कमंडल और पीत वसन धारण किये समस्वर से गाते जा रहे थे-
कस्यचित्किमथिनोहरणींय मम्र्मवाक्यमऽपिनोच्चरणीयं
श्रीपतेः पदयुगस्मरणींय लीलया भवजल तरणीयं
उन सबों के आगे दाढ़ी और घने बालों वाला एक युवक चद्दर धोती पहने जा रहा था। गृहस्थ लोग उन ब्रह्मचारियों की झोली में कुछ डाल देते थे। विजय ने एक दृष्टि से देखकर मुँह फिराकर यमुना से कहा- देखो यह बीसवीं शताब्दी में तीन हजार बी.सी. का अभिनय! समग्र संसार अपनी स्थिति रखने के लिए चंचल है, रोटी का प्रश्न सबके सामने है, फिर भी मूर्ख हिंदू अपनी पुरानी असभ्यताओं का प्रदर्शन कराकर पुण्य-संचय किया चाहते हैं। आप तो पाप-पुण्य कुछ मानते ही नहीं विजय बाबू! पाप और कुछ नहीं है यमुना जिन्हें हम छिपाकर किया चाहते हैं, उन्हीं कर्मों को पाप कह सकते हैं परंतु समाज का एक बड़ा भाग उसे यदि व्यवहार्य बना दे, तो वही कर्म हो जाता है, धर्म हो जाता है। देखती नहीं हो, इतने विरुद्ध मत रखने वाले संसार के मनुष्य अपने-अपने विचारों में धार्मिक बने हैं। जो एक के यहाँ पाप है, वही तो दूसरों के यहाँ पुण्य है।”2
2. “समाज अपना महत्व धारण करने की क्षमता को खो चुका है; परंतु व्यक्तियों को उन्नति का दल बनाकर सामूहिक रूप से विरोध करने लगा है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी छूंछी महत्ता पर इतराता हुआ दूसरे को नीचा-अपने से छोटा-समझता है, जिससे सामाजिक विषमता का विषमय प्रभाव फैल रहा है।”3
डाॅ. रमाशंकर तिवारी के अनुसार, कंकाल उपन्यास की प्रमुख समस्या एक प्रकार से काम की समस्या है। काम जब विकृत एवं अनियंत्रित बन जाता है, तब वह अनिष्टकारी हो जाता है अन्यथा काम जीवन की मंगलकारिणी अंतर्वृत्ति है, जीवन का देवता है जिसे कुचला नहीं जा सकता। कंकाल इसी तथ्य को उभारता है।4
आधुनिक विज्ञापनवादी संस्कृति का भी कंकाल में यथार्थ चित्रण हुआ है। वृंदावन की गलियों में चिपके भारत संघ के विज्ञापन इसी के उदाहरण हैं। भारतीय धर्म, दर्शन एवं रामायण, गीता, महाभारत, वेद-पुराण आदि धर्म-ग्रंथों के प्रति प्रसाद की अटूट आस्था इस उपन्यास में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है: “गीता द्वारा धर्म की, विश्वात्मा की, विराट की, आत्मवाद की विमल व्याख्या हुई। स्त्री, वैश्य, शूद्र और पापयोनि कहकर जो धर्माचरण के अनधिकारी समझे जाते थे, उन्हें धर्माचरण का अधिकार मिला। साम्य की महिमा उद्घोषित हुई। धर्म में, राजनीति में, समाजनीति में सर्वत्र विकास हुआ। वह मानवजाति के इतिहास में महापर्व था। पशु और मनुष्य के भी साम्य की घोषणा हुई। वह पूर्ण संस्कृति थी।”5
कंकाल वस्तुतः पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के प्रति नारी के असंतोष एवं विद्रोह की रचना है। “यमुना ने कहा- कोई समाज और धर्म स्त्रियों का नहीं बहन! सब पुरुषों के हैं। सब हृदय को कुलचने वाले क्रूर हैं। फिर भी मैं समझती हूँ कि स्त्रियों का एक धर्म है, वह है आघात सहने की क्षमता।”6
