कविता-कानन
जंगल
जानवर सिर्फ जंगलो में ही नही होते
घात लगाए
किसी पत्थर की ओट में
या पत्तो के पीछे छिप कर
गर्दन पर हमला करते
एक बार में ही काम-तमाम
नोचते माँस को
जानवर इंसानों के अंदर भी होते हैं
उसकी मुस्कुराहट के पीछे
उसकी मीठी ज़बान के नीचे
उसके चेहरे के आवरण में घात लगाए
जंगल के जानवर
जब क्षुधा मिटा लेते हैं
कुदरत की भोजन-श्रृंखला का हिस्सा होकर
तृप्त से
शांत-चित हो जाते हैं
पर इंसान के अंदर बैठे जानवर की
भूख नहीं मिटती कभी
हमेशा अतृप्त
नोंचने को तैयार
जंगल सिर्फ बाहर ही नहीं होते
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औरतें
घरो में औरतें
दर्शकों-सी होती हैं
वो देखती हैं, सुनती हैं
जिंदगी को ठेलती हैं
बाज़ारों में औरतें
ईश्तिहारों-सी होती हैं
सजी-सँवरी चलती हुई
हर नज़र को झेलती है
किताबों में औरतें
ग़ज़ल जैसी होती हैं
कलम की लिखावट में
वो मिटती और रचती है
सड़क पर औरतें
शिकार जैसी होती हैं
किसी की वहशी भूख का
वो निवाला बनती हैं
औरतें कहाँ कभी औरतों-सी होती हैं!
हाँ, ख़्यालों में वो खुद के
वो औरतें ही होती हैं
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पर्दा और आदमी
पर्दा और आदमी,
आदमी और पर्दा
एक दूसरे में गुत्थम-गुत्था
आदमी अपना पर्दा ढँकने की कोशिश में
और पर्दा आदमी को,
समेटे हुऐ अपने-अपने नंगेपन में
कितने विकार, कितनी विसंगतियाँ
एक जैसे दोनों
नंगा आदमी, नंगा पर्दा
– हरदीप सबरवाल