कविताएँ
जन समस्याएँ
बहुत इच्छा थी
जनसमस्याओं से मिलने की
कल मैं गया लायब्रेरी
जनसमस्याओं से मिलने
उलटे-पलटे कई अख़बार
कुछ पत्रिकाएँ
सहज ही इकट्ठा हो गयीं
जनसमस्याएँ मेरे इर्द-गिर्द!
मैंने पूछा- कैसी हैं आप?
बोलीं- मज़े में। जनता के बीच
मज़ा आ रहा है!
जड़ें गहरा रही हैं।
आप कैसे हैं?
मैंने कहा- तुम हो तो मैं भी हूँ।
तुम मज़े में तो मैं महामज़े में।
निश्चिंत!
तुम्हारा अस्तित्व है तो मेरा भी।
धन्य हुआ तुम्हारे दर्शनों से!
तुम इधर रहो…अख़बार और पत्रिकाओं के पन्नों के बीच
मैं उधर…जनता के बीच!
उन्होंने कहा-तथास्तु!
मैंने कहा-चिरायु भव!
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बहुत व्यस्त हूँ मैं अभी
मौसम चाहता है मुझे छूना
बादल चाहता है भिगोना
हवाएँ चाहती हैं मुझे ख़ुशबू की तरह
चारों तरफ़ बिखेरना
फूल चाहते हैं गुदगुदाना
और आकाश चाहता है मुझे विस्तार देना!
पर मैं नहीं चाहता अभी
स्पर्श
नहीं चाहता भीगना
नहीं चाहता महकना
या कोई विस्तार
क्योंकि मैं व्यस्त हूँ अभी!
मौसम आता है बार-बार
बादल और हवाएँ
हर रोज़ गुज़रती हैं इधर से
फूल खिलकर रोज़ महकते हैं
और आकाश रोज़ झांकता है इधर
बस
फ़ुर्सत के पल ही
नहीं आते कभी!
मैं चाहता हूँ ख़ुद से
इस पर होना शर्मिंदा
पर हो नहीं पाता
क्योंकि
बहुत व्यस्त हूँ मैं अभी!
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बहुत बुरा वक़्त है
बहुत बुरा वक़्त है
बुरे आदमी की तरह
दण्ड देना चाहता हूँ बुरे वक़्त को
हर बार
फाँसी का फंदा
डाल देता हूँ मैं वक़्त के गले में
हर बार की तरह
वह गला
होता है मेरा ही!
– कृष्ण सुकुमार