इस प्रकार कथाकार जयशंकर प्रसाद का कंकाल उपन्यास भारतीय आध्यात्मिक एवं वैदिक संस्कृति का आधुनिक दस्तावेज है, जो उन पुरातन धार्मिक सिद्धांतों, परंपराओं और मान्यताओं की कमियों और खूबियों का विश्लेषण करता है, जो आज भी हमारे समाज में जस- की-तस बनी हुई हैं।
2. तितली (1933 ई.):
जयशंकर प्रसाद का तितली उपन्यास बाप और बेटी के वार्तालाप से प्रारंभ होकर तितली के किवाड़ खोलकर गंगा की ओर प्रस्थान करने के साथ समाप्त होता है। मधुवा, बंजो, चौबेजी, इंद्रदेव, शैला, रामदीन, अनवरी, तितली, श्यामदुलारी, माधुरी, मलिया, रामनाथ, राजकुमारी, देवनंदन, मधुबन, रामजस, कृष्णमोहन, महंगू, मैना, नंदरानी आदि इस उपन्यास के प्रमुख चरित्र हैं। तितली इस उपन्यास की नायिका है और मधुवन नायक। यह उपन्यास भी कंकाल की तरह 4 खण्डों में विभाजित किया गया है। उनके इस उपन्यास में भारतीय वेद-वेदांतों एवं दर्शन मूल्यों की स्थापना के साथ-साथ प्रेम, त्याग, तप, संयम, साधना, समर्पण आदि मानवीय मूल्यों की स्थापना भी हुई है। वस्तुत: प्रसाद के इस उपन्यास में सामाजिक और पारिवारिक समस्याओं का चित्रण अधिक हुआ है।
सामाजिक विषमता का प्रश्न आज भी उतना ही प्रासंगिक है, जितना आजादी से पूर्व था बल्कि आज के समय में सामाजिक विषमता और भी तेजी से बढ़ती चली जा रही है। उपन्यासकार प्रसाद की तब की समस्या हमारी आज की समस्या है: “मैं सोचता हूँ कि मेरा सामाजिक बंधन इतना विशृंखल है, उसमें मनुष्य केवल ढोंगी बन सकता है। दरिद्र किसानों से अधिक से अधिक रस चूसकर एक धनी थोड़ा-सा दान, कहीं-कहीं दया और कभी-कभी छोटा-मोटा उपकार करके, सहज में ही आप जैसे निरीह लोगों का विश्वासपात्र बन सकता है। सुना है कि आप धर्म में प्राणीमात्र की समता देखते हैं, किंतु वास्तव में कितनी विषमता है। सब लोग जीवन में अभाव ही अभाव देख पाते हैं। प्रेम का अभाव, स्नेह का अभाव, धन का अभाव, शरीर रक्षा की साधारण आवश्यकताओं का अभाव, दुःख और पीड़ा यही तो चारों ओर दिखाई पड़ता है। जिसको हम धर्म या सदाचार कहते हैं, वह भी शांति नहीं देता। सब में बनावट, सब में छल प्रपंच’’।”7
इस उपन्यास का चरित्र इंद्रदेव एक प्रगतिशील चरित्र है, जो गाँवों के सुधार पर बल देता है: “मैं तो समझता हूँ कि गाँवों का सुधार होना चाहिए।….उनके छोटे-छोटे उत्सवों में वास्तविकता, उनकी खेती में सम्पन्नता और चरित्र में सुरुचि उत्पन्न करके उनके दारिद्रय और अभाव को दूर करने की चेष्टा होनी चाहिए। इसके लिए सम्पत्तिशालियों को स्वार्थ त्याग करना अत्यंत आवश्यक है।”8 वस्तुतः यह उपन्यास पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था के प्रति समर्थन का उपन्यास है: “जिस कुल से वे आती हैं, उस पर से ममता हटती नहीं, यहाँ भी अधिकार की कोई संभावना न देखकर, वे सदा घूमने वाली अपराधी जाति की तरह प्रत्येक कौटुम्बिक शासन को अव्यवस्थित करने में लग जाती है।”9
अतः स्पष्ट है कि प्रसाद अपने इस उपन्यास में सुधारवादी दृष्टिकोण को अपनाते हुए समतामूलक, स्नेहमयी और आदर्श समाज की स्थापना पर बल देते हैं।
3. इरावती (अपूर्ण):
इरावती जयशंकर प्रसाद का तीसरा व अंतिम उपन्यास है, जिसे वह पूर्ण नहीं कर पाये। यह ऐतिहासिक उपन्यास शिप्रा नदी के घाट पर तीर्थ यात्रियों के स्नान करने से शुरू होता है। इस उपन्यास में प्रसाद ने दक्षिण के शुंगवंशीय शासक पुष्यमित्र शुंग के शासनकाल के सामाजिक, राजनैतिक जीवन को आधार बनाया है। इरावती, वृहस्पतिमित्र, ब्रह्मचारी, पुष्यमित्र, अग्निमित्र, कालिन्दी, पिंगलक स्वामी, महास्थविर आदि इस उपन्यास के प्रमुख चरित्र हैं। वस्तुत: ‘इरावती’ कामायनी के बाद की कृति है। “पुष्यमित्र शुंग के काल की कथावस्तु को आधार बनाकर प्रसाद जी ने इस उपन्यास में पाप-पुण्य के बजाय अच्छे और बुरे का विचार करते हुए ‘कंकाल’ की ही तरह से इसमें भी प्रयोग करने वाले व्यक्ति की दृष्टि को निर्णायक माना है।”10 अंतत: यही कहा जा सकता है कि अगर यह उपन्यास पूर्ण हो गया होता तो निश्चित रूप से बौद्ध धर्म के छल-प्रपंचों को हमारे सामने लाता।
अत: स्पष्ट है कि जयशंकर प्रसाद ने अपने उपन्यास साहित्य के माध्यम से प्राचीन भारतीय इतिहास, धर्म, दर्शन और सौन्दर्यशास्त्र का गहन विश्लेषण कर उसकी उपयोगिता और अनुपयोगिता को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है: “प्रकृति में विषमता तो स्पष्ट है। नियंत्रण के द्वारा उसमें व्यावहारिक समता का विकास न होगा। भारतीय आत्मवाद की मानसिक समता ही उसे स्थायीय बना सकेगी। यांत्रिक सभ्यता पुरानी होते ही ढीली होकर बेकार हो जाती है।”11
उनके द्वारा उठाई गई समस्याएँ आज भी उतनी भी प्रासंगिक हैं, जितनी आजादी से पूर्व थीं, चाहे वह नारी व्यापार, वैश्यावृत्ति, नारी उत्पीड़न-शोषण की समस्या हो, चाहे फिर धार्मिक आडम्बर, अंधविश्वास, भेदभाव और सामाजिक असमानता की हो। प्रेम, करुणा और भावना के प्रवाह में बहती हुई उनकी नारी चरित्र हिंदी कथा जगत की महत्वपूर्ण उपलब्धि हैं। उनकी कवित्वपूर्ण और नाटकीय शैली स्वयं में विशेष है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि जयशंकर प्रसाद का उपन्यास साहित्य सीमित होते हुए भी हिंदी कथा साहित्य के गौरव को बढ़ाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
संदर्भ सूची-
1. प्रसाद ग्रन्थावली (खण्ड-3), सं. रत्नशंकर प्रसाद, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1986, पृ.- 10
2. वही, पृ.- 72
3. वही, पृ.- 202
4. कामायनी का महाकाव्य दर्शन, डाॅ. रमाशंकर तिवारी, यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली, 1998, पृ.- 501
5. प्रसाद ग्रंथावली (खण्ड-3), सं. रत्नशंकर प्रसाद, लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद, 1986, पृ.- 110
6. वही, पृ.- 199
7. वही, पृ.- 319
8. वही, पृ.- 379
9. वही, पृ.- 335
10. वही, पृ.- 24
11. वही, पृ.- 320
– डॉ. पवनेश ठकुराठी